साँच कहै ता! ‘निन्दारस’ में डूबी पत्रकारिता में उतराते हमारे भाई लोग!

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साँच कहै ता! ‘निन्दारस’ में डूबी पत्रकारिता में उतराते हमारे भाई लोग!

हम फुरसतिया लोगों को बैठे-ठाले किसी का मजाक बनाने,खिल्ली उड़ाने में बहुत मजा आता है। परपीड़ा से उपजे आनंद की अनुभूति ही गजब की होती है। परसाई जी ने दसवें रस की खोज की थी..निंदारस। हमारा संभाषण, हमारी पत्रकारिता, हमारी रोजमर्रा की सोच निंदा रस की चासनी से डूबी रहती है। सब कुछ अच्छा चले तो यह कोई खबर नहीं बनती। खबर की खुराक गडबड़ी है। इसलिए जब से पत्रकारिता शुरू हुई नाक हर दम कुछ न कुछ गड़बड़ी सूंघती है।

अभी हाल ही भारतीय पृष्ठभूमि के सनातनी सांस्कारिक ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हुए तो यह परपीड़ा आनंद देखते ही बना। ऋषि सुनक नाम ही पर्याप्त है उनके व्यक्तित्व का बखान करने के लिए। गीता के प्रति श्रद्धा, हिन्दू पर्व-त्योहार से लगाव, पूजा-आराधना यह सब ज्यादा बताने की जरूरत नहीं। फेसबुक में मैंने लिखा ” विंस्टन चर्चिल ने कहा था “भारत के भूखे-नंगे लोग देश नहीं चला सकते। आज चर्चिल की प्रेतात्मा देख रही होगी कि एक भारतवंशी उनका देश चला रहा है। अब इसकी प्रतिक्रिया में एक महाशय ने यह सिद्ध करने में अपना पूरा पराक्रम खर्च कर दिया कि ऋषि सुनक का भारत से कोई लेना देना नहीं। हर अच्छे काम में मीन-मेख खोजने वाले एक प्रगतिशील कवि जी खोजकर लाए कि- ऋषि सुनक शैम्पेन पीते हैं व बीफ खाते हैं। हजारों मील दूर देश में बैठे उस व्यक्ति की उपलब्धि पर भी जलने-भुनने वाले लोग अपने आसपड़ोस में ही बसते हैं। कुछ की तो पूरी जिन्दगी ही निन्दारस का सेवन करते बीत जाती है, सोमरस तक के लिए समय नहीं निकाल पाते।

 

साँच कहै ता! 'निन्दारस' में डूबी पत्रकारिता में उतराते हमारे भाई लोग!

बहरहाल पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में रिपोर्टिँग के सबसे अच्छे स्त्रोत कंट्रोल रूम, पुलिस थाने, अस्पताल, बसस्टैंड, रेल्वे स्टेशन हुआ करते थे। शाम को जो खबरें यहां से छनकर आती थीं उसी में नमक मिर्च लगाकर सबेरे परस देते थे। तब अखबारों में बीट सिस्टम नहीं होता था, बाइट की भी कोई झंझट नहीं। कहा जाता है, सुना जाता है, विश्वस्त सूत्रों ने बताया, नाम न छापने की शर्त पर एक जानकर ने कहा..आदि, आदि स्त्रोत हम लोग पैदा कर लेते थे। एक बार कहीं से कोई खबर नहीं मिली। विग्यप्तियों का बक्सा भी खाली था। अब पेज का पेट भरने के लिए किलोभर कूड़ा तो चाहिए ही चाहिए। सो उस दिन अपन ने यही खबर बनाई कि ‘आज इस शहर में कुछ नहीं हुआ’। खबर की हेडिंग दी…

“आज इस शहर में कुछ नहीं हुआ
न चोरी न लूट, किसी ने किसी को चाकू भी नहीं मारा, कतल भी नहीं हुआ कहीं, रेप की खबर भी नहीं कहीं से।आज इस शहर में कुछ भी नहीं हुआ।

थाने में दरोगा ने फरियादी को चाय की पेशकश की, अस्पताल में डाक्टरों ने लंच टाइम छोड़कर मरीजों को देखा। जूनियर डाक्टर्स तमीज से पेश आए।पोस्टमार्टम रिपोर्ट जस की तस लिखी गईं। आज इस शहर में कुछ भी नहीं हुआ।

