Rahul v/s Kejariwal: राहुल को केजरीवाल से खतरा!

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Rahul v/s Kejariwal: राहुल को केजरीवाल से खतरा!

दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रत्यक्ष तौर पर तो त्रिपक्षीय मुकाबला है, लेकिन वास्तविक रूप में यह लड़ाई राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के बीच ज्यादा है। ये चुनाव इन दोनों के राजनीतिक भविष्य का निर्धारण भले न करें, आने वाले कल के सामंजस्य, सौजन्य और समीकरणों का बिगाड़ा अवश्य करेंगे। यदि सीधे-सीधे् कह दिया जाये तो यह कि राहुल गांधी एंड कंपनी को लग रहा है कि यदि केजरीवाल का विजय रथ नहीं रोका गया तो केंद्रीय राजनीति में केजरीवाल का दखल कुछ ज्यादा ही हो जायेगा, जो विपक्षी गठबंधन के मुखिया की कुर्सी हथियाने तक जा सकता है। संभवत: इसीलिये राहुल गांधी अब दिल्ली की गटर,गंदगी,सड़कों के मुआयना करते हुए केजरीवाल को कोसने का सिलसिला चलाये हुए हैं।

अब याद कीजिये लोकसभा चुनाव से पहले का दौर। तब भाजपा विरोधी जितने भी प्रमुख राजनीतिक दल थे, वे एक छाते के नीचे आ गये थे। उनका एक ही उद्देश्य था, नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से रोकना। भले ही ऐसा न कर पाये, लेकिन भाजपा को जोर तो करवा ही दिया था। उसके बाद से जनता के बीच यह संदेश भी गया कि यदि विपक्ष की यह एकता बरकरार रही तो लोकतंत्र की मजबूती के साथ ही सरकार पर नकेल भी रहेगी और वह अधिक जनमुखी बनी रहेगी। इसे भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अतीत से लगाकर अभी तक अनेक अवसरों पर विभिन्न विचारधारा के दल एक मंच पर आये, थोड़ी दूर साथ भी चले, लेकिन नेताओं के निजी अहंकार ने उन्हें जल्दी ही छिन्न्-भिन्न भी कर दिया । एक तरह से यह जनता के साथ धोखाधड़ी ही कहलायेगा।

ऐसा ही गठबंधन 1977 में जनता दल के नाम से भी बना था और देश ने देखा कि उस दौर के दिग्गज नेताओं के जमावडे द्वारा इंदिरा गांधी जैसी सशक्त और अत्यधिक लोकप्रिय नेता को भी उखाड़ फेंक दिया गया और स्वतंत्र भारत के इतिहास में गैर कांग्रेसी सरकार पदारूढ़ भी हुई। इसका हश्र भी हमने देखा । फिर, गठबंधन की राजनीति का दौर-सा चल पड़ा और सरकारें बनती-बिगड़ती रहीं। चुनिंदा दल ही इसमें साथ रह पायें, शेष क्षेत्रीयता और स्वार्थ परकता के कारण छिटकते रहे। 2024 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर देश में यह आशा बंधी कि विपक्षी गठबंधन सत्ता में भले न आये, लेकिन वह सक्षम,समर्थ और प्रबल विपक्ष के तौर पर कम से कम अगले पांच साल तक के लिये तो स्थापित रहेगा ही।यह विश्वास एक बार फिर टूट गया।

इस बीच जहां भी राज्यों में चुनाव हुए, वहां वही विपक्ष परस्पर विरोधी होता गया। इसका ताजा उदाहरण दिल्ली विधानसभा के चुनाव हैं। यह दरअसल अहंकार और अस्तित्व की लड़ाई है, बजाय किसी सिद्धांत और नीति,नियत के। संसद के पिछले सत्र में ही विपक्ष की फूट खुलकर सामने आ गई, जब अनेक मुद्दों पर कांग्रेस एक तरफ और उसके अन्य सहयोगी दल एक तरफ रहे।विशेष तौर से उद्योगपति गौतम अडानी व मुकेश अंबानी के मसले पर । कांग्रेस एकतरफा तौर से इन पर हमले कर सदन से बार-बार बर्हिगमन पर अड़ी रही तो दूसरे दलों को यह रवैया नापसंद रहा। आखिरकार इन उद्योगपतियो्ं की अनेक परियोजनायें कांग्रेस शासित प्रदेशों के अलावा अन्य विपक्षी शासित राज्यों में भी हैं ही।

