प्यारेलाल : पद्मभूषण: एक प्यार का नगमा है, मौजों रवानी है जिंदगी और कुछ भी नहीं!  

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प्यारेलाल : पद्मभूषण: एक प्यार का नगमा है, मौजों रवानी है जिंदगी और कुछ भी नहीं!  

जब सिनेमा में प्यारेलाल के योगदान की बात की जाती है तो वह उनके वरिष्ठ साथी लक्ष्मीकांत के बिना पूरी नहीं होती है। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल संगीतकार जोड़ी को हिंदी फिल्मों के सबसे सफल और लोकप्रिय संगीत निर्देशक होने का श्रेय दिया जाता हैं। इस जोडी ने 1963 से 1998 की अवधि के दौरान लगभग 635 फिल्मों के लिए संगीत दिया। इस दौरान उन्होंने फिल्मी दुनिया के दिग्गज सबसे निर्माताओं के साथ काम किया जिनमें ताराचंद बड़जात्या, एलवी प्रसाद, राज खोसला, राज कपूर, मनमोहन देसाई, जे ओमप्रकाश, मोहन कुमार, यश चोपड़ा, बीआर चोपड़ा, मनोज कुमार, शेखर कपूर, सुभाष घई, शक्ति सामंत, फ़िरोज़ खान और देव आनंद शामिल हैं।

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प्यारेलाल प्रसिद्ध ट्रम्पेट पंडित रामप्रसाद शर्मा के बेटे हैं और उनका जन्म 1940 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उनके पिता ने उन्हें संगीत की मूल बातें सिखाई और बाद में उन्होंने गोवा के गोंसाल्वेस से वायलिन बजाना सीखा। प्यारेलाल का बचपन बेहद संघर्ष भरा रहा। उनकी माँ का देहांत छोटी उम्र में ही हो गया था। उनके पिता ’पंडित रामप्रसाद जी’ ट्रंपेट बजाते थे और चाहते थे कि प्यारेलाल वायलिन सीखें। पिता के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे, वे घर घर जाते थे जब भी कहीं उन्हें बजाने का मौक़ा मिलता था और साथ में प्यारे को भी ले जाते। उनका मासूम चेहरा सबको आकर्षित करता था। एक बार पंडित जी उन्हें लता मंगेशकर के घर लेकर गए। लता जी प्यारे के वायलिन वादन से इतनी खुश हुईं कि उन्होंने प्यारे को 500 रुपए इनाम में दिए जो उस ज़माने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी। वो घंटों वायलिन का रियाज़ करते। अपनी मेहनत के दम पर उन्हें मुंबई के ’रंजीत स्टूडियो’ के ऑर्केस्ट्रा में नौकरी मिल गई जहाँ उन्हें 85 रुपए मासिक वेतन मिलता था। अब उनके परिवार का पालन इन्हीं पैसों से होने लगा।

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उन दिनों लक्ष्मीकांत ’पंडित हुस्नलाल भगतराम के साथ काम करते थे, वो प्यारेलाला से 3 साल बड़े थे। धीरे धीरे दोनो एक दूसरे के घर आने जाने लगे। साथ बजाते और कभी कभी क्रिकेट खेलते और संगीत पर लम्बी चर्चाएँ करते। उनके शौक़ और सपने एक जैसे होने के कारण बहुत जल्दी वह अच्छे दोस्त बन गए। उन्हीं दिनों सी. रामचंद्र जी ने एक बार प्यारेलाल को बुला कर कहा कि वे उन्हें एक बड़ा काम देने वाले हूँ। वो लक्ष्मी से पहले ही इस बारे में बात कर चुके थे। साउथ की फिल्म देवता में इस जोड़ी ने पहली बार सी रामचंद्र के सहायक के रूप में काम कर छह हजार रूपए कमाए जो उन दिनों एक बडी रकम मानी जाती थी।

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प्यारेलाल मानते हैं कि फिल्मी दुनिया में उन्हें स्थापित करने में लता मंगेशकर का बड़ा हाथ रहा है। लता जी ने ही नौशाद, सचिन देव बर्मन और सी रामचन्द्र, कल्याणजी आनंदजी जैसे संगीत निर्देशकों को उनके नाम की सिफारिश की। इस जोड़ी ने 1950 के दशक के लगभग सभी प्रतिष्ठित संगीत निर्देशकों के साथ काम किया। 1953 में वे कल्याणजी-आनंदजी के सहायक बन गए और 1963 तक उनके साथ काम किया। उन्होंने सचिन देव बर्मन के साथ जिद्दी मे और राहुल देव बर्मन के साथ छोटे नवाब में बतौर सहायक काम किया। यहीं से आरडी बर्मन से उनकी घनिष्ठता हो गई। यही कारण था कि एलपी की फिल्म दोस्ती के सभी गानों के लिए माउथ ऑर्गन बजाया।

