प्रकृति के खेल भी अजीब हैं , कुछ दिनों पहले मानसून के रास्ता भटक जाने का रोना रोया जा रहा था और अब बाढ़ की समस्याओं पर बात हो रही है। मैंने कई लोगों को यह कहते सुना है , कि यदि अनावृष्टि और अतिवृष्टि ये दो ही अवश्यंभावी घटनाएं हों तो वे अतिवृष्टि ही चुनेंगे। क्या पता भारतीय मानस के इसी स्वभाव के कारण हमारी पौराणिक गाथाओं के नायक-नायिका मनु और शतरूपा अतिवृष्टि और प्रलय में ही जीवन की शुरूआत करते हैं। प्रशासनिक सेवा में आने के पहले नदी और बारिश के मेल से उपजी बाढ़ की कथाएँ तो रेणु की परती परिकथा और अमृत लाल नागर के उपन्यासों में ही पढ़ी थीं पर शासकीय सेवा में आने के बाद जाना कि अतिवृष्टि से उपजी परिस्थितियां से अनेकों कहानियों का संसार हमारे प्रशासनिक जीवन में भी प्रगट होता है ।
विदिशा में जब मैं कलेक्टर नियुक्त हुआ तो पदस्थापना के अगले सप्ताह से ही भीषण बारिश का दौर आरंभ हो गया था । उस वर्ष कहते हैं , ऐसी बाढ़ आई , जो बीसों सालों में नहीं आई थी। बाढ़ का पहला दिन ही भयावह था । मैं सुबह-सुबह अपने निवास स्थान से निकलने की तैयारी कर ही रहा था कि एक स्थानीय प्रेस फोटोग्राफर श्री मालवीय का फोन आया, मैंने फोन उठाया तो उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि वे जहां रहते हैं , उस कॉलोनी में नदी का पानी भर रहा है और इसकी रक्षा के लिए सामने नवीन विकसित कॉलोनी की बाउण्ड्रीवॉल जे.सी.बी. भेजकर गिरवा दी जानी चाहिए। मैंने सुना और कहा कि ठीक है , मैं पता करवाता हूं। दरअसल एक दूसरी कॉलोनी की बाउण्ड्रीवॉल गिरवाना सही रहेगा या नहीं, मैं यह सोच ही रहा था कि अगला फोन 5 मिनिट बाद सी.एम. हाऊस से आ गया और मुझे आश्चर्य हुआ कि सी.एम. हाऊस से जो अधिकारी बात कर रहे थे उन्होंने वही बात कही जो मालवीय जी ने मुझे कही थी। मैं समझ गया कि इस जिले में एक सामान्य व्यक्ति की पहुंच भी बहुत ऊपर तक है और बड़ी सतर्कता से आपको तत्काल निर्णय लेने होंगे। खैर सचमुच बाउण्ड्रीवॉल को हटाने पर बस्ती में भरा पानी निकल गया , लेकिन बारिश का दौर लगातार जारी रहा और विदिशा से लगे हुए कुछ ग्रामों में नदी में पानी बढ़ने से खतरे की स्थिति आ गई । राहत दल बचाव के लिए भेजा गया और ग्रामवासियों को सुरक्षित निकालकर बचाव शिविरों में पहुंचाया गया। शाम तक यह खबर आई कि ग्राम में कुछ लोग जिनके मकान ऊँचाई में बसे थे , अभी भी फंसे हुए हैं और पानी बढ़ने से घबराकर वे पेड़ों पर चढ़े हुए हैं। जब तक बचाव दल बेतवा की विशाल जलराशि पर जाने की तैयारी करे तब तक अंधेरा हो चुका था और अंधेरे में उन्हें सुरक्षित निकालकर ला पाना खतरे से खाली नहीं था। बचाव दल ने लोगों से बात कर यह तय कर लिया कि वे सुरक्षित हैं और ऐसी स्थिति में यह निश्चय किया