गीता के बारे में प्रचलित भ्रम और वास्तविकता
हिन्दू धर्म के अनुयायियों में गीता के प्रति अटूट श्रद्धा है क्योंकि वह स्वयं भगवान् के मुख से निकली हुई वाणी है। दूसरी ओर गीता के उपदेशों के प्रति अनभिज्ञता भी उतनी ही अधिक है। अनभिज्ञता की स्थिति तो इतनी विकट है कि सोशल मीडिया पर गीता के नाम पर कुछ भी उद्धरित किया जा रहा है और कहीं से भी किसी प्रकार के प्रतिवाद की आबाज सुनाई नहीं दे रही। गीता को ऐसे प्रचारित किया जा रहा है जैसे यह भी बाजार में मिलने वाली मोटिवेशनल किताबों जैसी ही है पर इतनी कठिन है कि समझ में नहीं आती। इन भ्रमों का निराकरण, गीता को समझने की पहली सीढ़ी हो सकता है।
गीता के बारे में सबसे बड़ा भ्रम बाजार में मिलनेवाले ‘गीतासार’ ने फैला दिया है जो कहता है कि ‘ जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह भी अच्छा हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छा होगा। तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो ? तुम क्या लाए थे जो खो दिया ? तुमने जो लिया यहीं से लिया, जो दिया यहीं पर दिया। खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाओगे।‘ आप पूरी गीता पढ़ लीजिए। यह शब्द तो छोडि़ए, इतना निराशापूर्ण भाव कहीं नहीं मिलेगा। शायद गीतासार के अज्ञात लेखक ने केवल अर्जुन के विषाद को ही गीता की शिक्षा मान लिया। अर्जुन भी तो इसी प्रकार अपना कर्तव्य ‘युद्ध’ छोड़कर संसार से पलायन करके भिक्षा मॉंगकर जीवन-यापन की बात कर रहा था पर इसके जवाब में भगवान् ने अपने पहले श्लोक (2.1-2) में ही अर्जुन इस प्रकार के विचारों के लिए डाँटा और कहा कि हृदय की दुर्बलता को त्याग कर उठ कर खड़ा हो जा। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि यदि पूरी गीता विलुप्त हो जाए पर भगवान् के कहे दूसरे श्लोक की दूसरी पंक्ति बची रहे – क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्तोतिष्ठ परंतप- तो भी गीता अपना उद्देश्य पूरा कर लेगी। पूरी गीता में अनेक स्थानों पर भगवान् ने कहा है कि दृढ़निश्चय करके युद्ध के लिए खड़े हो जाओ (2.37), ईश्वर न पुण्य देता है न पाप (5.15), हम अपने उत्थान व पतन के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं (6.5), । गीता मानवीय गरिमा का उद्घोष कर रही है, हृदय की दुर्बलता को त्याग कर उठ खड़े होने की गर्जना कर रही हो वहीं गीतासार जैसे अप्रमाणित प्रचारों ने भ्रम का कुहासा छा दिया है।
प्राचीन काल से ही एक भ्रम यह रहा है कि महाभारत घर में रखने से घर में लड़ाई-झगड़ा होता है और गीता उसका ही एक भाग है इसलिए गीता के लिए भी यह बात सही है। ऐसे भ्रम उन पोंगापंथियों ने फैलाए हैं जिनका निहित स्वार्थ ही आम लोगों को बेबकूफ बनाए रखकर अपना उल्लू सीधा करना था। भला वे क्यों चाहेंगे कि आम लोग जीवन जीने और चेतना को उन्नयन करने की कला सीख सकें ? महाभारत केवल कथा नहीं है। उन कथाओं में धर्म और संस्कृति के जीवन मूल्य निहित हैं। और भैया, हम लड़ाई-झगड़े में तो वैसे भी दिन-रात एक किये पड़े हैं, महाभारत रखें ही नहीं पढ़ें भी तो शायद इस लड़ाई-झगड़े को समाप्त करने का कोई रास्ता दिखाई दे जाए।
कहा जाता है कि गीता तो बहुत कठिन है। इसे समझना आम आदमी के बस की बात नहीं है। वास्तविकता यह है कि प्राचीन ग्रंथों में गीता की संस्कृत सबसे सरल है। साधारण हिन्दी जानने वाला भी दो-तीन बार पढ़कर गीता की संस्कृत समझने लगता है। फिर सभी भाषाओं में गीता के प्रमाणित अनुवाद भी उपलब्ध हैं। हॉं, यह सही है कि गीता का अर्थ आसानी से समझ में नहीं आता। इसका कारण है कि गीता उच्च आध्यात्मिक ग्रंथ है जो आपको जीवन के अनमोल रत्न प्रदान करती है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। आप साइकिल चलाना सीखना चाहते हो तो 4-5 दिन का प्रशिक्षण पर्याप्त होगा पर यदि स्पेश शटल उड़ाना हो तो पहले 10-15 वर्ष पढ़ाई करना पड़ेगी, 8-10 वर्ष कठोर प्रशिक्षण लेना पड़ेगा, कई परीक्षाएँ उत्तीर्ण करना पड़ेंगीं तब जाकर उसे उड़ाने की योग्यता प्राप्त होगी। बिना धैर्य, लगन और मेहनत के कुछ नहीं मिलता फिर गीता जैसे समुद्र के रत्न किनारे पर बैठकर कैसे मिलेंगे ? गहरे मे गोता लगाने की हिम्मत हो, धैर्य, लगन, परिश्रम और श्रद्धा हो तो गीता बहुत सरल है।
