दस करोड़ का सवाल – अध्यक्ष कैसा हो ?

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देश का नेता कैसा हो – यह नारा पहले राजनीतिक दलों की सभाओं में खूब लगता और सूना जाता था | इस नारे से कोई खुश होता और कोई नाराज | पार्टियों के परस्पर गुट इस मुद्दे पर नेतृत्व को चुनौती मानते थे | अब भी मानते होंगें | तभी तो कांग्रेस या भाजपा या समाजवादी या कम्युनिस्ट पार्टियों में भी पदासीन नेता के समकक्ष कहे – माने जा सकते किसी अन्य नेता के नाम पर ऐसा कोई नारा नहीं  सुनाई देता |  सबसे पुरानी   कांग्रेस पार्टी में हाल के वर्षों में क्या किसी सभा – बैठक में देश का नेता तो क्या पार्टी का अध्यक्ष कैसा हो , ऐसा हो जैसा कोई नया अनुभवी  नाम नहीं सुनाई देता | जिंदाबाद के नारे तो जिला से राष्ट्रीय अध्यक्ष तक के सुने जा सकते हैं | पिछले हफ़्तों में बहुत बयानबाजी चिट्ठी पत्री हुई , जिसमें कांग्रेस का अध्यक्ष कौन है और नए अध्यक्ष – संगठन के चुनाव की बातें की गई | टी वी पर बहुत चिंता या विश्वास की चिकनी चुपड़ी बातें हुई , लेकिन सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के विकल्प के रूप में किसी नेता का नाम नहीं सुनाई दिया | संगठन और सरकारों के लम्बे अनुभव अथवा अच्छी संगठन क्षमता के साथ काम कर सकने वाले – कमल नाथ , अशोक गहलोत , गुलाम नबी आज़ाद , अम्बिका सोनी , सुशील कुमार शिंदे या नए खून की दृष्टि से सचिन पायलट , मनीष तिवारी जैसे किसी नाम को कोई क्यों नहीं उठाता ?

 हर बार दावा किया जाता है कि लोकतान्त्रिक ढंग से संगठन के चुनाव होंगे | चुनाव आयोग के नियम कानून और पार्टी संविधान के अनुसार अनिवार्यता है और औपचारिकता होती है | कारपोरेट कंपनियों की तरह शेयर होल्डर की करतल ध्वनि से अध्यक्ष बन जाते हैं | चीन या रूस जैसे देशों में लोतांत्रिक चुनाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है , लेकिन अमेरिका , ब्रिटेन ,जर्मनी , फ़्रांस जैसे देशों में पार्टी की बैठकों में वैकल्पिक नाम के चुनाव होते रहते हैं | लोकप्रियता निश्चित रूप से आधार हो सकता है , लेकिन उसका भी कोई मानदंड हो सकता है | फिर अवसर मिलने पर ही उसे सिद्ध किया जा सकता है | जवाहरलाल नेहरू , इंदिरा गाँधी , श्यामा प्रसाद मुखर्जी , दीनदयाल उपाध्याय ,   राम मनोहर लोहिया , अटल बिहारी वाजपेयी , हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे संगठनकर्ता और प्रखर वक्ता शयद अब कम हों , लेकिन जगजीवन राम , शंकर दयाल शर्मा , नरसिंह राव , कुशाभाऊ ठाकरे , जार्ज फर्नांडीज जैसे नेताओं को भी कम से कम संगठन के अध्यक्ष के रूप में आगे रखा जाकर सफलता मिल सकती है | नेहरू या इंदिरा गाँधी या अटल बिहारी वाजपेयी या नरेंद्र मोदी किसी अन्य वरिष्ठ नेता के अध्यक्ष रहते प्रधान मंत्री नहीं बन सके ? हाल के वर्षों में कांग्रेस के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी ने संगठन और सरकारों का नेतृत्व अलग अलग नेताओं को सौंपकर यह साबित किया है | लालकृष्ण आडवाणी , राजनाथ सिंह , अमित शाह के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं |

