प्रकृति पूजा, बाबा देव और डीलिस्टिंग…
यह “डीलिस्टिंग” शब्द भले ही बहुतायत में लोग पहली बार सुन रहे हों, लेकिन यह शब्द वास्तव में आदिवासी हितों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यह बात समझ में फिर भी नहीं आ रही कि एक तो 1970 से अब तक डीलिस्टिंग संबंधित संशोधन विधेयक को लोकसभा में क्यों लंबित रखा गया? दूसरी बात यह कि जनजाति सुरक्षा मंच जब इस मुद्दे की पैरवी इतने बड़े पैमाने पर अब कर रहा है तो केंद्र में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद करीब नौ साल तक शांत क्यों रहा? खैर देर आयद दुरुस्त आयद कि जो व्यक्ति जनजाति आरक्षण से नौकरी पाकर या पढ़ाई लिखाई कर अपना जीवन स्तर सुधारने के साथ धर्म परिवर्तन कर चुका है और अपनी परंपराओं को छोड़ चुका है, प्रकृति पूजा से पल्ला झाड़ चुका है और बाबा देव को भुला चुका है। ऐसे सभी लोगों को आदिवासी समुदाय से बाहर किया जाए, ताकि उनके परिजन जनजाति हितों और विशेष प्रावधानों का दुरुपयोग न कर सकें। यह वाकई में आदिवासी हितों से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसका फायदा उन आदिवासियों को मिल सकेगा जो इसके वास्तविक हकदार हैं। इसलिए यह मत स्वीकार्य योग्य है कि डीलिस्टिंग अनुसूचित जनजाति वर्ग के अधिकारों की लड़ाई है।
जनजाति सुरक्षा मंच के क्षेत्र संयोजक कालूराम मुजाल्दा के मुताबिक यह लड़ाई हमारे लिए नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए है। संविधान में जिस प्रकार अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जाति के लिए प्रबंध किए गए हैं कि यदि वे मतांतरित होते है तो आरक्षण आदि की सुविधाएं नहीं मिलेंगी जबकि अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजाति के लिए अलग नियम हैं। यह जनजाति समाज के हित में नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और तत्कालीन सांसद बाबू कार्तिक उरांव के 1967 से किए गए संघर्ष और अथक प्रयासों के बाद भी इस संबंध मे विधेयक संसद में लंबित रखा गया है। जनजाति सुरक्षा मंच ने हस्ताक्षर अभियान चलाकार 28 लाख जनजाति बंधुओं के हस्ताक्षर वाला मांग पत्र तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा ताई पाटिल को सौंपा था। इसके लिए मंच लगातार आंदोलन कर रहा है कि संसद में इस बिल को पास किया जाए। आज गांव के व्यक्ति को भी डीलिस्टिंग का विषय समझ में आ गया है। जनजाति समाज अब जाग चुका है।
दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ मुकेश मिश्रा के अनुसार डीलिस्टिंग इसलिए अनिवार्य है, क्योंकि यह जनजाति के बंधुओं को उनके अधिकार देने के साथ उनकी उन्नति का मार्ग खोलेगी। अभी अन्याय की एक प्रथा चल रही है। जो लोग अपने मत को बदलकर दूसरे मत में चले गए हैं, वे ही सारा लाभ उठा रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि जो लोग अपनी जड़ों, विश्वास, आस्था और परंपराओं से जुड़े हुए हैं, उन्हें आरक्षण सहित संविधान एवं शासन प्रदत्त सुविधाओं का सौ प्रतिशत लाभ मिले, इसलिए भी डीलिस्टिंग बहुत जरूरी है।
