राहुल गांधी, कांग्रेस और नया राजनीतिक अश्वशास्त्र !

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राहुल गांधी, कांग्रेस और नया राजनीतिक अश्वशास्त्र !

अजय बोकिल

वरिष्ठ कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को इस
बात का श्रेय यकीनन देना पड़ेगा कि उन्होंने राजनीति के चरागाह में
घोड़े, उनके प्रकार और सियासी ट्रीटमेंट को लेकर दिलचस्प बहस छेड़ दी है।

इससे यह भी प्रतीत होता है कि हाल के वर्षों में उन्होंने अश्वशास्त्र का
बारीकी से अवलोकन किया है। पहले गुजरात और अब मप्र में उन्होंने जिस तरह से कांग्रेस में राजनीतिक घोड़ों की पहचान कर उनके इलाज की संभावनाएं बताई और जगाई हैं, उसे आधुनिक भारत की राजनीतिक ‘शालिहोत्रसंहिता’ कहें तो गलत न होगा।

‘शालिहोत्रसंहिता’ ऋषि शालिहोत्र द्वारा रचित अश्वविज्ञान का प्राचीनतम ग्रंथ है। फर्क इतना है कि उन्होंने केवल प्राकृतिक घोड़ों
के बारे में विवेचन किया है, जबकि राहुल गांधी ने 21 वीं सदी की कांग्रेस में छिपे और प्रकट सियासी घोड़ों को आईडेंटीफाई करने और उनके इलाज पर अपना राजनीतिक मंतव्य प्रकट किया है। लेकिन राजनीति सहित हर क्षेत्र में घोड़ों से ज्यादा अहमियत उस पर सवार की होती है। सवार अगर मजबूत, सुलझा हुआ और साहसी हो तो घोड़ा भी रिस्क लेने में पीछे नहीं हटता।

बेशक, राहुल ने घोड़ों की पहचान शुरू कर दी है, लेकिन क्या उनमें इतनी हिम्मत और प्रतिबद्धता है कि वो बेकाम और लंगड़े घोड़़ों पर निर्ममता से चाबुक चला पाएंगे या फिर यह घोड़ेबाजी केवल बयानबाजी और चेतावनी तक ही सीमित है?

क्या लंगड़े घोड़ों को बरतरफ करने से कांग्रेस का ‘हाॅर्सपावर’ बढ़ेगा?

गौरतलब है कि घोड़े करीब 3 हजार से भी अधिक सालों से मनुष्य के न सिर्फ दोस्त रहे हैं, बल्कि मानव सभ्यता के हमसफर भी रहे हैं। युद्ध, परिवहन और रूआब में उनकी अहम भूमिका रही है। घोड़ा एक चतुर, समझदार, मेहनती और
धैर्यवान प्राणी है। इनसे दो गुण कम गधे भी कम मेहनती नहीं होते, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से ‘हानिकारक’ नहीं माने जाते। या यूं कहे कि यदि किसी दल में घोड़ों की बहुसंख्या अगर उसे सत्ता के द्वार तक ले जाती है तो इसके विपरीत गधों की बहुसंख्या पार्टी को सदा संघर्ष के मोड में ही फंसाए रखती है।

वैसे अश्वशास्त्र के अनुसार मोटे तौर पर घोड़ों के तीन प्रकार होते हैं
टट्टू, हल्के घोड़े और भारी घोड़े। जहां तक टट्टुअों की बात है तो हर
सियासी पार्टी में इनकी बहुतायत होती है और जो पार्टी की महत्वाकांक्षा और हम्माली का बोझा ढोने और बदले में मामूली खुरचन पाकर भी संतुष्ट रहते हैं। नेताअों के जयघोष और उनके स्वागत में भीड़ जुटाना और छोटे मोटे ठेके, कमीशन आदि इनका मुख्य पेशा होता है। विचारधारा इनके लिए बूढ़ी माई की मानिंद होती है, जिसका अर्थ ठीक से समझे बगैर ये ताजिंदगी उसकी सेवा करते रहते हैं। इनकी तुलना तांगे के घोड़ों से की जा सकती है। दूसरी केटेगरी में हल्के लेकिन चपल घोड़ों होते हैं, ये ज्यादा जुगाडू और अवसरवादी होते हैं। समय की चाल को वक्त रहते भांप लेना, इन की खूबी है।

ये रेस में दौड़ते हुए भी लेन बदल सकते हैं और मौका पड़े तो सत्ता की
ट्राॅफी भी हथिया सकते हैं।

तीसरी श्रेणी उन भारी लेकिन दमदार घोड़ों की है, जो आम तौर पर सत्ता और संगठन के शीर्ष पर रहने के आदी होते हैं और वही जमे रहने की हिकमत जानते हैं। ये पीछे मुड़कर भी कम ही देखते हैं। खुद दौड़ने के साथ-साथ उपदेशों का चारा भी दूसरे घोड़ों को बांटते रहते हैं। बाकी घोड़े सर्वदा इनके कृपाकांक्षी रहते हैं। युद्ध में ऐसे राजसी मिजाज वाले घोड़े ही नेतृत्व करते हैं, भले ही उनका आम लोगों से राब्ता कम हो।

