Rahul Gandhi & Congress: राहुल के कंधों पर कांग्रेस की बंदूक

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Rahul Gandhi & Congress: राहुल के कंधों पर कांग्रेस की बंदूक

वैसे तो 1997 से कांग्रेस सोनिया गांधी व उनके बच्चों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे और अस्तित्व को बनाये रखने के लिये करती आ रही है, लेकिन अब तो साफ नजर आ रहा है कि बची-खुची कांग्रेस गांधी नाम को पूरी तरह निचोड़कर रख देने के बावजूद अभी-भी बाज नहीं आ रही। वह गांधी परिवार की ओर प्रस्थान करने की तैयारी कर सकें। यह और बात है कि राहुल, प्रियंका,सोनिया गांधी की समझ में इत्ती-सी बात आये न आये, भारत की जनता बखूबी समझ चुकी है। हर चुनाव में आईना दिखाने के बाद भी कांग्रेसी आंखें मींचें अपना अक्स निहार रहे हैं। जाहिर है कि ऐसे में सिवाय अंधेरे के क्या हाथ लगेगा?

यह डेढ़ साल में दूसरी बार है जब राहुल गांधी भारत को बरास्ता सड़क नापने निकले हैं। यह विशुद्ध रूप से जंचाई का काम है कि इस तरह भारत भ्रमण से वे वे लोगों के दिलों में पैठ बना सकते हैं या कांग्रेस को जिंदा रख सकते हैं या लोकसभा चुनाव में बढ़त हासिल कर सकते हैं या प्रधानमंत्री पद का सपना बुन सकते हैं। राहुल मूलत: भोले हैं। उन्हें अभी तक राजनीति का ककहरा याद नहीं हो पाया, क्योंकि वे राजनीति की कक्षा में सबसे पीछे की कतार में बैठे उस विद्यार्थी की तरह हैं, जिसे कोई शिक्षक प्रावीण्यता प्रदान नहीं कर सकता। चूंकि वह प्राकृतिक होती है,इसलिये अभ्यास से उत्तीर्ण तो हो सकते हैं, लेकिन प्रावीण्यता नहीं मिल सकती। बहरहाल।

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मुझे राहुल गांधी से सहानुभूति है। वे अपने को दिया गया गृह कार्य पूरी तन्मयता से करते हैं। वे रट्‌टा लगाते हैं, लेकिन मेधा के अभाव में बार-बार पूरक पर आकर गाड़ी अटक जाती है। ऐसा केवल राहुल गांधी के साथ ही नहीं है। समूचे गांधी परिवार के कंधों का उपयोग कांग्रेस याने तपे-तपाये कांग्रेसी नेता पिछले ढाई दशक से कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि देश की जनता के मन में अब गांधी-नेहरू परिवार के प्रति स्वतंत्रता प्राप्ति के तीन दशक तक रही श्रद्धा और समर्थन अब किंचित भी नहीं बची है, वे उनकी प्रतिष्ठा बार-बार दांव पर लगा देते हैं। यह जानते हुए भी कि किस्मत के मारे जुआरी के पास पत्ते भी कमजोर आते हैं।

राहुल गांधी की वर्तमान भारत न्याय यात्रा भी राजनीतिक कद बढ़ाने का एक और उपक्रम भर है। प्रयास में बुराई नहीं, लेकिन जिस तरह से आसमान की तरफ उछाला गया पत्थर आप पर गिरे ना गिरे, जमीन पर तो आकर गिरेगा ही, वैसे ही गांधी परिवार द्वारा किये जा रहे जतन आसमान की ओर फेंका गया पत्थर ही साबित हो रहा है।आसमान में पत्थर उछालने की बातें बस शायरी में ही अच्छी लगती है,उसकी हकीकत विपरीत है। अब जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और विपक्ष का गठबंधन ध्वस्त होने की ओर अग्रसर है, तब राहुल की यात्रा न तो कोई दिलासा दे पा रही है, न उसका कोई फायदा कांग्रेस को चुनाव में होने जैसा दिखता है।

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बिहार गठबंधन के हाथ से रेत की तरह फिसल गया। बंगाल में ममता दीदी आंखें तरेर ही रही हैं। केजरीवाल अपनी कुर्सी बचाने के फेर में लगे हैं। महाराष्ट्र में शरद पवार का न तो जादू बचा है, न ही उद्धव ठाकरे की कोई साख कायम रह पाई है। जो थोड़ा बहुत दिलासा छत्तीसगढ़,राजस्थान से मिल जाता , वह जाता रहा। मध्यप्रदेश से की जा रही उम्मीदें नेस्तनाबूद हो चुकी हैं। केरल,तमिलनाडु,आंध्र में समझौते का स्वरूप सामने नहीं आया है। अकेले तेलंगाना के भरोसे तो लोकसभा की नैया पार होने से रही। ऐसे में राहुल गांधी या कांग्रेस यह सोचे कि न्याय यात्रा से उसे जनता से न्याय मिल जायेगा तो वे खुशफहमी में हैं।

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दरअसल, राहुल गांधी या गांधी परिवार को अब तक ऐसा कोई सलाहकार मिला ही नहीं, जो उन्हें भले-बुरे से अवगत करा सके। जो भी जुड़ा वाहवाही,चापलूसी में ही लगा रहा। कम अस कम 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद गांधी परिवार ने राजनीति से किनारा कर लेना था, जो उनके और कांग्रेस के हित में ही होता। तब भाजपा का कांग्रेस मुक्त का नारा भी संभवत: कमजोर पड़ जाता। राहुल,प्रियंका,सोनिया गांधी के होने से भाजपा दुगने वेग से परिवारवाद का नारा देकर जनता का समर्थन और विश्वास पाती है। इस एक मुद्दे से उसे वंचित होना प़डता। इसका यह मतलब भी नहीं कि तब कांग्रेस सफल,सक्षम या सरकार बनाने के योग्य हो जाती। इतना जरूर है कि भाजपा के हाथ से एक आसान अस्त्र छूट जाता।

वैसे राजनीतिक प्रेक्षक यह मानते हैं कि कांग्रेस के भीतरखाने में राहुल से ज्यादा प्रियंका हावी है। अनेक मौकों पर भाई-बहन के बीच असहमति पनपती दिखती है। खासकर किसी चुनाव में टिकट वितरण के समय यह साफ परिलक्षित होती है। इसलिये दैंनदिन की राजनीति से बचने के लिये राहुल ने यात्राओं का सिलसिला प्रारंभ किया है, ताकि वे रोजना के पचड़े से बचे रहें और प्रियंका अपने ढंग से कांग्रेस को चलाती रहे। यूं सोनिया गांधी का मन अभी-भी राहुल को राजनीति में स्थापित होते देखने का है, लेकिन हाल-फिलहाल तो मन प्रफुल्लित होता नजर नहीं आता।