पड़ौस में अचेत सरकार के बाद (Government in The Neighborhood)

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पड़ौस में अचेत सरकार के बाद (Government in The Neighborhood);

हमसे एक दिन पहले आजाद हुए पाकिस्तान में इमरान खान की सरकार आखिर गिर गयी .सरकार को गिरना ही था क्योंकि इमरान खान मंजे हुए क्रिकेटर तो थे लेकिन मंजे हुए राजनेता नहीं थे .खान ने संसद में विश्वास खो दिया ,इसलिए उन्हें जाना ही पड़ा .पड़ौसी के नाते हमारी खान साहब से सहानुभूति है लेकिन उनका जाना भारत के लिए कोई सुखद घटना नहीं है.

पाकिस्तान में लोकतंत्र भारत की तरह सेना की इनायत पर जीवित नहीं है .हमारे यहां सेना अभी भी सरकार के नियंत्रण में हैं और सौभाग्य से हमारी सेना के मन में कभी भी निर्वाचित सरकारों के साथ खेल खेलने का इरादा नहीं पनपा,क्योंकि हमने अपने यहां खुद ही ऐसे रास्ते बना रखे हैं जहां सेवा निवृत्ति के बाद सेना के शीर्ष अधिकारी राजनीति का मजा ले सकते हैं .

बहरहाल बात इमरान खान की.उन्हें साहब कहने में कोई खतरा नहीं है क्योंकि वे हाफिज सईद की तरह आतंकवादी नहीं हैं .उन्होंने अपने कार्यकाल में अपने पूर्ववर्तियों की तरह भारत से कभी दो-दो हाथ करने का दुस्साहस नहीं किया और जाते-जाते भी भारत की खुले दिल से तारीफ़ की .भारत को एक खुद्दार मुल्क बताया .हम खान साहब का इसके लिए शुक्रिया अदा करते हैं लेकिन अफ़सोस है कि वे अपने मुल्क में जनता की सेवा उस तरीके से नहीं कर सके जैसे कि अपेक्षा की गयी थी .

पाकिस्तान में सरकार क्यों गिरी किसने गिरायी ये सब विवेचना करने का कोई मतलब नहीं है,क्योंकि दुनिया जानती है कि ये सब क्यों हुआ और कौन इसके पीछे था ?दुर्भाग्य से पाकिस्तान 75 साल बाद भी सेना की गिरफ्त से बाहर नहीं आ पाया है .वहां लोकतंत्र सेना की कठपुतली ही है.जिस दिन कठपुतली सेना के निर्देशों पर नहीं नाचती उसके तार काट दिए जाते हैं और कठपुतली औंधे मुंह रंगमंच पर गिर पड़ती है.खमियाजा भुगतना पड़ता है जनता को .

भारत में 75 साल की आजादी में कुल 14 प्रधानमंत्री चुने पड़े जबकि पाकिस्तान ने इसी अवधि में 29 प्रधानमंत्री देख लिए .पाकिस्तान में भारत की तरह न कोई पंडित जवाहर लाल नेहरू हुआ और न कोई नरेंद्र मोदी .पचहत्तर साल में पाकिस्तान में सेना ने कम से कम चार मर्तबा निर्वाचित सरकारों को बेदखल कर दिया और जब भी कोई लोकप्रिय सरकार बनाने कि कोशिश की उसे लोकप्रिय नहीं होने दिया .भारत में जहाँ पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 16 साल 286 दिन सरलर चलने का कीर्तिमान बनाया वहीं सबसे कम 170 दिन चौधरी चरण सिंह सत्ता में रहे,लेकिन हमारे यहां एक बार भी जनादेश से बनी सरकार को सेना की वजह से सत्ता से नहीं हटना पड़ा .

पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें गहरी क्यों नहीं हो पायीं इसकी विवेचना अलग से की जा सकती है ,लेकिन दुनिया में पिछले ७५ साल में जहाँ नहीं लोकतंत्र की स्थापना हुई वहां उसे अस्थिर करने की कोशिशें की गयीं .जहां लोकतंत्र के बिरवे को सही खाद-पानी नहीं मिला वहां उसे समूल उखाड़ फेंका गया .दुनिया में 1950 से 1989 तक कोई 350 तख्ता पलट देखे ,जिनमने पाकिस्तान के हिस्से में ऐसे चार मौके आये .अफ़्रीकी और एशियाई देशों में ही सबसे ज्यादा तख्तापलट हुए हैं

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान खुशनसीब हैं कि उन्हें कम से कम ३ साल से ज्यादा काम करने का मौक़ा मिला लेकिन बदनसीब भी हैं कि वे अपने कार्यकाल में न देश की दशा सुधार पाए और न देश को नयी दिशा दे पाए .वे भी दूसरे प्रधानमंत्रियों की तरह भारत का विरोध करते हुए ही काम चला सके .पाकिस्तान में सरकार में बने रहने के लिए भारत का विरोध एक अनिवार्य शर्त बन गयी है ,हालाँकि कुछ प्रधानमंत्रियों ने शराफत से इस धारणा को बदलने की कोशिश की लेकिन उन्हें ही बदल दिया गया .

