‘यादों का सिलसिला’: इस पुस्तक में हम फील्ड की धूल पसीने और रक्त को त्रिपाठी जी का अक्स बनाता हुआ देख सकते हैं

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 पूर्व डी जी  श्री एन के त्रिपाठी जी की पुस्तक ‘यादों का सिलसिला’ के विमोचन पर 

 ‘यादों का सिलसिला’: इस पुस्तक में हम फील्ड की धूल पसीने और रक्त को त्रिपाठी जी का अक्स बनाता हुआ देख सकते हैं

मनोज श्रीवास्तव   
वसीम बरेलवी जी का एक कितआ है :
मेरी तनहाइयाँ भी शाइर हैं
नज्र-ए- अशआर-ओ-जाम रहती हैं
अपनी यादों का सिलसिला रोको
मेरी नींदें हराम रहती हैं
त्रिपाठी सर की यह पुस्तक भी तभी संभव हुई जब उनके जेहन में यादों का सिलसिला रुका नहीं।इसलिए इस पुस्तक का शीर्षक ठीक ही बन पड़ा है। और न केवल यह नाम बल्कि यह पुस्तक भी इस बात का प्रमाण है कि स्मृति विज्ञानी जिन्हें senior moments कहते हैं जब बढ़ती हुई उम्र के साथ साथ याददाश्त एक धुंधलके में छिपती जाती है, जिसे library with missing books सिंड्रोम कहा जाता है, वे moments रिटायरमेंट के इतने वर्ष बाद भी त्रिपाठी सर को प्रभावित नहीं कर सके हैं। रिटायरमेंट आईने से इतनी दूरी तो दे देता है जिसमें लेखन को स्पेस मिल सके पर वह यादों को, कम से कम त्रिपाठी सर की यादों के प्रवाह को, कम नहीं करता। वही आइशा अय्यूब वाली बात :
खत्म तेरी याद का हर सिलसिला कैसे करूँ
दूर रह कर मैं तुझे खुद से जुदा कैसे करूँ
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ये यादें पूरे जीवन भर की है, भले ही इन्हें टुकड़ों टुकड़ों में त्रिपाठी जी ने लिखा है। ये आत्मकथात्मक यादें हैं। इस किताब को उनकी ऑटो बायोग्राफी कहा जा सकता है। इस किताब में त्रिपाठी जी सिर्फ क्रिएटर ही नहीं हैं, वे इस पुस्तक के सब्जेक्ट मैटर भी हैं। इसे लिखते हुए उन्होंने उस सारे घटनाक्रम को re-experience किया है। मैं तो इसी बात से इंप्रेस था कि सर को इतना बारीक बारीक सब कैसे याद है। मेरे लिए तो अनुभव एक बादल का टुकड़ा है, जितना बरसता जाता है, उतना घुलता जाता है। पर इन्हें सब याद है। ये memoirs पढ़ते हुए मुझे लगा कि कविता कहानियां पढ़ना कल्पना में समय बिताना है, but to make sense of life, one has to go through telling one’s own story. इस पुस्तक में त्रिपाठी जी के सेल्फ का फिक्शनलाइजेशन नहीं है, वह तो ठीक, उसका सेलीब्रेशन भी नही है। साथ ही जैसा कई विनम्र आत्मकथाओं के साथ होता है, इसे कन्फेशन्स की पुस्तक बनाने की कोशिश भी नहीं की गई है – हालाँकि पुलिस वाले कन्फ़ेशन कराते हैं, करते नहीं हैं। और यह ईगोइस्टिक पुस्तक भी नहीं बन पड़ी है। जितने सरल सहज त्रिपाठी जी हैं, वैसी ही यह पुस्तक है।
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उनकी यह आत्मकथा बदलते समय का एक living document है। प्रदेश और देश में हो रहे परिवर्तनों का प्रतिबिम्ब। इसमें आपको सिख दंगे, बाबरी मस्जिद, इंदिरा जी, राजीव गाँधी, कश्मीर आतंकवाद, डकैती उन्मूलन – सब जैसे आँखों के सामने खिंचता चला जाता है। थियोडोर रूजवेल्ट सही कहते थे: The credit belongs to the man who is actually in the arena, whose face is marred by dust and sweat and blood. इस पुस्तक