Politics of South : फिर एक रथ पर सवार बीजेपी और अन्ना द्रमुक!

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Politics of South : फिर एक रथ पर सवार बीजेपी और अन्ना द्रमुक!

 

– वेद विलास उनियाल

 

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और अन्ना द्रमुक के महासचिव ई पलानीस्वामी की मुलाकात के बाद दक्षिण की सियासत को लेकर हलचल बढी है। इसके पीछे तमिलनाडु की सियासत का वह अहम परिदृश्य है, जिसमें यह माना जा रहा है कि बेशक कई कारणों से डीएमके की छवि पर विपरीत असर पड़ा हो, लेकिन अभी बीजेपी के लिए अकेले दम पर उसकी सत्ता को हिलाना मुश्किल है। उधर, अन्ना द्रमुक जिस तरह धड़ों में बंटी है उससे उसका प्रभाव कम हुआ है। अब अन्ना द्रमुक के महासचिव पलानी स्वामी कुछ शर्तों के साथ बीजेपी से समझौता करने को इच्छुक दिखते हैं।

तमिलनाडु की सियासत में एक बार बीजेपी और अन्ना द्रमुक के बीच आपसी संबंध बनते हुए दिख रहे हैं। दक्षिण राज्यों में अपने विस्तार की संभावना देख रही बीजेपी ने वहां के राज्यों के लिए अलग अलग नीतियां अपनाई। अन्ना द्रमुक के साथ साथ बीजेपी के संबंध बनते-बिगड़ते रहे हैं। तमिलनाडु में पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के निधन के बाद अन्ना द्रमुक में जो बिखराव हुआ, उसमें ही बीजेपी ने अपनी संभावनाएं टटोली। बीजेपी ने राज्य में अन्ना द्रमुक का स्थान लेने का प्रयास किया। बेशक बीजेपी के लिए लोकसभा या विधानसभा में कुछ अच्छे संकेत भी दिखे हैं। लेकिन, बीजेपी और अन्ना द्रमुक दोनों ने आकलन किया कि अभी किसी भी परिस्थिति में अकेले लड़कर द्रमुक को हराना बड़ी चुनौती है। इसलिए एक बार फिर दोनों दलों के गठबंधन की संभावना बनती दिख रही। इसी परिदृश्य में बीजेपी नेता अन्ना मलाई की भूमिका बदलने की संभावना बन गई है।

बीजेपी और अन्ना द्रमुक के बीच बनते बिगड़ते संबंधों का पटाक्षेप 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था। एआईडीएमके ने बीजेपी के नेता अन्नामलाई की पार्टी पर की गई टिप्पणियों को आधार बनाकर गठबंधन तोड़ा था। साथ ही एआईडीएमके अन्नामलाई की तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री अन्ना दुरई पर की गई टिप्पणी से भी नाराज थी। अन्ना द्रमुक ने एक तरह से भाजपा के अन्ना मलाई के इस्तीफे को मांग को दोनों पार्टियों के बीच समझौते का आधार बना दिया था। दूसरी तरफ अन्नामलाई पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को यह विश्वास दिलाने में कामयाब रहे थे कि अन्ना द्रमुक से अलग होने का तात्कालिक लाभ बीजेपी को नहीं मिलेगा। लेकिन, आने वाले समय में बीजेपी के लिए बड़ी संभावना है। बीजेपी एक दिन राज्य में अन्नाद्रमुक का स्थान लेगी। अन्नामलाई ने राज्य में पदयात्रा करके माहौल भी बनाया और बीजेपी की जनसभाओ में भीड़ भी उमड़ी।

