राष्ट्रपतिः कहां है, विपक्षी एकता?

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अब उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मु का समर्थन करेगी। यह अपने आप में एक खबर है, क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि जिस भाजपा के चलते ठाकरे की सरकार चलती बनी, उसी भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन उन्हें करना पड़ रहा है। वे कहते हैं कि यह समर्थन उन्होंने मजबूरी में नहीं किया है। पहले भी उन्होंने प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था, जबकि ये दोनों कांग्रेस के उम्मीदवार थे और शिवसेना भाजपा के साथ गठबंधन में थी।

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उद्धव ठाकरे का यह तर्क मजबूत दिखाई पड़ता है लेकिन इस बार दो कारण से जो पहले आजादी थी, वह अब शर्मनाक मजबूरी बन गई है। पहला तो यह है कि इस बार भाजपा ने आपको अपदस्थ कर दिया है। फिर भी आप उसके उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं। दूसरा आपके सांसदों में से ज्यादातर ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि वे मुर्मु का समर्थन करेंगे। यदि ठाकरे अपने सांसदों की बात नहीं मानते तो उन्हें पता था कि वे सब दल-बदल करके भाजपा में शामिल हो जाते। अपनी बची-खुची पार्टी को बचाए रखने के लिए यही व्यावहारिक कदम था।

अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि मुर्मु जीतेंगी और यशवंत सिंहा हारेंगे। सिर्फ ठाकरे की शिवसेना ही नहीं कई राज्यों की प्रांतीय पार्टियां भी अब खुलकर मुर्मु के समर्थन में आ गई हैं। बहुजन समाज पार्टी, देवेगौड़ा का जनता दल, अकाली दल और झारखंड की जेएमएम भी भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन करेगी। तेलंगाना राष्ट्र समिति ने सिंहा के समर्थन की घोषणा की है लेकिन ओडिशा की पटनायक सरकार मुर्मु का समर्थन करेंगी। कोई आश्चर्य नहीं कि आप पार्टी के नेता भी मुर्मु का समर्थन कर दें, क्योंकि कांग्रेस के साथ उनकी पंजाब और दिल्ली में तगड़ी लड़ाई है।

Mamta Banerjees

जहां तक ममता बेनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का सवाल है, यशवंत सिंहा उसी के पदाधिकारी थे और ममता ने ही सिंहा को राष्ट्रपति पद के लिए आगे बढ़ाया था लेकिन उनकी टक्कर में एक आदिवासी और वह भी एक महिला को देखकर उनकी उलझन ज्यादा बढ़ गई है, क्योंकि एक तो वे खुद महिला है और दूसरा तृणमूल कांग्रेस के पांच सांसद आदिवासी हैं। प. बंगाल की लगभग 40 सीटें ऐसी हैं, जिनमें आदिवासी मतदाताओं के थोक वोट ही उम्मीदवारों को विजयी बनाते हैं। ऐसे में ममता बेनर्जी का ढीला पड़ना समझ में आता है। इसीलिए वे यशवंत सिंह से बंगाल-यात्रा का आग्रह भी नहीं कर रही हैं। ममता के इस बयान से भी उनकी दुविधा झलकती है कि यदि भाजपा चाहती तो द्रौपदी मुर्मु के नाम पर सर्वदलीय सहमति हो सकती थी।

यशवंत सिंहा भी जानते हैं कि वे विपक्ष के उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति का चुनाव नहीं जीत पाएंगे लेकिन इतने सुयोग्य उम्मीदवार के बहाने विपक्ष जो अपनी एकता स्थापित करना चाहता है, अब वह भी दूर की कौड़ी मालूम पड़ रही है।