में हम फील्ड की धूल पसीने और रक्त को त्रिपाठी जी का अक्स बनाता हुआ देख सकते हैं। चाहे वह दमोह के जंगल , हों या बैतूल की कोल माइंस या ग्वालियर के पनिहार गाँव की उत्तेजित भीड़ – इन सबका सामना करते हुए वे गुज़रे हैं। जूलियो रिबेरो अपनी आत्मकथा ‘बुलेट फॉर बुलेट’ में सही ही लिखते हैं कि There is no halfway house in policing- either you deliver, or you disappear. आधुनिक पोलिसिंग immense burdens और तनावों का सामना करती है। मेडल्स और रैंक्स से कहीं आगे वह conviction, courage और Commitment की परीक्षा है। मैं इस पुस्तक में जब डकैती उन्मूलन अभियानों के बारे में पढ़ रहा था तो मुझे अमेरिकी पुलिस अधिकारी इलियट नेस की आत्मकथा ‘द अनटचेबल्स के उस भाग की याद आने लगी जिसमें वे शिकागो में संगठित अपराध के विरुद्ध अपने संघर्षकी कथा कहते हैं। ऐसी आत्मकथाओं को पढ़कर लगता है कि पुलिसिंग जितनी गन्स में है, उससे कहीं ज्यादा ग्रिट में है। ऐसे ही NCRB में त्रिपाठी जी का जो कार्यवृत्त
  मैंने इस पुस्तक में पढ़ा तो मुझे बिल ब्रिटन की आत्मकथा ‘टर्नअराउंड’ के वे रिफ्लेक्शन्स याद आए जो उन्होंने टेक्नॉलाजी और ट्रांसपेरेंसी के पुलिस- संदर्भ में किए हैं। वो क्राइम मैपिंग। वो Compstat. तब मुझे लगा कि geography भले ही बदल जाए, पर आधुनिक पुलिस अधिकारी की चुनौतियां, उसके moral dilemma, उसकी स्पिरिट नहीं बदलती।
त्रिपाठी सर की इस पुस्तक का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा उनकी यात्राओं, विदेश यात्राओं पर है। अभी तो वह उनकी इस पुस्तक का अंग है, पर उसे जरा पृथक से और विस्तार देकर यदि लिखा जाए तो एक अच्छी खासी ट्रेवलाग बुक सामने आ सकती है। सो यह पुस्तक त्रिपाठी जी की जीवन यात्रा की ही नहीं है, उस यात्रा के भीतर की गई बहुत सी यात्राओं की है। आसाम, इंग्लैंड, यूरोप, आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, चीन, रूस, टर्की , ग्रीस , इजिप्ट कहां कहां न गये वे जुनू के आलम में कहीं कहीं तो फरिश्तों ने भी सलाम किया। फरिश्ते क्या? पुलिसिया सलामी आप समझते हो तो वह भी मिली। त्रिपाठी जी दक्षिण अफ्रीका की यात्रा का विवरण देते हुए बताते हैं कि कैसे केप ऑफ गुड होप में उनकी कार के पार्किंग में रुकते ही ओरंग उटान ने गाड़ी पर हमला कर दिया। वे जिस तरह से यात्रियों के हाथों से खाने का सामान छीन लेते त्रिपाठी जी ने बताए हैं, उन्हें पढ़‌कर मुझे भारत के वृंदावन सहित कुछ तीर्थ याद आने लगे। बहरहाल ऐसी यात्राओं का फायदा यह है कि ये आपको नए लैंडस्केप ही नहीं देती, एक नई दृष्टि भी देती हैं।
इस पुस्तक की एक विशेषता सर्विस के दौरान अपने कई सहकर्मियों/ वरिष्ठों को memorialize करना है। त्रिपाठी जी की करियर ट्रेजेक्टरी में ऐसे कई लोग रहे जिनमें से हर्ष मंदर जी, के एस शर्मा जी, विजयसिंह जी हिम्मत कोठारी जी, कैलाश विजयवर्गीय जी के व्यक्ति-चित्र अलग अलग अध्यायों के रूप में इस पुस्तक में हैं। इनमें उन्होंने अपनी सर्विस Colleagues को carefully बाहर ही रखा है। इन पोर्ट्रेयल को पढ़कर ही मुझे समझ आया कि क्यों एडवर्ड कोनलोन ने अपनी आत्मकथा ब्लू ब्लड में यह कहा कि Good cops make their bosses look good.