बेशक एनडीए को लोकसभा में राज्य से एक भी सीट नहीं मिली। लेकिन, उत्तरी और पश्चिमी तमिलनाडु में चार पांच सीटों पर उसके प्रत्याशी संघर्ष करते दिखे। विधानसभा चुनाव की तुलना में बीजेपी का मत प्रतिशत भी बढा। यहां दो बातें खासतौर पर आकलन करने लायक है। 2014 या 2019 में मोदी लहर के बावजूद बीजेपी तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक के सहयोग पर भी करिश्मा नहीं दिखा पाई। जब अन्ना द्रमुक से अलग होकर 2024 का चुनाव लड़ा तब भी उसका खाता नहीं खुला। जबकि, बीजेपी ने अन्ना द्रमुक से हटकर कुछ दूसरी क्षेत्रीय स्थानीय पार्टियों का गठबंधन बनाया था। इसकी वजह साफ है। बीजेपी को राज्य में प्रचार तो मिला है। लेकिन, अभी उसका जनाधार सिमटा हुआ है। जबकि, द्रमुक अपनी कुछ कमियों के बावजूद अपने संगठन आधार के चलते बार बार सत्ता पाने में कामयाब रही है। निश्चित अन्ना द्रमुक में एम रामचंद्रन और जयललिता जैसे नेताओं के न रहने पर आए बिखराव का फायदा सीधे द्रमुक को मिला है।

इन स्थितियों में अब बीजेपी और अन्ना द्रमुक फिर करीब आने की संभावना बनती दिख रही है। बीजेपी को किसी भी स्तर पर रोकने के लिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने फिर से साठ की दशक की राजनीति को अपनाने की कोशिश की है। वह द्रविड़ अस्मिता पर क्षेत्रीय राजनीति का उभार करना चाहते हैं। त्रिभाषा फार्मूले का विरोध, परिसीमन पर एतराज के साथ साथ सनातन पर रह रहकर आती टिप्पणियों को इसी दायरे में देखा जा सकता है। जहां तक अकेले अन्ना द्रमुक की बात है तो स्टालिन की पार्टी द्रमुक इससे किसी भी तरह भयभीत नहीं है। लेकिन, बीजेपी और अन्ना द्रमुक के साथ आने पर द्रमुक को अपनी रणनीति को और कारगर बनाने की जरूरत पड़ेगी। अन्ना द्रमुक भी द्रविड़ भावना को उभारकर पिछड़ी दलित जातियों को आधार बनाकर खड़ी हुई थी। अन्नादुरई के निधन के तीन साल बाद ही 1975 में एमजी रामचंद्रन ने एआईडीएम के का गठन किया था। इसके दो साल बाद वह राज्य के मुख्यमंत्री बने।

डीएमके हो या एआईडीएमके दोनो ही द्रविड़ पार्टियों में नेताओं की फिल्मी पृष्ठभूमि रही है। जहां तक बीजेपी का इन पार्टियों के साथ आपसी संबंध का है तो बीजेपी के लिए अन्ना द्रमुक ज्यादा सहज और अनुकूल है। हालांकि करुणानिधि के समय द्रमुक से बीजेपी के संबंध कटुता के नहीं रहे। लेकिन, एम के स्टालिन ने बीजेपी के प्रति तेवर तीखे रखे हैं। उनकी पूरी कोशिश रही है कि कि राज्य में बीजेपी को उभरने से रोका जाए। दक्षिण की सियासत को साधने के लिए बीजेपी ने हर स्तर पर प्रयास किया है। तमिल काशी संगमम जैसे आयोजनों को और देश दुनिया के मंचों पर तमिल भाषा की प्रशंसा को इसी दायरे में देखा जा सकता है। यही नहीं बीजेपी के शीर्ष नेताओं की तमिलनाडु में सक्रियता बनी है। इसका असर भी हुआ है। जिस तमिलनाडु में दूर दूर तक बीजेपी की पहचान नहीं थी। लेकिन बदले समय में बीजेपी का असर कुछ सीमित इलाकों में सही लेकिन दिखता है। खासकर उसका प्रभाव अभी पश्चिम और उत्तरी तमिलनाडु में है। दक्षिण इलाके में उसे पैठ बनानी है।