उन्हें संगीत निर्देशक के रूप में पहला अवसर 1963 में बाबूभाई मिस्त्री की पारसमणि में मिला जो सुपर हिट साबित हुई। 1964 में आयी फिल्म दोस्ती का संगीत इतना हिट हुआ कि संगम को मात देते हुए उन्होने पहला फिल्म फेयर पुरस्कार हासिल कर लिया। इस जोडी ने इसके मिलन, जीने की राह , अमर अकबर एंथोनी, सत्यम शिवम सुंदरम , सरगम , और कर्ज़ के लिए कुल मिलाकर सात बार फिल्मफेयर पुरस्कार पाने का कीर्तिमान भी बनाया।

इस जोडी की उल्लेखनीय फिल्मों मे पारसमणि, दोस्ती, सती सावित्री, आए दिन बहार के, फ़र्ज़, मिलन, शागिर्द, मेरे हमदम मेरे दोस्त , राजा और रंक, दो रास्ते, जीने की राह, आन मिलो सजना, हमजोली, खिलौना, मेहबूब की मेहंदी, मेरा गांव मेरा देश , पत्थर के सनम , शोर, दुश्मन, गोरा और काला, दाग, बॉबी, रोटी, रोटी कपड़ा और मकान, अमर अकबर एंथोनी, अनुरोध, प्यासा सावन, चाचा भतीजा, सत्यम शिवम सुंदरम, सरगम, कर्ज़, एक दूजे के लिए, क्रांति, नसीब, प्रेम रोग, हीरो, उत्सव, मिस्टर इंडिया, तेज़ाब, चालबाज़, राम लखन, हम, सौदागर, खुदा गवाह, खलनायक और त्रिमूर्ति शामिल है।

उनके यादगार गानों में हंसता हुआ नूरानी चेहरा, रोशन तुम्ही से दुनिया, चाहूँगा मैं तुझे शाम सवेरे, तेरे प्यार ने मुझे गम दिया, ज्योत से ज्योत जगाते चलो, मेरे मेहबूब कयामत होगी, किसी को पता ना चले बात का, नींद कभी रहती थी आंखों में, खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू, मैं देखूं जिसकी ओर आखिर सखी री, अनीता में कबूतर कबूतर, बड़े मियां दीवाने, हम तुम युग-युग से, मस्त बहारों का मैं आशिक, नज़र ना लग जाए, एक बंजारा गाए, बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी, मार दिया जाए या छोड़ दिवा, झिलमिल सितारों का आंगन होगा, हाथी मेरे साथी में चल चल चल मेरे हाथी, इतना तो याद है मुझे,आज मौसम बड़ा बेईमान है, एक प्यार का शोर में नगमा है, मेरे दिल में आज क्या है दर्द ए-दिल दर्द-ए-जिगर“ “चोली के पीछे क्या है’ शामिल है। . 25 मई 1998 को लक्ष्मीकांत के निधन के बाद से सक्रिय संगीतकार कर्तव्यों से दूर, प्यारेलाल ने छिटपुट रूप से संगीत संयोजन के रूप में काम किया है। 2007 में प्रदर्शित ओम शांति ओम के गीत धूम ताना का संगीत उन्होने ही अरेंज किया था। विशाल-शेखर की धूम ताना ( ओम शांति ओम, 2007) की शानदार आर्केस्ट्रा ध्वनि का श्रेय, जो हिंदी फिल्म संगीत की विकसित होती ध्वनियों और शैलियों को चुनौती देता है।

इलेक्ट्रॉनिक संगीत पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए प्यारेलाल कहते हैं कि मुझे सब कुछ पसंद है। मुझे इस बात पर दुख होता है कि, जबकि एक कीबोर्ड सभी प्रकार के उपकरणों की ध्वनि प्रदान करता है, कई कलाकार इसे सही ढंग से नहीं बजाते हैं। आप तुरही को बांसुरी की तरह नहीं बजा सकते। आप वायलिन को ओबो की तरह नहीं बजा सकते। सही उपकरण के लिए सही तकनीक का उपयोग करें।

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लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें आज के संगीत से परहेज है या वह इसे बुरा मानते है। उनका मानना है कि “संगीत कभी बुरा नहीं होता। अगर आप कहते हैं कि आज का संगीत ख़राब है तो आपकी सोच ग़लत है. हो सकता है कि आपको संगीत की एक निश्चित शैली पसंद न हो। वह ठीक है। लेकिन संगीत खूबसूरत है, हमारे रिश्तों की तरह। कभी-कभी, कुछ दोस्त हमें निराश कर सकते हैं, या आप अपने माता-पिता से खुश नहीं हो सकते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि रिश्ते ही ख़राब हैं।