शब्द कई बार हवा में बीजों की तरह बिखर के रह जाते हैं, पर कभी कभी उन्हें सबसे अप्रत्याशित उद्‌यानों की सबसे उर्वर मिट्टी मिल जाती है। त्रिपाठी जी की यादों  को mediawala ने जिस तरह से प्रकाशित  किया और आज के कार्यक्रमों के host भी वही हैं तो उनका उल्लेख बनता ही बनता है। आज की digital wilderness के युग में जब कंटेंट सुबह की ओस की तरह चमकता और लुप्त होता जाता है, इन संस्मरणों को mediawala ने एक घर दिया, एक अभयारण्य दिया। पुराने ग्रीक anamnesis में भरोसा करते थे। इस विचार में कि learning is remembering. रिमेम्बरिंग त्रिपाठी जी की थी, लेकिन उन Scattered fragments को पाठकों की लर्निंग के लिए उपलब्ध सुरेश तिवारी जी और उनकी टीम ने कराया है। वे बधाई के पात्र हैं।
मैं अन्याय कर रहा हूँ यदि मैं यह न कहूँ कि अपनी वर्दी और बैज के भीतर पुलिसिंग की जो एक human side है, जहां आप पति हो, पिता हो, बेटे हो, मित्र हो- वह अक्सर कम ही देखने को मिलती है। इस आत्मकथा में बार बार बहुत वस्तुनिष्ठ बनने की कोशिश करते हुए भी जिस तरह से त्रिपाठी जी आदरणीया भाभी लक्ष्मी जी का उल्लेख करते हैं, जैसे अपनी अम्मा की याद करते हैं- वह बताता है कि इतने demanding job के बावजूद, इतनी टफ शिफ्टों के बीच में भी रिश्तों की ऊष्मा कैसे बचाई रखी जाती है। शासकीय सेवा stability और security के लिए पसन्द की जाती है, रिटायरमेंट पर पता चलता है कि वह भी नश्वर थी, stable नहीं थी, आनुषंगिक थी; और जिन्हें साथ रह जाना था वे थे ये रिश्ते जो भावनात्मक हैं, सामाजिक हैं, आध्यात्मिक हैं- ये bonds ही बचे रह जाते हैं। अथारिटी चली जाती है, अफेक्शन रह जाता है। वो मनका बनारस, उसका रस लौट आता है, वो बचपन जब नेशनल हेरल्ड में त्रिपाठी जी लेख छपते थे, लौट आता है और अब कभी My Empire in Social Media या यादों का सिलसिला जैसी पुस्तकें तैयार करवा लेता है। पर लौटता है। इस पुस्तक की भूमिका के आरंभ में त्रिपाठी जी एमिली डिकेन्सन को उद्धृत करते हैं कि जीवन कभी लौट कर नहीं आता है और इसीलिए यह इतना मधुर होता है। पर मैं इसी पुस्तक की साक्षी देकर विश्वास से कह सकता हूँ कि उनके भीतर का समंदर भले ही दरिया का भेस धरकर लौटा मगर लौटा तो है। उन्हें उनके अगले लेखकीय वेंचर के लिए समस्त शुभकामनाएँ।
मनोज श्रीवास्तव