Rajgarh Loksabha Constituency: दिग्विजय ने पूरी की 7 विधानसभा क्षेत्रों में पदयात्रा, BJP प्रत्याशी से नाराजगी, पर भाजपा-संघ एकजुट!
33 साल बाद फिर लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं दिग्विजय सिंह
दिनेश निगम ‘त्यागी’ की ग्राउंड रिपोर्ट
प्रदेश की राजगढ़ लोकसभा सीट का चुनाव इस बार देखने लायक है। यहां कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्वजय सिंह और भाजपा सांसद रोडमल नागर के बीच कड़ा मुकाबला देखने को मिल रह है। राजगढ़ दिग्वजय का गृह क्षेत्र है। पूरे 33 साल बाद वे फिर लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। इसीलिए पुराने संबंधों को ताजा करने के लिए उन्होंने क्षेत्र की 8 में से 7 विधानसभा क्षेत्रों की पदयात्रा पूरी कर ली है। वे हर रोज 20 किमी पैदल चले हैं। उनका अपना गृह विधानसभा क्षेत्र राघौगढ़ ही शेष रह गया है। दूसरी तरफ भाजपा के रोडमल नागर के खिलाफ पार्टी के अंदर और बाहर असंतोष है, लेकिन चूंकि दिग्विजय सामने हैं इसलिए समूची भाजपा और संघ से जुड़े संगठन उनके खिलाफ एकजुट हाेकर मैदान में हैं। यही स्थिति कांग्रेस में भी है। दिग्विजय के चुनाव लड़ने के कारण पूरी कांग्रेस एकजुट होकर प्रचार अभियान में जुट गई है।
रोडमल पिछली जैसी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं
भाजपा के रोडमल नागर ने 2019 के लोकसभा चुनाव में उस स्थिति में सवा 4 लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से जीत दर्ज की थी, जब 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ 2 विधानसभा सीटें मिली थी। चार माह पहले 2023 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 8 में से 6 विधानसभा सीटें जीती हैं फिर भी रोडमल पिछली जैसी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं है। जबकि पिछली बार की तुलना में भाजपा के पक्ष में ज्यादा माहौल है। वजह कांग्रेस की ओर से दिग्विजय सिंह का मैदान में होना है। राजगढ़ दिग्विजय का गृह क्षेत्र है। वे यहां से 1991 में भाजपा के स्व प्यारेलाल खंडेलवाल को हराकर सांसद बने थे। इसके बाद लगातार 10 साल तक वे प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। दिग्विजय को अच्छा राजनीतिक प्रबंधक माना जाता है। पुराने संबंधों को ताजा करने के लिए उन्होंने हर विधानसभा क्षेत्र में पदयात्रा की। इस दौरान वे हर दिन 20 किमी चले और जिस गांव में रात हो गई, वहीं डेरा डाल दिया। अपने पुराने मित्रों, परिचितों के परिजनों से संबंध ताजा किए। गांव के लोगों ने सामूहिक कलेक्शन कर भोजन की व्यवस्था की। दिग्विजय और उनकी पत्नी अमृता राय ने आईटी सेल को एक्टिव कर दिया है।
दिग्विजय के कारण कांग्रेस-भाजपा एकजुट
एक अभियान ज्यादा नामांकन भराने का भी चल रहा है ताकि ईवीएम की बजाय मत पत्रों के जरिए मतदान हो। विधायक बेटे जयवर्धन सिंह ने राघौगढ़ और चाचौड़ा में डेरा डाल रखा है। दिग्विजय के समर्थन में समूची कांग्रेस एकजुट है, बस उनके अनुज लक्ष्मण सिंह प्रचार अभियान से दूरी बनाए दिख रहे हैं। दूसरी तरफ भाजपा भी शांत नहीं है। उसका फोकस विधानसभा सम्मेलनों और बूथ मैनेजमेंट मेें ज्यादा है। मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव सहित कई नेता इनमें हिस्सा ले चुके हैं। भाजपा की ओर से तीसरी बार चुनाव लड़ रहे रोडमल के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी देखने को मिल रही है। पार्टी के अंदर और बाहर उनसे नाराजगी भी है। इसके लिए वे कई बार माफी मांग चुके हैं। चूंकि दिग्विजय सिंह चुनाव लड़ रहे हैं, इसलिए भाजपा के साथ संघ, बजरंग दल और विहिप सहित सभी संगठन उनके खिलाफ एकजुट हैं।
राजगढ़ में दिग्विजय का चुनाव लड़ना ही मुद्दा