इसी बीच विपक्षी गठबंधन के नेता के लिये भी कभी दबे-छुपे तो कभी खुले तौर पर किसी अन्य दल के नेता का नाम उछलने लगा। याने वहां भी कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती दी जाने लगी। कांग्रेस के मालिकों को यह कैसे पसंद आता कि सात दशक से जिस परिवार ने जागीर की तरह देश व दल को चलाया,उसे कोई कल का छोरा आंख दिखाये? यहीं से तकरार की नींव डली और कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी ने मैदान पकड़ लिया।

दिल्ली की सड़कों पर राहुल बनाम अरविंद केजरीवाल का यह द्वंद्व विधानसभा चुनाव तक सीमित नहीं रहने वाला। देश की राजनीति में केजरीवाल की महत्वाकांक्षी फितरत,भोलेपन के अभिनय के पीछे शातिरपन की पराकाष्ठा,वादे-भुलावों की अनंत श्रृंखला,सफेद झूठ को शर्मिंदा करने वाले बयान, भ्रष्टाचार के निरंतर उजागर होते प्रकरण और इन सबसे ऊपर कांग्रेस और गांधी घराने पर प्रत्यक्ष और सीधे आरोप व अर्नगल बयानों ने आग में पेट्रोल का काम कर दिया। नतीजा सामने है कि जिस गंदी,मैली-कुचली ,शराबखोरी समेत अनेक अराजक बद इंतजामी में डूबी देश की राजधानी दिल्ली की दस साल से अनदेखी कर रहे राहुल गांधी की आंख में यकायक चुभने लगी और उनका हृदय परिवर्तन हो गया। वे भाजपा को कम और केजरीवाल को भरपूर कोसने में लग गये। वैसे भी राहुल को केजरीवाल से 12 वर्ष पुराना हिसाब चुकता करना है, जब वे अण्णा हजारे के साथ आंदोलनरत रहकर गांधी परिवार पर बेतहाशा आरोप मढ़ रहे थे। उन्हें उपवास कर कोस रहे थे। आधी बांह की ढीली शर्ट व घिसी हुई नीली बद्दी की चप्पल पहनकर जनता की सहानुभूति लूट रहे थे, जिसकी परिणिति शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सल्तनत का खात्मा कर खुद की ताजपोशी में हुई थी।

वो जख्म अब हरे नहीं हुए, बल्कि भरे ही नहीं होंगे। राहुल गांधी, गांधी परिवार व कांग्रेस को प्रतीक्षा रही होगी, सही समय की, जो आ चुका है। इस चुनाव में यदि केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बन जाये तो केजरीवाल भले तत्काल मुख्यमंत्री न बन पायें, लेकिन उनका अ्गला लक्ष्य स्वयं को राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित करना ही रहेगा। याने विपक्षी गठबंधन का मुखिया बनना, देश के दूसरे राज्यों में अपना जाल फैलाना और प्रकारांतर से कांग्रेस को हाशिये पर धकेलना । यह तो कांग्रेस की राजनीति में और गांधी परिवार की नीति में बरदाश्त के बाहर की बात है। इसलिये दिल्ली की जंग कोई आम जंग नहीं है। कांग्रेस व केजरीवाल एक-दूसरे को रोककर सबक सिखाना चाहते हैं और इस निजी स्वार्थ में भूल रहे हैं कि दिल्ली की जनता दोनों को सबक सिखाने को बेताब नजर आ रही है। इस चुनाव के परिणाम दिलचस्प ही नहीं, नई राजनीतिक परिभाषा लिखनेवाले भी रहेंगे।