जुलूस की भीड़, देवी भक्ति और श्रीमती

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इन दिनों शारदीय नवरात्रि पर्व के चलते चारों ओर माँ अम्बे की भक्ति का वातावरण है , पर रामलीला की धूम-धाम को मनोरंजन के नए उपकरणों यानी टी.व्ही. और मोबाइल ने मद्धम कर दिया है । जब हम बच्चे हुआ करते थे , तब दस दिनों तक चलने वाली रामलीला जो दशहरे पर समाप्त होती का एक अलग क्रेज़ होता था । मंडला शहर में जहाँ हमारे पिताजी पोस्ट आफिस में पोस्टमास्टर हुआ करते थे सन उन्नीस सौ सत्तर में पड़ाव पर होने वाली रामलीला की अलग चमक थी । रात होते ही अपने भाई बहनों के साथ घर से दरी-बिछात लेकर रामलीला देखने जाने का बड़ा बेकल उत्साह हम बच्चों में हुआ करता था । दशहरे पर निकलने वाले जुलूस में राम लक्ष्मण बने नवयुवकों में एक युवक हमारी बड़ी दीदी के कालेज में साथ पढ़ा करता था तो जुलूस के बीच उसे जाकर मिलना ऐसा अहसास कराता था मानो किसी बड़ी सेलेब्रिटी को हम जानते हों । एक बार अपने नाना के घर गुरु पिपरिया जब दशहरे पर जाने का अवसर मिला तो ग्राम में आयी रामलीला मंडली में हम बच्चों को वानर सेना बन अभिनय का अवसर भी मिला , क्या पता साहित्य और कथा के प्रति अनुराग तब ही मेरे मन पैठ गया हो । पिता के तबादले के साथ जब हमारा परिवार जबलपुर आ गया , तब जबलपुर में नवरात्र पर देवी प्रतिमा की स्थापना की बड़ी धूम रहा करती थी ।
ज़्यादातर प्रतिमाएँ पंचमी तक ही स्थापित हो पाती थीं , सो पंचमी के बाद शहर के विभिन्न भागों में स्थापित की गयी देवी प्रतिमाओं के दर्शन का क्रम प्रारम्भ होता । हम बच्चों के लिए ये त्योहार दोगुने लाभ का विषय होते थे , दर्शन के लिए बाहर घूमने जाने का अवसर मिलता और फिर बाहर जाने पर कुछ अच्छा खाने पीने का भी । जबलपुर का दशहरा बड़े धूमधाम से हुआ करता , और रावण दहन का कार्यक्रम तो राँझी , गोरखपुर , आधारताल और घंटाघर के अलग अलग उपनगरों में तीन दिवस तक चलता , पर इन सबसे अलग आकर्षण था वो चल समारोह , जो दशहरे के दिन मेडिकल से आरम्भ होकर ग्वारी घाट तक चला करता था । इस चल समारोह में शहर के विभिन्न अंचल में रखी देवी प्रतिमाओं को विसर्जन के लिए एक क्रम में भक्ति पूर्ण जुलूस के रूप में ले ज़ाया जाता था । अद्भुत झाकियों के साथ चित्ताकर्षक रोशनी से सजी प्रतिमाएँ एक के बाद एक सामने से गुजरतीं , और उन्हें देखने जुलूस मार्ग पर बैठने की होड़ मची रहती । मेरे बड़े बहनोई दिनेश दूरभाष विभाग में थे और उनकी जानपहचान की बड़ी दुकानों में हम बच्चों के बैठने का इन्तिज़ाम कराना उनके अहम कर्तव्यों में शामिल था ।
देवी प्रतिमाओं के दर्शन का रिवाज बाद के दिनों तक भी बना रहा , यहाँ तक कि जब मैं नौकरी लग गया तब भी तक इस घटना के घटने तक । मेरे विवाह के कुछ महीनों बाद ही राजनांदगाँव से मेरा तबादला नरसिंहपुर हो गया । नवरात्रि के अवसर पर मैंने अपनी पत्नी को प्रस्ताव दिया की आज रात्रि में शहर में रखी देवी प्रतिमाओं के दर्शन के लिए चलेंगे । श्रीमती जी सहर्ष तैयार हो गयीं , और शाम ढले अपनी वेस्पा स्कूटर में पत्नी को बिठा कर मैं शहर के भ्रमण पर निकल पड़ा शायद अष्टमी का दिन था , तो पूरे शहर में देवी प्रतिमाओं के समीप भारी भीड़-भाड़ थी । स्कूटर पर सैर करते और दर्शन करते हुए हम वापस आ रहे थे तभी रास्ते में एक और पांडाल पड़ा । भीड़ होने के कारण मैंने स्कूटर धीमा किया , श्रीमती जी को लगा रोक रहे हैं , तो वो उतर गयी । शोर शराबे और जनता की आवाजाही में मुझे पता ही नहीं लगा ये उतर गयी हैं । हमारी नई नई शादी थी , और मेरी बुंदेलखंडी धर्मपत्नी मेरा नाम नहीं लेती थी , तो एजी सुनोज़ी करती वो पीछे से मुझे बुलाती रही और मैं चलता रहा । रास्ते से गुजर रहे किसी सज्जन ने मुझे रोका और कहा कि आपको कोई पीछे से दौड़ लगाती हुई भद्र महिला पुकार रही है , तब मैंने पीछे देखा तो पाया कि स्कूटर की पिछली सीट ख़ाली थी और श्रीमती जी हाँफती हुई पीछे से आ रही थीं । मैंने उनसे क्षमा माँगी और स्कूटर पर बैठा कर सिविल लाइन स्थित अपने घर की ओर रवाना हो गया ।