Rahul Gandhi :कृपया, राहुल को पप्पू न समझें !

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Rahul Gandhi :कृपया, राहुल को पप्पू न समझें !

जब से भारतीय राजनीति में गांधी पुत्र राहुल का उदय हुआ, तब से ही उन पर कमोबेश पप्पू का ठप्पा चस्पा रहा। समय के साथ यह विशेषण मजबूत भी हुआ और विरोधी खेमे में तो जैसे उसके उपयोग की होड़ लग गई। फिर आये 2024 के लोकसभा चुनाव और इस दौरान के प्रचार अभियान,फिर नतीजे और उसके बाद राहुल गांधी के आत्म विश्वास,बॉडी लैंग्वेज,भाषा-शैली,बयानबाजी ने जैसे उनकी पूर्व छवि को धोकर रख दिया,ठीक वैसे जैसे मात्र एक घंटे की तेज बारिश में सड़क की धूल साफ हो जाती है। अब उन्हें ये ही लोग शातिर,सयाना,मजबूत इरादों वाला राजनेता मानने लगे हैं। हालांकि अभी-भी राहुल के प्रति भाव नकारात्मक ही है और उनके विरोधियों के पास उसके अपने ठोस कारण हैं।

राहुल गांधी को कभी-भी गंभीर राजनेता नहीं माना गया, जिसके लिये वे स्वयं ही जवाबदार रहे। वे बचकाना हरकतें और बयानबाजी करते रहे। कभी ट्रक पर, कभी पंक्चर की दुकान पर,कभी खेत में, कभी नाई की दुकान पर,कभी बहन प्रियंका को मंच पर बांहों में भींचकर चूम लेना तो कभी संसद में साथी को आंख मारना,कभी मोदी के गले लग जाना तो कभी विपक्षी सांसदों को आसंदी के पास आने के लिये उचकाना। इन तमाम क्रियाकलापों से उनके संजीदापन का नहीं , बल्कि बचपने,नादानी और गैर जिम्मेदार होने का संदेश ही गया। वे न कभी इसके खंडन-मंडन में उलझे, न ही अपनी इस तरह की हरकतें बंद की। इस वजह से उन्हें राजनीति के मैदान में किसी स्पर्धा के लायक ही नहीं माना जाने लगा। यहां तक कि उन्हें भाजपा का स्टार प्रचारक तक कहा जाने लगा। याने वे अपने काम व व्यवहार से लोगों में भाजपा के प्रति लगाव बढ़ाने वाले माने गये। कांग्रेस पार्टी में भी दबे स्वरों में उनके आचरण पर चर्चा होने लगी। छिटपुट अवसरों को छोड़ कर कोई कुछ बोल तो इसलिये नहीं पाया कि कांग्रेस पारिवारिक विरासत वाले राजनीतिक दल के तौर पर ही स्थापित है।

भारत की राजधानी दिल्ली से गुजर रही यमुना नदी में लगातार पानी बहता रहा और वह जितनी मटमैली,दूषित हो सकती थी, होती रही। राहुल गांधी की छवि के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होना जारी रहा। इस बीच आये लोकसभा चुनाव और उसमें उनके बयानों के तीर कुछ इस तरह से चले कि वे सत्तारूढ़ दल पर काफी गहरे घाव कर गये। एक तरफ जहां कांग्रेस के सांसदों की संख्या 52 से बढ़कर 99 तक पहुंच गई, वहीं भाजपा 303 से 240 पर आ टिकी। इसके अकेले कारण भले ही राहुल गांधी न हों, लेकिन इस युग में सारा खेल मार्केटिंग का है, जिसमें कोई कसर नहीं छोड़ी गई और राहुल गांधी का बैंक बैलेंस काफी मजबूत हो गया।

राहुल गांधी ने अपने पूरे चुनाव अभियान में बयानों की धुरी संविधान के खात्मे और आरक्षण की समाप्ति के अंदेशे पर रखी और यह जैसे चिड़िया की आंख साबित हुआ। यूं शुरुआती दौर में भाजपा विरोधी करीब 26 राजनीतिक दलों के एक मंच पर आने को लेकर काफी संशय रहा और बेहद खिल्ली भी उड़ाई गई, लेकिन धीमे-धीमे बीरबल की खिचड़ी पकने लगी। अपने तमाम क्षेत्रीय आग्रहों के बावजूद विपक्ष ने कड़ी टक्कर दी और बाजी पलट ही दी थी, यदि तेलुगु देशम(टीडीपी) और जनता दल यूनाइटेड ने मजबूती नहीं दिखाई होती। बावजूद इसके राहुल गांधी विपक्ष के सितारा बनकर उभरे और उनके तीरों को तीक्ष्ण,लक्ष्यभेदी और भरपूर घातक मान लिया गया। कांग्रेस में तो उनकी जय-जयकार होनी ही थी, शेष विपक्ष के बीच भी वे स्वीकार्य हो चले।

अब सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी कभी पप्पू थे भी ? क्या वे अभिनय कर रहे थे या चाहकर भी वे सही मुद्दों को समझ नहीं पा रहे थे? या कांग्रेस में ही कोई उन्हें ठीक से सलाह-मशवरा नहीं दे पा रहा था ? या विपक्ष याने भाजपा का उनके खिलाफ प्रचार अधिक प्रभावी रहा, बनिबस्त उनके पक्ष में अनुकूल प्रचार के ? जो भी रहा हो, राहुल गांधी ने अपनी छवि को उलट कर रख दिया। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उनकी छवि सकारात्मक हो गई या वे राष्ट्र हित के चिंतन में लग गये या उन्होंने जनता की नब्ज पहचान ली या वे शासन-प्रशासन की बारीकियां समझ गये या चुनाव के खेल के पारंगत खिलाड़ी बन गये। यह सब अभी तय होना बाकी है। बस बात इतनी सी भर है कि इस समय उनकी आवाज काफी दूर तक सुनाई दे रही है, लेकिन राजनीति में यह स्थायी भाव नहीं रहता। अभी अनेक परीक्षायें शेष हैं । इसे हम प्राथमिक चरण मानें तो ठीक है।l

यूं आगामी पूरे पांच साल राहुल गांधी के परीक्षा काल के समान ही रहेंगे। खासकर 2027 तक देश में अनेक राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से घूमेंगे और उसमें राहुल की कैसी और कितनी भूमिका रहेगी, यह देखना होगा। उनके संपूर्ण व्यक्तित्व और राजनीतिक भविष्य के बारे में पूरी तरह से सटीक अनुमान तो 2029 के लोकसभा चुनाव में ही लगाया जा सकेगा। अगर कोई या कांग्रेस अथवा राहुल गांधी यह मान लेते हैं कि देश की राजनीति की डोर अब उनके हाथ में ऐसे है, जैसे कठपुतली की होती है तो वैसा भले ना हो, लेकिन ऐसा सोचने का पूरा लोकतांत्रिक अधिकार तो उन्हें है ही।