गया कि इन्हें सुबह निकाला जाएगा। बड़ी मुश्किल से रात कटी और जब सुबह बोट से इन लोगों को निकालने की तैयारी होने लगी तो स्थानीय मंत्री श्री राघव जी ने जिद पकड़ ली कि वे भी बोट में जाएंगे। भारी पशोपेस के बीच उन्हें बमुश्किल इस बात के लिए राजी किया गया कि वे नहीं जाएं और बदले में श्री मुकेश टण्डन बचाव दल के साथ बोट में बाढ़ के बीच फंसे उन ग्रामवासियों को निकालने गए जो पेड़ों पर बसेरा किए हुए थे।
निचली बस्तियों में बाढ़ से प्रभावित लोग और आसपास के ग्रामों में बाढ़ प्रभावित नागरिकों को सुरक्षित स्थान पर लाने के बाद सबसे जरूरी काम था , उनके लिए रहने और खाने की उचित व्यवस्था करना। संयोग से विदिशा के लोग सेवाभाव में बहुत आगे है। देखते ही देखते हमारे पास हर वर्ग से प्रस्ताव आ गए कि इन राहत शिविरों में सामान्य जन क्या-क्या व्यवस्थाएं करेंगे। मैं ऐसे सभी लोगों से बातचीत कर व्यवस्था बना ही रहा था कि श्री चौकसे जो स्थानीय शराब ठेकेदार थे, इन शिविरों में भोजन की व्यवस्था का प्रस्ताव लेकर आये, बातचीत के बाद संतोषजनक व्यवस्था का एतमाद होने के बाद उन्हें भोजन की व्यवस्था सौंपी गई। चलते-चलते जब मैंने उन्हें अच्छे काम के लिए धन्यवाद दिया तो उन्होंने कहा कि ऐसा तो वे बहुत वर्षों से कर रहे हैं। फिर उन्होंने एक दिलचस्प कहानी सुनाई। चौकसे जी कहने लगे कि बरसों पुरानी बात है, उनकी शादी हुए कई साल हो गए थे और उनके बच्चे नहीं हो रहे थे । चौकसे दम्पति ने कई डाक्टरों को दिखलाया पर नतीजा सिफ़र ही रहा और उन्होंने ये संतोष कर लिया कि शायद उनके भाग्य में संतान है ही नहीं । एक बार जब विदिशा में बाढ़ आई तो चोकसे जी ने बाढ़ में फंसे लोगों को भोजन बांटने की पेशकश की और प्रशासन की मंजूरी मिलने के बाद पूरी और आलू की सब्जी के पैकेट बनवाकर नाव में बैठकर बाढ़ में फंसे लोगों को पैकेट बांटने निकल पड़े । एक दिन जब वे बाढ़ में फँसे गांव में खाना देने जा रहे थे तो उन्हें कुछ लोग पेड़ों पर चढ़े दिखाई दिए। चौकसे जी ने नाव रोकी , पेड़ पर चढ़े लोगों को उतारकर नाव में बैठाया और उन्हें खाने के पैकेट दिए। उनमें से एक आदमी इतना भूखा था कि प्लास्टिक की पन्नी समेत पूरियाँ निगलने लगा तो चोकसे जी बोले कि भैया प्लास्टिक की पन्नी हटाकर खाओ । वह ग्रामीण बोला मारे भूख के समझ नहीं आ रहा है कि कहां पूरी है और कहां पन्नी, तुमने भोजन कराया तुम्हारे बच्चे जुगजुग जिएँ। चौकसे जी बोले कि भैया मेरा तो कोई बच्चा ही नहीं है तो वह ग्रामीण पूरी खाते-खाते बोला कि ‘’तुम्हारे एक नहीं दो-दो बच्चे हों’’। चौकसे जी कहने लगे साहब जो काम कोई डॉक्टर नहीं कर पाया वह उसकी दुवाओं ने कर दिया। आज मेरे सचमुच दो बेटे हैं और भगवान की दया से कारोबार भी संभाल रहे हैं।