रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद युद्ध करने वाले और युद्ध की तैयारी करने वालों का दिल पसीज सके, ऐसे वाकये सामने आ रहे हैं। यूक्रेनी महिला का देश में घुसे हथियारों से सजे रूसी सैनिक के साथ तीखा संवाद दर्द से उपजे आक्रोश को बयां कर रहा है। तो फर्ज निभाने के लिए छह साल की बेटी से विदा लेते पिता की रुलाई सभ्य समाज की बर्बरता से भरी लड़ाई से उपजी वेदना की तस्वीर सामने रख रही है। एक बहुत सुंदर शब्द सामने आया था “वैश्वीकरण” यानि “ग्लोबलाइजेशन”। लग रहा था जैसे यह शब्द ” वसुधैव कुटुंबकम् ” का पर्याय बनकर पूरी दुनिया को इंसानियत की खुशबू से सराबोर कर देगा। लेकिन वैश्वीकरण शब्द तो कोरी व्यावसायिक मानसिकता का प्रतिबिंब साबित हुआ है। जैसे करीब 20 हजार भारतीय छात्र-छात्राएं यूक्रेन में फंसे हैं। तो रूस में भी हजारों की संख्या में भारतीय भविष्य बनाने के लिए रह रहे होंगे। भारत ही नहीं पूरी दुनिया के युवा यूक्रेन-रूस, यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया सहित विश्व में डेरा डाले होंगे। दुःख की बात यह है कि पूरी दुनिया के देशों में अलग-अलग देशों के लोग मौजूद हैं, फिर भी देशों के बीच पारस्परिक प्रेम, भाईचारा और अपनत्व का भाव पैदा नहीं हो पाया। यही 21 वीं सदी की दुनिया है, जो परमाणु हथियारों से सजी है और इनकी विनाशकारी शक्ति की साक्षी बनने का बेसब्री से इंतजार कर रही है। रूस-यूक्रेन के बीच शुरू हुआ युद्ध विनाशलीला के वैश्वीकरण की एक कड़ी बन जाए तो कोई कौतुहल की बात नहीं है।
लग तो ऐसा रहा है जैसे रूस सहित पूरी दुनिया के देश भारत के राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता को चरितार्थ कर रहे हैं। दिनकर ने लिखा था कि “क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो… उसको क्या जो दंतहीन,विषरहित, विनीत, सरल हो।” तो आज देश इस होढ में हैं कि यह बताकर ही चैन लेंगे कि हम दंतहीन, विषरहित, विनीत और सरल नहीं हैं बल्कि वह भुजंग हैं जिसके पास गरल ही गरल भरा पड़ा है। और आजमाने पर उतारू हैं कि चलो देख ही लिया जाए कि किसमें ज्यादा जहर है और कौन ज्यादा विनाशक है। तो शुरुआत रूस ने कर ही दी है, क्योंकि बिना युद्ध के भी अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य यह साबित करने पर आमादा थे कि ज्यादा गरल और विनाश की कूबत उनके पास है। आगे की पंक्तियां “सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।” तो देश बल का दर्प और पीछे की जगमग का भौंडा प्रदर्शन कर रहे हैं ताकि यह साबित हो सके कि वह सहनशील हैं, क्षमा करने और दया करने की क्षमता उनमें निहित है। तो दिनकर ने चेताया भी था कि “समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।” यानि कि तटस्थ रहकर बचा नहीं जा सकता। शांतिकाल में तटस्थता का चौंगा ओढ़कर चुप्पी साधी जा सकती है लेकिन युद्ध के समय तटस्थता के अपराध को समय लिखता जरूर है।
आज बिडंबना यह है कि देशों का यह व्यवहार समाज में भी परिलक्षित है। ज्यादातर लोगों में होड़ इसी बात की है कि यह साबित कर सकें कि किसमें ज्यादा गरल है। और भुजंग बनकर यह बता सकें कि क्षमा करने का अधिकार उन्हें ही है। तो यूक्रेन की उस महिला की बात युद्ध के दौरान देश में घुसे उस अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित योद्धा पर भी लागू होती है, जो कहर बरपाने पर उतारू है और समाज में भुजंग बनकर हैवानियत पर उतारू उन निर्लज्जों पर भी लागू होती है जो बल के पर्याय बनकर निर्बलों को सताकर अट्टहास कर रहे हैं। अच्छा यही है कि सब शांतिकाल में भी अपनी जेबों में फूल रखें ताकि युध्द की नौबत ही न आए और सर्वे भवन्तु सुखिनः और वसुधैव कुटुम्बकम्…वैश्वीकरण का चेहरा बन सकें। दफनाए जाने पर नहीं, बल्कि जिंदा रहते ही यह दुनिया फूलों का आंगन बनी रहे। और किसी पिता को विनाशकारी युद्ध में फर्ज अदा करने के लिए बिलख-बिलखकर अपनी बेटी से विदा न लेनी पड़े।