जनजाति सुरक्षा मंच के प्रदेश संयोजक कैलाश निनामा ने कहा कि डीलिस्टिंग एक मार्मिक विषय है। यह सिर्फ आरक्षण से जुड़ा हुआ नहीं है। यह विषय जनजातीय समाज के स्वाभिमान का विषय है। यह जनजातीय संस्कृति के संरक्षण और अस्तित्व की चिंता से जुड़ा हुआ विषय है। यह जनजाति ही नहीं बल्कि मूल सनातन की अग्रिम पंक्ति में रहने वाले समाज का विषय है। शहरों में रहने वाले प्रबुद्धजन नहीं जानते कि संकट कितना बड़ा है। बाबूजी कार्तिक उरांव ने कांग्रेस के सांसद रहते हुए 1967 में इस विषय पर चिंता जताई थी। आज जनजातीय समाज और पूरा देश जानना चाहता है कि आखिर वह क्या वजह थी कि जो सांसद देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उनके समर्थन के बाद भी यह बिल आज भी संसद में पेंडिंग है। इस पर संसद को पुन: विचार करके इस विधेयक को लागू करना चाहिए। हमें डीलिस्टिंग के लिए पूरे देश का समर्थन एवं सहयोग चाहिए।
जनजातीय एवं संवैधानिक मामलों के जानकार लक्ष्मण सिंह मरकाम का मानना है कि समाज के अधिकारों की चिंता करने की जवाबदारी संसद की है। संसद चाहे तो वंचितों, शोषितों को विशेष अधिकार देने के लिए नियम बना सकती है। आर्थिक प्रलोभन से धर्म परिवर्तन किया जाता है तो वह जनजाति को मिलने वाले लाभ का अधिकारी नहीं रह जाता। जनजाति समाज प्रकृतिपूजक है लेकिन अन्य धर्म में जाता तो क्या वह प्रकृतिपूजक रह जाता है। उनकी मूल पहचान ही उसकी मूल आत्मा है। जब कोई व्यक्ति अपनी मूल पहचान को छोड़ देता है तो वह बैकवर्ड नहीं रह जाता। जिन्होंने अपनी मूल पहचान खो दी है उन्हें मूल पहचान वाले जनजाति बंधुओं के अधिकार छीनने के हक नहीं दिए जाएं।
डॉ दीपमाला रावत का मत है कि ऐसे लोगों जिन्होंने जनजातीय पहचान छोड़ कर कोई अन्य मत अपना लिया है उन्हें डीलिस्टंग करने के लिए 1967 में अनुसूचित जाति जनजाति आदेश संशोधन विधेयक आया था। संसद की संयुक्त समिति ने 17 नवंबर 1969 को इसकी सिफारिशें की थीं। स्वतंत्रता सेनानी एवं तत्कालीन सांसद जनजाति समाज के कार्तिक उरांव द्वारा 10 नवंबर को इस संबंध में 322 लोकसभा सदस्यों और 26 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षर वाला पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री को दिया था। इसके बावजूद मात्र 50 सदस्यों ने इस विधेयक को खारिज करने का पत्र दिया जो 348 सदस्यों की सहमति पर भारी पड़ गया। 16 नवंबर 1970 को इस विधेयक पर लोकसभा में बहस के बाद इस विधेयक को आज तक पेंडिंग रखा गया है। कार्तिक उरांव ने इस विषय में एक पुस्तक भी लिखी ‘20 वर्ष की काली रात’। इस इतिहास की देश के सभी लोगों को जानकारी होनी चाहिए। जनजाति बंधुओं के अधिकारों के संरक्षण के लिए डीलिस्टिंग जरूरी है।
आदिवासी बड़ी संख्या में एकत्र होकर अपनी बात रखेंगे और कहीं न कहीं विश्व संवाद केंद्र में डीलिस्टिंग पर आयोजित संगोष्ठी के भावों का समर्थन करेंगे। पर फिर वही जिज्ञासा आम आदमी को बेचैन करेगी कि जनजाति सुरक्षा मंच को चुनावी साल में ही डीलिस्टिंग का यह मुद्दा बेचैन क्यों कर रहा है? हालांकि एक भारतीय नागरिक होने आदिवासी हित के इस मुद्दे का समर्थन मैं भी करता हूं और निश्चित तौर से संसद में लंबित विधेयक को अब और ज्यादा समय लंबित नहीं रहना चाहिए। राजनैतिक रंग भी चढ़े तो चढ़ जाए, पर आदिवासियों के कानून में डीलिस्टिंग संबंधी संशोधन हो ही जाना चाहिए ताकि मूल आदिवासी अपने अधिकारों का फायदा उठा सके। वहीं जो आदिवासी नहीं रह गया, उसे जनजाति लाभों से भी वंचित किया