विनोद दुआ के लिए ख़ारिज हुई दुआओं के बाद
वरिष्ठ साथी विनोद दुआ नहीं रहे ,उन्होंने जाने का निश्चय कर लिया था। वे सचमुच आज के माहौल से ऊब गए होंगे। उनके साथ उनकी बेटी और मित्रों की एक बड़ी मंडली थी किन्तु वे अकेले थे,नितांत अकेले।
उन्हें ये अकेलापन कोरोना ने दिया था। पिछले साल उनकी पत्नी को छीनकर और जो कुछ बाक़ी था उसे समय ने छीन लिया। विनोद दुआ का जाना और दूसरे मित्रों की तरह जाना नहीं है। वे एक ऐसे समय में गए हैं जब उनकी बहुत जरूरत थी।
विनोद दुआ को रोकने के लिए दुनिया ने बहुत दुआएं की थीं ,लेकिन तमाम दुआओं को जब खुद विनोद दुआ ने खारिज कर दिया हो तब ऊपर वाला भी क्या करता। विनोद के हठ के सामने कोई नहीं टिकता था। विनोद के बारे में उनके बहुत से मित्र लिखेंगे, लिखना भी चाहिए।
वे थे ही ऐसे की जिनके बारे में खूब लिखा जाए। मै उनके बारे में नहीं लिखना चाहता था । मै मन मारकर, भारी मन से उनके बारे में लिख रहा हूँ। वे अपने मन का बोझ उतारकर अपने चाहने वालों के मन को बोझिल कर गए हैं।
पद्मश्री की उपाधि विनोद दुआ के नाम के आगे बहुत हल्की सी लगती है। उन्हें उनके चाहने वाले विनोद दुआ के नाम से ही जानते और चाहते हैं। मुझसे पांच साल बड़े विनोद दुआ पत्रकारिता में मुझसे बहुत बड़े थे। उनका दृष्टिकोण बड़ा था,फलक बड़ा था और वे बड़े-बड़ों के सामने भी बड़े होकर ही खड़े होने का साहस रखने वाले पत्रकार थे। उनसे मेरी मुलाकातें आज की नहीं थी । वे दूरदर्शन के दिन थे । आज की तरह चैनलों की भीड़भाड़ नहीं थी । उन दिनों में हंसराज कालेज दिल्ली का मेधावी छात्र जो अंग्रेजी में परास्नातक उपाधि लेकर निकला था टेलीविजन के परदे पर अचानक चमक उठा था।
दूरदर्शन पर एक समाचार पत्रिका आती थी ‘ परख ‘ ।
मै राजेश बादल की कम्पनी के मार्फत इस परख के लिए काम करता था। दुआ जी से सीधा कोई परिचय नहीं था लेकिन अनेक रिपोर्ट्स के बाद उन्होंने सीधे मुझे फोन पर बधाई दी। उनसे मुलाक़ात तब हुई जब मै वर्षों बाद एक चैनल के कार्यक्रम के लिए दिल्ली गया। वे पूरी आत्मीयता से मिले और फिर अक्सर मिलते रहे । सबसे अंतिम भेंट ग्वालियर के आईटीएम कालेज के दीक्षांत समारोह में हुई थ। आईटीएम ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया था। वे सपत्नीक यहां आये थे और सबके साथ घुलमिलकर रहे थे। उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक़ बिना किसी ख़ास मनुहार के सपत्नीक गाना भी गाया था।
वे गंभीर पत्रकारिता के लिए जाने जाते थे। राष्ट्रीय,अंतर्राष्ट्रीय विषयों से लेकर स्थानीय विषयों पर उन्होंने समान गंभीरता से काम किया। वे स्टार चेहरा होते हुए भी आम आदमी बने रहे। उनका अपना स्टेटस था,अपना स्वभाव था लेकिन वे सबसे अलग थे। उन्हें 13 साल पहले पद्मश्री से सम्मानित किया गया थ। रामनाथ गोयनका एक्सीलेंस अवार्ड और रेड इंक अवार्ड उन्हें मिल ही चुके थे ,लेकिन उनका सबसे बड़ा अवार्ड था उनके दर्शकों और पाठकों का निश्छल स्नेह। उनके चश्मे के पीछे से झांकती नजरें एक्स-रे का काम करतीं थी।
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टेलीविजन की दुनिया में अपना ‘विजन ‘ रखने वाले वे गिनेचुने पत्रकारों में से एक थे । वे न कभी चीखे,न चिल्लाये उन्होंने सामने वाले की आँखों में आँखें डालकर पूरे आत्मविश्वास के साथ बात की। जो पूछना था सो पूछा ।
वे किसी के प्रवक्ता कभी नहीं बने।उनके ऊपर किसी दल की कोई छाप कभी नहीं लगी। वे श्रीमती दुआ के पति बने लेकिन दूसरों की तरह करोड़ों के पति कभी नहीं बने। संकट के दौर में भी उनका आत्मविश्वास डिगा नहीं लेकिन कोरोना ने उन्हें ठग लिया। पहले प्रिय पत्नी को छीना और फिर खुद विनोद दुआ को अपने साथ ले गया।लेकिन विनोद दुआ दशकों तक याद किये जाते रहेंगे। उनके लिए विनम्र श्रृद्धांजलि लिखते हुए बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा। लेकिन वे हमेशा से श्रद्धा के पात्र थे,जीते जी भी और अब निधन के बाद भी।
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