भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) ने महिला और पुरूष क्रिकेटर्स को एक-समान मैच फीस देने का फैसला कर सबका दिल जीत लिया है। बीसीसीआई ने महिला-पुरुष खिलाड़ियों के बीच भेदभाव को दूर करने के लिए जो कदम उठाया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतना कम है। अनुबंधित महिला क्रिकेटर्स के लिए वेतन इक्विटी की यह पॉलिसी भारत में खेल इतिहास में मील का पत्थर साबित होगी। महिलाओं के लिए ही नहीं, यह खेलों के सम्मान वाली बाद भी है। समाज में जेंडर गैप को पाटने में यह फैसला कोहिनूरी चमक बिखेरेगा। इससे महिलाओं का खेल की तरफ रुझान बढ़ेगा और कैरियर के बतौर खेल का चुनाव करने का साहस पैदा करेगा। खेल जगत के इस फैसले ने राजनैतिक जगत को आइना दिखाया है। यहां वेतन का मामला था, तो राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मामला है। महिलाओं को उस दिन का इंतजार है, जब लोकसभा और विधानसभाओं में भी महिला-पुरुष बराबरी से सदन में दिखेंगे। अब उम्मीद यही की जाए कि राजनीति भी खेल भावना के साथ महिलाओं के मामले में उदारता बरते, तब बात बने जेंडर गैप को पाटने की।
हाल ही में लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षण को लेकर एक राष्ट्रीय स्तर के नेता ने आरोप लगाया है कि उत्तर भारत और संसद की ‘मानसिकता’ लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने के अभी अनुकूल प्रतीत नहीं होती। लोकसभा और सभी विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीट आरक्षित करने का प्रावधान करने वाला महिला आरक्षण विधेयक इसीलिए धूल खा रहा है। इस मामले में सभी दलों का रवैया लगभग एक जैसा ही है। सही मायने में जेंडर गैप को खत्म करने के लिए सभी दलों को इस विधेयक को पारित कराने का प्रयास करना चाहिए। बड़ी हास्यास्पद बात है कि पंचायत और नगरीय निकाय व्यवस्था में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देकर वाहवाही लूटने का मौका कोई भी दल नहीं छोड़ना चाहता, लेकिन लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण के लिए अब भी समझौता करने को कोई तैयार नहीं है। इस मामले में सभी दलों का रवैया कमोवेश वैसा ही सुर में सुर मिलाने का है, जैसे सांसद-विधायकों का वेतन-भत्ते बढ़ाने वाला बिल पारित करने के लिए सर्वसहमति से सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।
नजर डालें तो महिला आरक्षण विधेयक या संविधान (108वां संशोधन) विधेयक, 9 मार्च, 2010, भारत की संसद में एक लंबित विधेयक है। इसमें संसद के निचले सदन में सभी सीटों का एक तिहाई हिस्सा आरक्षित करने के लिए भारत के संविधान में संशोधन का प्रस्ताव है। भारत की लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटों को बारी-बारी से आरक्षित करने का प्रस्ताव किया गया था और यह ड्रॉ द्वारा निर्धारित किया जाना था कि एक सीट लगातार तीन आम चुनावों में केवल एक बार आरक्षित होगी।राज्यसभा ने 9 मार्च 2010 को विधेयक पारित किया। हालांकि लोकसभा ने कभी भी विधेयक पर मतदान नहीं किया। बिल लैप्स हो गया क्योंकि यह अभी भी लोकसभा में लंबित था और लोकसभा इस दौरान 2014 और 2019 में दो बार समाप्त हुई।
खैर BCCI ने आर्थिक रूप से जेंडर गैप को पाटकर राह दिखाई है और आदर्श उदाहरण स्थापित किया है। अब बारी राजनीति की है कि खेल की तरह ही राजनीति में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देकर जेंडर गैप का खात्मा कर आदर्श स्थापित करे। तब समाज में महिलाओं को बराबरी का स्थान मिल सकेगा। तब जाकर महिला सुरक्षा की कल्पना की जा सकेगी। तब जाकर महिलाओं के खिलाफ अपराध से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। तब जाकर ही महिला-पुरुष समानता की बात पूरी तरह से चरितार्थ होगी। उम्मीद यही कि बीसीसीआई की तरह राजनीति दिल जीतेगी …।