गीता को संन्यासियों की पुस्तक माना जाता है। कई लोगों की मान्यता है कि बच्चे गीता पढ़ेंगे तो उन्हें वैराग्य हो जाएगा। गीता तो नैराश्य से निकालकर जीवन संग्राम में उतारने के लिए तैयार करती है। गीता, मनुष्य के मूल स्वभाव के अनुसार अपना स्वाभाविक कर्म करने पर बल देती है। वह मानव चित्त की गहनतम परतों का विश्लेषण करती है। वह पहले पुरुषार्थ पर बल देती है (2/27), जब पुरुषार्थ की सीमा हो जाती है तब ईश्वर की शक्ति से जुड़कर उनका निमित्त बनने रास्ता दिखाती है (11/33) और अंत में सब कुछ ईश्वर को ही समर्पण करने की बात कहती है (18/66)। यह पुरुषार्थ से समर्पण तक की यात्रा है। इसकी सबसे ज्यादा जरूरत जीवन क्षेत्र में प्रवेश कर रहे युवाओं को है।
ऐसा कहा जाता है कि गीता तो जीवन के अंतिम क्षणों में सुनाने के लिए है । निश्चित ही ईश्वर की वाणी कभी भी सुनें, कल्याण ही करेगी परंतु गीता स्वयं कहती है कि जीवन भर जो भाव रखा होगा वही अंत समय में स्मरण में आता है और उसी के अनुसार गति प्राप्त होती है (8/6)। इसलिए गीता जीवन के प्रारंभ में सुनना और उसी के अनुसार जीवन यापन करना अंत समय में गीता सुनने से ज्यादा प्रभावी होगा। जीवन अभी है, गीता सुन लें, गुन लें, मृत्यु के समय सुनकर तो पछतावा होगा कि काश जीवन रहते सुन ली होती।
धार्मिक कट्टरता के पोषक भी गीता का नाम लेकर भ्रम फैलाते हैं। इसके उदाहरण में गीता का श्लोक कहा जाता है जिसमें कहा है कि अपने धर्म में मरना भला है दूसरे का धर्म तो भयप्रद है (3/35)। गीता 5200 वर्ष पूर्व कही गई जब ईसाई, मुस्लिम जैसे धर्मों का जन्म ही नहीं हुआ था। इसलिए यहाँ धर्म शब्द का वह तात्पर्य नहीं हो सकता जो आधुनिक धर्मपरिवर्तन के लिए उपयोग होता है। यहाँ धर्म का तात्पर्य है स्वभाव से (जन्म से नहीं) नियत कर्म जैसे क्षत्रिय स्वभाव वालों के लिए युद्ध, ब्राह्मण स्वभाव वालों के लिए पठन-पाठन आदि, आश्रम व्यवस्था के अनुसार गृहस्थ, संन्यासी आदि के लिए नियत कर्म, सांसारिक व्यवस्था में नियत कर्तव्य जैसे पिता, राजा, सेवक आदि के कर्तव्य आदि। गीता तो सर्वसमावेशी है। वह सर्वत्र ब्रह्म को देखती है और हर तरह की उपासना पद्धति को स्वीकार करती है। गीता कहती है ईश्वर, भक्त के भाव को देखते हुए पत्र, पुष्प, फल, जल आदि जो भी अर्पण होता है उसे स्वीकार करता है (9/26), जो जिस देवता को पूजता है वह उसके माध्यम से एकमात्र ब्रह्म को ही पूजता है (7/21-23)। गीता तो धार्मिक कट्टरता की घोर विरोधी है।
कहा जाता है कि गीता फल के बिना कार्य करने की बात कहती है जो संभव ही नहीं है। गीता ने भी ऐसा कभी नहीं कहा । कर्म का फल तो अनिवार्य रूप से मिलता ही है। गीता वस यह कहती है कि कर्म करना या न करना, कर्म किस तरीके से करना यह हम तय कर सकते हैं परंतु फल क्या मिलेगा यह कर्म के नियम से तय होगा जिसे हम नहीं बदल सकते (2/47)। इसलिए गीता, फल जो हमारे अधिकार में है ही नहीं, पर विचार करने की अपेक्षा, कर्म, जो हमारे अधिकार में है, करने पर जोर देती है और निष्काम कर्म के माध्यम से कर्म के बंधन से बचने का रास्ता बताती है।
तब प्रश्न यह है कि वास्तव में गीता का संदेश है क्या ? इसके उत्तर में मैं डॉ सुरेशचंद्र शर्मा की पुस्तक ‘व्यक्तित्व विकास और गीता’ से गीता-सार उद्धृत करना चाहूँगा जो इस प्रकार है –
• जीवन खेल का मैदान है जिसमें खेल, खिलाड़ी और खेल सामग्री सब कुछ भगवान् हैं।
• मानव जन्म रोने या पलायन करने के लिए नहीं अपितु हँसते-हँसते और परिस्थितियों से जूझते हुए आत्म-विकास करने के लिए मिला है।
• मानव शरीर प्राप्त कर यदि हम बाधाओं के सामने सिंह-गर्जन न करें और गरुड़ के समान उड़ान न भरें तो हमारा जीवन व्यर्थ है।
• भगवान् हमसे उद्दंडता और लाचारी रहित तेजस्वी जीवन की माँग करते हैं तथा मानव को आश्वासन देते हैं, ‘रो मत, कार्य कर, मैं तेरे साथ हूँ’।
• हम सदैव कहते रहें कि मैं प्रभु की शक्ति से युक्त हूँ और मैं सब कुछ कर सकता हूँ, बन सकता हूँ।
जितनी जल्दी भ्रमों के कुहासे से निकलकर गीता को समझ सकें उतना ही हम अपने जीवन को सार्थक बना सकेंगे।