बीजेपी के लिए दरअसल केंद्र की राजनीति के लिए तमिलनाडु का महत्व है। लोकसभा में तमिलनाडु की 39 सीटें अपना महत्व रखती है। गौरतलब है कि बीजेपी के लिए अभी तमिलनाडु और केरल अभेद दुर्ग बने हुए हैं। ऐसे में दूरगामी सियासत का भले ही अपना अलग महत्व हो लेकिन तमिलनाडु के सियासी परिणाम बीजेपी के लिए हताशा बनते हैं। ऐसे में शीर्ष नेतृत्व के लिए यह रणनीति कारगर दिखती है कि वह अपने राज्य नेतृत्व को अन्ना द्रमुक का साथ लेने के लिए तैयार करे। निश्चित अपने राज नेतृत्व की इच्छा के अनुसार बीजेपी ने लोकसभा चुनाव अन्ना द्रमुक का साथ छोड़ा। उस समय अन्ना द्रमुक की शर्त अन्नामलाई के इस्तीफे तक ही थी। बीजेपी चाहती है कि मान मनोबल कर समझौते की मेज पर आ सकती थी। लेकिन बीजेपी ने भी अपने राज्य नेतृत्व की भावना के अनुरूप ही एनडीए में अपने नेतृत्व में चुनाव लड़ा।

उधर, अन्ना द्रमुक ने भी इस स्थिति को महसूस किया है कि वह चुनावों में द्रमुक से बुरी तरह मात खा रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जीती हुई थेनी सीट भी उसने इस बार गवांई। थेनी सीट भी उसने तब जीती थी जब उसका बीजेपी के साथ गठबंधन था। अन्ना द्रमुक के मत प्रतिशत पर भी असर पड़ा और संगठन भी काफी हद तक कमजोर हुआ है। इन स्थितियों में अन्नाद्रमुक बीजेपी के साथ ज्यादा शर्त बांधने की स्थिति में नहीं है। द्रमुक नेता पलानीस्वामी यही चाहते हैं कि बीजेपी के साथ गठबंधन की स्थिति में उसके बागियों से समझौता नहीं हो। यानी पनीरसेल्वम और दिनाकरन को शामियाने से दूर रखा जाए। बीजेपी के लिए अपने अन्नामलाई जैसे नेताओं को आश्वस्त करना मुश्किल काम नहीं। इसी रणनीति में अन्ना मलाई को नई जिम्मेदारी देने की रणनीति पर विचार हुआ है। निश्चित अन्ना मलाई और पनीरसेल्वम एक ही इलाके के हैं और एक ही गोड जाति के हैं। इसलिए उन्हें क्षेत्रीय प्रभाव बनाए रखने की होड़ भी रहती है।

बीजेपी ने पहले ही स्पष्ट किया है कि तमिलनाडु सहित दक्षिण के राज्यों में लोकसभा सीटों पर दूसरे राज्यों की तुलना में अनुपातिक तौर पर कमी नहीं रहेगा। स्पष्ट है कि तमिलनाडु में भी सीटों को लेकर कोई अड़चन नहीं आने वाली। बीजेपी को मंथन करना होगा कि अन्ना द्रमुक के साथ तालमेल में दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों को किस तरह समायोजित किया जा सकता है। खासकर तब जबकि उसमें द्रमुक और अन्नाद्रमुक दोनों से निकले हुए नेताओं का शुमार है। जातियों के अपने समीकरण है। पीएमके मजबूत वनियार जाति से आते हैं। निश्चित जातीय समीकरणों का ताना बाना अपना महत्व रखता है। लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में 39 में 19 सीटों पर प्रत्याशी उतारने वाली बीजेपी की नजर दरअसल 2026 के विधानसभा चुनाव पर भी रही। पार्टी चुनाव के परिणाम से ही अपना आकलन करना चाहती थी। पीएमके तमिल मनीला कांग्रेस और ए एमएम के जैसे नौ दलों का साथ लेकर तमिलनाडु के परिणामों ने ही बीजेपी को महसूस कराया है कि तमिलनाडु से वांछित परिणामों के लिए कुछ और बड़े गलियारों को पार करना होगा। उसका ओबीसी कार्ड और तीसरी शक्ति बनने का प्रयोग कामयाब नहीं रहा। उधर, लोकसभा चुनाव से पहले एक्स पर थैंक्यू अब मत आना लिखने वाली अन्ना द्रमुक संकेत दे रहे ही कि वेलकम फिर वापस आओ।