लेकिन अब राहुल गांधी ने राजनीतिक घोड़ाशास्त्र की नई परिभाषा पेश की है।

उनके मुताबिक भी कांग्रेस में तीन तरह के घोड़े पाए जाते हैं। ‘रिसर्च
पाइंट आॅफ व्यू’ से यहां एक फर्क है। गुजरात दौरे तक राहुल गांधी ने
कांग्रेसी घोड़ों की दो श्रेणियां नोट की थीं। लेकिन मप्र में ‘संगठन
सृजन अभियान’ का शुभारंभ करते समय उन्होंने अनुभवजन्य एक श्रेणी और जोड़ी। यानी पहले कांग्रेस में रेस के और बाराती घोड़े ही थे। अब इनमें ‘लंगड़े घोड़े’ भी शुमार हो गए हैं। ऐसे घोड़े जो बरसों से कांग्रेस के रेस के घोड़े समझे जाते रहे, लेकिन अब उनकी तासीर फुंके हुए कारतूस सी है। जबकि बाराती घोड़े वो हैं, जो कांग्रेस के अच्छे ‍दिनो में नाच कर गर्दिश के वक्त हरे-भरे चारागाहों में चले गए।

इन्हें मौसमी घोड़े भी कहा जा सकता है। राहुल की इस थ्योरी के प्रेक्टिकल के तहत प्रदेश कांग्रेस जीतू पटवारी ने केन्द्रीय मंत्री व पूर्व कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को बाराती घोड़ा कह डाला तो उधर सिंधिया ने राहुल के ‘लंगड़े घोड़े’ को दिव्यांगों का अपमान बताया। इस बीच कांग्रेस में लंगड़े घोड़ों की मूर्तिमंत पहचान और उन्हें पार्टी से चलता करने की योजना पर मंथन चल रहा है। राहुल गांधी मानते हैं कि जब तक कांग्रेस के इन घोड़ों को ठीक नहीं किया जाएगा, उनका चंदी चारा दुरूस्त नहीं होगा, राजनीति की रेस में ट्राॅफी जीतने की जिद नहीं जागेगी, तांगे का घोड़ा बने रहने की मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक कांग्रेस का लवाजमा सत्ता के शाही जुलूस में तब्दील नहीं हो सकता। जब राहुल यह कहते हैं कि कांग्रेस बारात के घोड़ों को रेस में और रेस के घोड़ों को बारात में भेज देती है, तब यह सवाल पैदा होता है कि ‘कांग्रेस’ और इस अदूदरर्शी ‘अदलाबदली’ से उनका ठीक- ठीक आशय
क्या है और क्या यह संज्ञा गांधी परिवार से अलग कोई चीज है? अगर दोनो तन-मन से एक ही हैं तो फिर सही घोड़ों की गलत तैनाती, काबिल घोड़ों के पार्टी से बहिगर्मन और लंगड़े घोड़ों के बेलगाम दौड़ते रहने के लिए जिम्मेदार कौन है? बेशक राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और उसकी मातृसंस्था आरएसएस पर बेखौफ हमले कर रहे हैं। वो उससंस्था को भी लपेट से नहीं चूक रहे हैं, जिसको वो संवैधानिक संस्था मानते हैं। इससे यह संदेश तो जा रहा है कि वो एक निर्भीक राजनेता हैं, लेकिन वो अपनी ही पार्टी रूपी अश्वदल के सक्षम अधिपति भी हैं, यह अभी सिद्ध होना है।

दूसरे, कांग्रेस की मूल समस्या केवल घोड़े और उनकी काबिलियत ही नहीं है बल्कि पार्टी का एक अराजक अस्तबल में तब्दील होना भी है। कांग्रेस में अभी भी कई योग्य घोड़े हैं, जिन्हें सही दिशा, समर्थन और ऊर्जा की जरूरत है। वैसे भी हर घोड़ा सवार के इशारों पर दौड़ता है। शायद ही कोई घोड़ा अपने मन से रेस जीतने के इरादे से या फिर बारात में नाचने के लिए निकलता हो। कांग्रेस में घोड़ों की कितनी प्रजातियां हैं, इससे भी अहम बात यह है कि इन घोड़ों को अनुशासित और प्रतिबद्ध फौज में कौन और कैसे।बदले? पूर्व में कांग्रेस में गुजरात में भी स्लीपर सेल की बात हुई।

लेकिन उन पर कार्रवाई के लिए पार्टी को नींद से कौन जगाएगा, यह बड़ा सवाल है। भाजपा सत्ता के लिए हर संभव हथकंडे अपनाती हो, लेकिन वह स्पष्ट लक्ष्य के साथ काम करती है। राजनीतिक टट्टू वहां भी हैं, लेकिन घुडसवार अधिपति हर वक्त चौकन्ने रहते हैं। यह सियासी चौकन्नापन कांग्रेस के अस्तबल में या तो नदारद है या बेहद कमजोर दिखता है। नेता की कमान में ताकत और जिगरा हो तो मरियल घोड़ों और टट्टुअोंकी फौज से भी सियासी किले जीते जा सकते हैं। कांग्रेस की असली समस्या अंतर्कलह, भयंकर गुटबाजी(घोड़ों में यह बुराई नहीं होती), अनुशासन की कमी, जीत का हार खुद गले में आ पड़ेगा की मानसिकता, समय पर फैसले न होना, हो भी गए तो उन पर अमल
होते होते मौके का फिसल जाना, उत्सवी मानसिकता से काम करना, चुनाव के समय ही सक्रियता दिखाना आदि है। हालांकि अब इतने झटके खाने के बाद संगठन को कसने की बात हो रही है, तो अच्छा ही है। वास्तव में चुनाव टिकट पाने के लिए कांग्रेस के ये घोड़े जितनी मेहनत करते हैं, उसकी आधी भी गैर चुनावी मौसम में करें तो नया अश्वशास्त्र रचने की नौबत न आए।