राजगढ़ लोकसभा सीट में दिग्विजय सिंह चुनाव लड़ रहे हैं, इसलिए भाजपा और कांग्रेस के लिए वे खुद मुद्दा हैं। उनकी वजह से ही कांग्रेस एकजुट है। दूसरी तरफ समूचा संघ अपने अनुषांगिक संगठनों के साथ मैदान में उतर गया है। दिग्विजय के कारण राजगढ़ में राम मंदिर, हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद के मुद्दे को सबसे ज्यादा हवा दी जा रही है। आखिर, दिग्वजय को कहना पड़ा कि राम मंदिर के लिए उन्होंने शिवराज सिंह चौहान से भी ज्यादा चंदा दिया है। मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव की प्रतिक्रिया थी कि वे अपना चंदा वापस ले लें। इसके अलावा भाजपा केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा कराए गए काम गिना रही है तो दिग्विजय अपने कार्यकाल में कराए काम बता रहे हैं। भाजपा सरकार की गलत नीतियों के कारण बढ़ी महंगाई और बेरोजगारी को मुद्दा बना रहे हैं। यह भी बता रहे हैं कि देश में तानाशाही है और जांच एजेंसिया भाजपा का एजेंट बनकर काम कर रही हैं।
विधानसभा में भाजपा की ताकत ज्यादा
विधानसभा में ताकत के लिहाज से भाजपा को अच्छी बढ़त है। पार्टी का क्षेत्र की 8 विधानसभा सीटों में से 6 पर कब्जा है। ये विधानसभा सीटें चाचौड़ा, नरसिंहगढ़, ब्यावरा, राजगढ़, खिलचीपुर और सारंगपुर हैं। कांग्रेस सिर्फ दो विधानसभा सीटों राघौगढ़ और सुसनेर में ही जीत दर्ज कर सकी थी। 2018 के विधानसभा चुनाव में स्थिति इसके उलट थी। तब कांग्रेस ने 5 और भाजपा ने 2 सीटें जीती थीं। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी। इसके बाद हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 4 लाख 31 हजार से ज्यादा वोटों से चुनाव जीता था। इस बार विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 6 सीटें 1 लाख 78 हजार 967 वोटों के अंतर से जीती हैं जबकि कांग्रेेस का दो सीटों में जीत का अंतर महज 17 हजार 150 है। इस लिहाज से इस बार भी भाजपा की जीत बड़ी होना चाहिए लेकिन मुकाबला देखकर ऐसा लगता नहीं है। दिग्विजय द्वारा भाजपा को कड़ी टक्कर मिल रही है।
कभी कांग्रेस, कभी जीतती रही भाजपा
प्रदेश की राजगढ़ लोकसभा सीट का भौगोलिक एरिया तीन जिलों तक फैला है। इसके तहत तीन अंचल भी आ आते हैं। इसमें गुना जिले की दो विधानसभा सीटें चाचौड़ा और राघौगढ़ हैं। गुना को ग्वालियर अंचल का हिस्सा माना जाता है। राजगढ़ जिले की 5 विधानसभा सीटें नरसिंहगढ़, ब्यावरा, राजगढ़, खिलचीपुर और सारंगपुर हैं। यह मध्य भारत अंचल का हिस्सा है। सातवीं विधानसभा सीट सुसनेर आगर मालवा जिले की है जो मालवा अंचल के तहत आती है। राजगढ़ में विधानसभा में ताकत के लिहाज से भले भाजपा बढ़त में है। पिछले दो लोकसभा चुनाव भाजपा के रोडमल नागर ने जीते भी हैं, लेकिन इस सीट का मिजाज भाजपाई नहीं है। 1991 में यहां कांग्रेस के दिग्विजय सिंह जीते तो 1996, 1998 और 1999 में लगातार दिग्विजय के अनुज लक्ष्मण सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर जीत दर्ज की। इसके बाद लक्ष्मण भाजपा में शामिल हो गए और 2004 का लोकसभा चुनाव भाजपा के टिकट पर जीते। लेकिन 2009 में कांग्रेस के नारायण सिंह अमलावे ने उन्हें हरा दिया। इसके बाद भाजपा ने लक्ष्मण सिंह का टिकट काट दिया तो वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गए।
समाजों को देखकर तैनात किए जा रहे नेता
लोकसभा चुनाव में आमतौर पर राजगढ़ क्षेत्र में जातिगत आधार पर मतदान नहीं होता। बावजूद इसके भाजपा और कांग्रेस द्वारा समाजों की बहुलता को देखकर नेताओं को प्रचार के लिए तैनात किया जा रहा है। क्षेत्र में सबसे ज्यादा मतदाता सोंधिया, दांगी और गुर्जर समाज के हैं। इसके बाद ब्राह्मण, यादव और मीना समाज आते हैं। अनुसूचित जाति-जनजाति के मतदाताओं की तादाद भी कम नहीं है। भाजपा के पास हर प्रमुख जाति के विधायक जीत कर आए हैं। उन्होंने मोर्चा संभाल रखा है। कांग्रेस के नेता भले विधायक नहीं हैं लेकिन जातिगत आधार पर उन्हें भी मैदान में उतार रखा गया है। ब्राह्मण मतदाताओं का रुझान भाजपा की ओर है और अजा-जजा वर्ग का कांग्रेस की ओर। शेष सभी जातियां भाजपा- कांग्रेस के बीच बंटी दिखाई पड़ रही हैं। ऐसे में यह आकलन कर पाना कठिन है कि आखिर जीत का ऊंट किस करवट बैठेगा।