पकिस्तान में इमरान खान को देश की शीर्ष अदालत के निर्देश पर शक्ति परीक्षण का सामना करना पड़ा .पकिस्तान की न्याय व्यवस्था भी बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है लेकिन अभी भी उसका वजूद है भले ही उसे सेना के ही परोक्ष दबाब में काम करना पड़ता हो ,लेकिन अच्छी बात ये है कि वहां अभी शीर्ष अदालत की बात मानी जाती है .बात हमारे यहां भी मानी जाती है लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां अब इस भरोसेमंद प्रणाली में भी भक्तिभाव की झलक दिखाई देने लगी है. हम भी अपने यहां सेवानिवृत होने वाले शीर्ष न्यायाधीशों को सत्ता के हाथों उपकृत होता देख रहे हैं ,लेकिन आज का मुद्दा ये नहीं पाकिस्तान है .

क्रिकेट की भाषा में कहने तो इमरान खान साहब क्लीन बोल्ड हो चुके हैं लेकिन वे हार मानने को राजी नहीं है .उन्होंने प्रधानमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को खारिज करने के निर्णय को असंवैधानिक घोषित करने के उच्चतम न्यायालय के फैसले को शनिवार को पुनर्विचार याचिका दायर कर चुनौती दी.परिणाम क्या आएगा ये सब जानते हैं ,इसलिए अब मान लीजिये कि इमरान खान का युग समाप्त हो चुका है .आने वाले दिनों में पाकिस्तान को और ज्यादा दुर्दिनों का सामना करना पडेगा .पाकिस्तान की जनता भी भारत की जनता की तरह लम्बे आरसे से अच्छे दिनों की वापसी का इन्तजार कर रही है ,लेकिन वे आ नहीं आ रहे .

भारत की तरह पाकिस्तान में सच कहने पर वही जुमला इस्तेमाल किया जाता है जो हमारे यहां किया जाता है .भारत में सच बोलने पर बोलने वाले को पाकिस्तान भेजने की सलाह दी जाती है,पाकिस्तान में भी विपक्षी दल की नेता मरियम नवाज ने भारत की तारीफ करने के लिए प्रधानमंत्री इमरान खान पर निशाना साधते हुए कहा कि अगर वह पड़ोसी देश को इतना ज्यादा पसंद करते हैं तो उन्हें वहीं चले जाना चाहिए. पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) की उपाध्यक्ष मरियम की यह टिप्पणी खान द्वारा भारत को ‘‘सम्मान की महान भावना वाला देश” बताने के बाद आयी है.

बहरहाल न इमरान खान भारत आएंगे और न मरियम का सपना पूरा होगा .पकिस्तान में जल्द नए चुनाव हों और जल्द जनादेश की सरकार बने यही पाकिस्तान के हित में है और एक पड़ौसी के नाते भारत भी चाहेगा कि पाकिस्तान में निर्वाचित सरकार हो .निर्वाचित सरकारें सैन्य सरकारों से ज्यादा बेहतर होती हैं .संक्रमण के इस दौर में भारत को सतर्क रहने की जरूरत है .भारत सतर्क होगा भी ,क्योंकि भारत के पास कम से कम पाकिस्तान को लेकर अनुभवों की कोई कमी नहीं है .भारत में नेहरू से नरेंद्र तक सबने अपने-आपने तरिके से पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधरने की कोशिश की है ,आलोचनाएं भी सहीं हैं लेकिन हार नहीं मानी है,रार नहीं ठानी है .काल के कपाल पर लिखने और मिटने का सिलसिला यहां भी जारी है और वहां भी .हमारे ग्वालियर के निदा फाजली कहते थे –
इंसान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी
अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी
*
ख़ूँ-ख़्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं
हर शहर बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी
*
हिन्दू भी सुकूँ से है मुसलमाँ भी सुकूँ से
इंसान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी
*
रहमान की रहमत हो कि भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी
*
उठता है दिल-ओ-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही
ये ‘मीर’ का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी