Gyanvapi Issue: दासता की दास्तानें कब खत्म होंगी?
मुझे ताज्जुब इस बात का नहीं है कि काशी विश्वनाथ प्रांगण में स्थित ज्ञानवापी परिसर में शिवलिंग या हिंदू देवी देवताओं की प्रतिमायें निकलीं या गर्भ गृह निकले या मंडपम निकले या उसकी दीवारें भारतीय या हिंदू मंदिरों की स्थापत्य कला के हूबहू हैं। उस परिसर का हिंदू धर्म स्थल होना तो शाश्वत सत्य है ही।
मुझे अफसोस इस बात का है कि देश के 1947 में स्वतंत्र होने के साथ ही तत्कालीन सरकार से लेकर तो तकरीबन 60 बरस तक हुकूमत करने के बावजूद कांग्रेस सरकार ने गुलामी के प्रतीकों को ध्वस्त क्यों नहीं किया?
उन्हें इस देश की आगामी पीढ़ी के लिये नासूर बनने के लिये क्यों छोड़ दिया? या भारतीय अस्मिता के प्रतिमानों को गुलामी की जंजीरों से मुक्त क्यों नहीं कराया? या मुगल और अंग्रेजों द्वारा अतिक्रमित किये गये स्थानों को उनके मूल स्वरूप में लौटाने की जहमत क्यों नहीं उठाई? या उनके खड़े किये गये स्मारकों को जमींदोज क्यों नहीं कर दिया?
मेरे ही समान लाखों-करोड़ों भारतीयों के मन में ऐसे ही अनगिनत सवाल गाहे-बगाहे कौंधते रहते हैं, लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं गूंजता और मन मारकर रह जाना पड़ता है।
नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय असि्मता से जुड़े मसले जब-तब उठते रहते हैं और तब धर्म निरपेक्षता का लबादा ओढे लेकिन सांप्रदायिक सोच से लबरेज सांप-बिच्छू अपने बिलों से बाहर निकलकर बिलबिलाने लगते हैं। हैरत का यह सिलसिला अनवरत है।
किसी कस्बे या शहर में किसी मसि्जद पर तिरंगा या भगवा लहरा देने भर से आसमान सिर पर उठा लेने वाले या किसी मसि्जद के सामने से बैंड, बाजा, ढोल-ताशे बजाकर निकालने भर से जहां गंगा-जमुनी संस्कृति खतरे में पड़ जाती है और तमंचे, पिस्तौल, पत्थर, तलवारें निकल आती रही हों, वहां किसी पुराणकालीन हिंदू धर्मस्थल में जबरिया बना ली गई इमारत को मस्जिद नाम दे देने के बावजूद वहां अब भी मौजूद हिंदू देवी, देवताओं की मूर्तियों, मंडपों, पुरातात्विक प्रतीकों, स्तंभों के होने और शिवलिंग पर वजू करने, कुल्ला करने की जानकारी सामने आने के बाद भी देश में शांति बनी रहती है तो इसे क्या मान जाये? हिंदुओं की बुजदिली या सहिष्णुता?
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घोर आश्चर्य तो इस बात का भी है कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का मानने वाले भारत के हिंदू धर्म स्थलों के अस्तित्व को बरकरार बनाये रखने के मुद्दे पर खामोशी क्यों साधे हैं?
अब यह कोई दबी-छुपी बात तो है नहीं कि कबीला संस्कृति के पोषक, जो सैकड़ों मील दूर से लूट-खसोट, अत्याचार, बलात्कार, बर्बरता के लिये भारत आये फिर यहीं बस गये और जबरदस्ती धर्मांतरण कराया, ऐसे लोगों की स्थापत्य कला कहां से आ गई?
रेगिस्तान और उजाड़ मुल्क में जहां दाने-पानी की मोहताजी थी, वहां भव्य इमारतें बनाने की समझ, ज्ञान, तकनीक और संसाधन कहां से आ गये?
जिन्होंने घोषित रूप से मंदिरों को बार-बार ध्वस्त किया और जिसका उल्लेख उन्हीं के खुशामदियों ने बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां, औरंगजेब जैसे क्रूर, अमानवीय, आक्रमणकारी विदेशी लोगों के नाम पर स्मारक, सड़कें और धर्म स्थल हैं और हम दासता मुक्ति के सात दशक बाद भी अपने मानस पटल पर अंकित किये हुए हैं।
शर्म और घिन आती है, उन जिम्मेदारों पर जो स्वतंत्र होते से ही इस बोझ को उतार फेंक सकते थे।
हद तो यह थी कि जिस देश को राम के आदर्शों से जाना जाता हो, उनकी जन्म स्थली को मुक्त कराने के लिये 400 साल लग गये। ऐसे में जब काशी में मंदिर के अनगिनत प्रतीक वर्तमान में मौजूद होने, उनकी शिनाख्त होने और पुरातात्विक रूप से उस जगह के पुराणकालीन होने के अभिलेख उपलब्ध होने के बाद भी इस पर विवाद खड़ा किया जाता है तो अब यह देश तय करें कि कौन सहिष्णु है, कौन सांप्रदायिक?
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अब यह सिलसिला थमने वाला नहीं है, क्योंकि भारत में अब भारतीय सनातन परंपरा को अक्षुण्ण रखने, उसके वैभव को लौटाने का माद्दा रखने वाली सरकार है और जनमानस में चेतना भी आ चुकी है। ऐसी सरकार जो तुषि्टकरण और वोट बैंक की राजनीति की बजाय राष्ट्रीय अस्मिता को सर्वोपरि मानने वाली है।
तब उम्मीद की जाना चहिये कि अयोध्या के बाद काशी, ज्ञानवापी, मथुरा को तो आततायियों द्वारा अतिक्रमित हिंदू धार्मिक स्थलों को मुक्त कराकर उसे भारतीय समाज को सौंपेगी ही, साथ ही ऐसे निशान भी मिटाने का साहस दिखायेगी, जो हमें गुलामी की याद दिलाते रहते हैं।
देश में अब ताजमहल और कुतुब मीनार को लेकर भी सप्रमाण चर्चा चल पड़ी है कि ये धरोहरें भी भारतीय राजाओं ने बनवाई थीं, जो कालातंर में मुगलों ने हमले कर उन्हें खंडित किया और उनमें मामूली सुधार कर अपने नाम कर लिया।
जिन लुटेरों के बारे में यह कहा जाता हो कि स्मारक बनाने के बाद उसके शिल्पियों के हाथ काट दिये गये हों, ऐसे जल्लाद किसी प्रेम की प्रतीक इमारत का निमार्ण क्या खाक करेंगे?
जयपुर राजघराने की वारिस दीया कुमारी ने हाल ही में दावा किया है कि ताजमहल उनके पुरखों का है, जिसे शाहजहां ने जबरदस्ती ले लिया था। वे सही समय पर इसके प्रमाण भी देने का कह चुकी हैं।
इसी तरह से करीब 6 दशक पहले पुरुषोत्तम नागेश ओक ने एक पुस्तक लिखी है-ताजमहल हिंदू राजभवन था।
उसमें अनेक संदर्भों के साथ यह बताने का प्रयास किया है कि इसका निर्माण शाहजहां से तीन सौ साल पहले किया गया था। फिर एक बात समझ नहीं आती कि किसी का मकबरा किसी महल में कैसे बनेगा? वह तो कब्रस्तान में होता है।
यदि शाहजहां बेपनाह मोहब्बत के चलते मुमताज का भव्य मकबरा ही बनवाने के ख्वाहिशमंद होते तो पहले उसका मृत शरीर बुरहानपुर में क्यों दफन करते? इस्लाम के मानने वाले तो आज किसी अपराध में भी मृत शरीर को कब्र से निकालने की बात आये तो धर्म का वास्ता देकर विरोध में खड़े हो जाते हैं, तब कैसे यकीन कर लिया जाये कि किसी मुस्लिम राजा ने धार्मिक मान्यताओं को धता बताकर मुमताज का शव 600 किलोमीटर दूर परिवहन कराया।
अफसोसजनक और शर्मनाक तो यह भी है कि हर छोटे-छोटे मसलों पर देश छोड़ने, देश में सहिष्णुता खत्म होने, सांप्रदायिक सामंजस्य खत्म होने का प्रलाप करने वालों के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला कि जिस परिसर से शिवलिंग निकला हो, देवी-देवताओं की प्रतिमायें प्राप्त हुई हों, जिसकी दीवारें मंदिरों के स्तंभों के आगे खड़ी कर दी गई हैं, उसे बेझिझक हिंदुओं को सौंप देना चाहिये। इस पर कैसा विवाद, कैसा विचार और किस तरह का समझौता।
बेशर्मी की पराकाष्ठा तो यह भी है कि देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस समेत धर्म निरपेक्षता का चोला पहनने वाले बगुला भगत राजनेताओं की जबान पर हिंदुओं के सबसे महत्वपूर्ण धामिर्क स्थल काशी विश्वनाथ के हक में चूं तक नहीं निकली। ये राजनेता इतना दोगलापन कहां से लाते हैं?
अब यह इस देश को तय करना ही होगा कि वे गुलामी के प्रतीकों के साथ अपनी आगामी पीढ़ियों का सफ़र सुनिश्चित करना चाहते हैं या उन तमाम प्रतीकों को मिटाकर हमारे अपने धार्मिक स्थलों को मुक्त कराना चाहते हैं?
वैसे देखा जाये तो देश के मुस्लिम सामाज को आगे बढ़कर यह पहल करना चाहिये कि देश में ऐसे जो भी स्थान हैं, जिन्हें मुगल शासकों ने तोड़ा, ध्वस्त किया था, वे ससम्मान हिंदुओं को सौंप दिये जायें, ताकि सांप्रदायिक सौहार्द तो कायम रहे ही, वे यह भी साबित कर सकें कि उनके लिये देश पहले हैं।
साथ ही वे यदि इतना भर ध्यान कर लेंगे कि वे किसी आक्रमणकारी मुस्लिम राजा के सताये हैं, प्रताड़ित और धर्मांतरित किये हिंदुओं के ही वंशज हैं तो हिंदू-मुस्लिम के बीच की खाई आधे से ज्यादा तो पलक झपकते ही पट जायेगी।