 असल में समस्या अच्छे सफल नेता के आत्म विश्वास क्षमता और उदारता के साथ दूसरी पंक्ति के नेताओं को तैयार करने की इच्छा और वैचारिक प्रतिबद्धताओं की होती है | कांग्रेस और कुछ अन्य दलों के लिए यह गंभीर संकट बन चूका है | ऐसा लगता है कि उन्हें केवल सत्ता में आने के लिए पार्टी की जरुरत है | संगठन की दुहाई दी जाती है , लेकिन केवल पसंदीदा लोगों को तरजीह दी जाती है | असहमतियों को विरोध ही नहीं दुश्मन  समझ लिया जाता है  |राहुल गाँधी तो विचारधारा और गठबंधन के मामले में सदा डांवाडोल रहते हैं | कभी सेक्युलर चादर ओढ़ते हैं , कभी जनेऊ माला लेकर महा हिन्दू पंडित दिखने की कोशिश  करते हैं , कभी लालू , मायावती , अखिलेश , येचुरी के साथी तो कभी घोर विरोधी बन जाते हैं | उन्हें उद्धव ठाकरे का कट्टर हिंदुत्व स्वीकार है , लेकिन शरद पवार या  ममता बनर्जी का नेतृत्व स्वीकारने का राजनैतिक साहस नहीं है | अन्यथा उनकी पार्टियों के संविधान विचार तो लगभग समान हैं | दोनों मूलतः कांग्रेसी ही रहे हैं | आगामी लोकसभा चुनाव के लिए क्या उनमें से किसी को सर्वोच्च नेता कहकर आगे रख सकते हैं या वे दोनों भी राहुल गाँधी को अपने शीर्ष नेता के रूप में स्वीकार सकते हैं | भाजपा के गठबंधन को तैयार क्षेत्रीय दलों के नेता तो उसके विचार और नेतृत्व को मान लेते हैं |

 आजकल गांधीजी की विरासत को लेकर भी विवाद उछलते रहते हैं | इस सन्दर्भ में एक दिलचस्प उद्धरण मुझे पढ़ने को मिला | महत्मा गाँधी ने कहा था ” शिव की तरह समुद्र मंथन के बाद विषपान कर सके , भारतीय राजनीति में कोई तो ऐसा होना चाहिए जो राजनीति का विष पान भी कर सके | ऐसे व्यक्ति तुम ( डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ) हो सकते हो | ” आज़ादी से पहले गाँधी ने डॉक्टर मुखर्जी के लिए यह उम्मीद भरी बात कही थी | जबकि तब भी वह कांग्रेस में नहीं बल्कि हिन्दू महासभा में थे और बाद में संविधान सभा के तथा नेहरू के पहले मंत्रिमण्डल के सदस्य  1950 तक रहे | मतलब राजनीति का लक्ष्य सत्ता नहीं समाज और राष्ट्र  रहा और होना भी चाहिये | पहले लोक सभा चुनाव के बाद 1955 में आवडी अधिवेशन में यू एन ढेबर कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे | उस अधिवेशन में निर्धारित लक्ष्य थे – ” पूर्ण रोजगार का अधिकार , राष्ट्र की आत्म निर्भरता ,  सामाजिक आर्थिक न्याय , सत्ता का अधिकाधिक विकेन्द्रीकरण | ” लेकिन क्या ये लक्ष्य पूरे किये जा सके ? कांग्रेस में सदस्यता के लिए गड़बड़ी का सिलसिला नया नहीं है | कामराज ने इसे मुद्दा बनाया था और सिद्धांतों के आधार पर बोगस वोट बनाने वाले नेताओं , यहाँ तक कि शराब पीने की गंभीर शिकायत पाई जाने पर कई लोगों को कांग्रेस से निकाल दिया था | यह बात 1964 के दौर की है | शुद्धिकरण के साथ क्षेत्रीय नेताओं को भी सत्तर अस्सी के दशक तक महत्व मिला , लेकिन अब केवल सत्ता के समीकरण आवश्यक हो गए | तभी तो अधिकांश राज्यों में कांग्रेस के पास धारदार प्रभावी लोकप्रिय नाम नहीं हैं | जबकि भाजपा और क्षेत्रीय दलों के पास प्रदेशों में भी प्रभावशाली और वोट दिला सकने वाले लोकप्रिय नेता भी हैं | विडम्बना यह है कि कागजी सदस्य संख्या दिखाकर राष्ट्रीय पार्टियां होने का दावा करने वाली पार्टी के उम्मीदवार बड़ी संख्यां में  चुनाव में जमानत तक नहीं बचा पाते हैं | फिर वे यह आवाज कैसे उठाने देंगें कि ” देश का नेता कैसा हो ? “

( लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ – आज समाज दैनिक के सम्पादकीय निदेशक हैं )

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।