कचहरी में बिना लिए..मुवक्किल की पेशी हुई। लंगड को खसरा मिसिल की नकल मिल गई। कोई बाबू घूस लेते नहीं पकड़ा गया। इंजीनियरों ने ईमानदारी के मामले में हरिश्चंद्र को पीछे छोड़ा। ठेकेदार का भुगतान बिना कमीशन के हुआ। सरकारी स्कूल की बिल्डिंग में चार एक का मसाला लगा। सीमेन्ट की बोरियों से आज राख नहीं सीमेंट ही निकली। मास्साब बिना औंघाए पूरे पीरियड पढा़ते रहे।आज इस शहर में कुछ नहीं हुआ।

सत्ता पक्ष के विद्रोही गुट ने मंत्री का स्वागत किया। विपक्षी शहर में हुए अच्छे काम की तारीफ करते नहीं थके। सदन बिना चख चख के चला। सदस्यों ने एक दूसरे के बोलने में कोई टोकाटोकी नहीं की। किसी मंत्री के कहीं भी मसखरी करने की भी खबर नहीं। आज इस शहर में कुछ नहीं हुआ।

दूकानदारों ने डंडी नहीं मारी। एक किलो राशन, एक किलो ही मिला। हल्दी बिना घोड़े के लीद के मिश्रण वाली मिली। मावा वकाय मावा रहा, उसमें सिंथेटिक मिलावट नहीं की गई। व्यापारियों ने वास्तविक रेट में ही माल बेंचे। बाजार में कोई गुंडा चौथ वसूलते भी नहीं दिखा। आज इस शहर में कुछ भी नहीं हुआ।”

जो थोड़ा बहुत याद है, मैंने कुछ इस तरह की खबर रची। ये खबर सराही भर ही नहीं गई अपितु इसे शहर के साहित्यकारों ने नई कविता का दर्जा दे दिया। कुछेक मंचों में इसके पाठ भी हुए।

दरअसल नाकारात्मकता हमारे मानस में ऐसे कूटकूट कर भर चुकी है की सीधे रास्ते को भी टेढ़ा मेढ़ा देखने की आदत बन गई। हम सीधी सच्ची बात में भी मीन मेख निकालते हैं। हमारे ख्वाबों, ख्वाहिशों पर भी तीसरी नजर है।

कुछ साल पहले अमेरिका में हमारे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश की सड़कों को लेकर कहा नहीं कि मीडिया में हाहाकार मच गया। चिथड़ा सड़कों की तस्वीरें, विजुअल्स, विश्लेषण, बाइट, कोटेशन, व्यंग्य, कार्टून, प्रहसन, चुटकुलों का सैलाब सा आ गया।

ये सब बिलोरते हुए मजा लेने वालों से पूछिए कि कभी अमेरिका गए हो? तो वे बगलें झाकने लगेंगे। क्या वो अमेरिका है सो इसलिए हमसे अच्छा ही होगा ? चलो सौ में एक ही सही यदि कोई आपके मनभावन की सड़क बनी हो तो उसका जिक्र कर देने में क्या बिगड़ता। ये बात तो समझनी चाहिए कि चौहान साहब अमेरिका मध्यप्रदेश की ब्रांडिंग करने गए थे, प्रदेश की जाँघ उघारने नहीं।

निंदारस के नशे में मस्त लोग क्या ये उम्मीद कर रहे थे कि बिजनेस मीट में शिवराज जी मध्यप्रदेश की गड्ढेदार सड़कों का प्रजेंटेशन करेंगे? एक मुख्यमंत्री को जो कहना चाहिए वही कहा, लौटकर जोरदारी के साथ दोहराया यह और बड़ी बात है।

अभी हाल ही उन्हीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बड़ी साफगोई के साथ सड़कों के बदतर हालात को स्वीकार किया, कहा- जब राजधानी भोपाल की सड़कों का ये हाल है तो प्रदेश के दूरस्थ जिलों का क्या हाल होगा। अब इसमें क्या मीनमेख निकाला जाए? यह हमारे भाई लोगों को ज्यादा समझ में नहीं आया सो यह खबर ज्यादा ‘खेली’ नहीं गई। (‘खबरों से खेलना’ यह मुहावरा चैनलिया टीवी ने दिया है)

हम जब सब्जी लेने निकलते हैं तो मोहल्ले का ठेलावाला कहता है- साहब मेरी सब्जी रिलायंस फ्रेश से ज्यादा ताजी। हम हेकड़ी में उसकी नहीं सुनते और कांच की आलमारियों में करीने से सजी बासी सब्जी लेके आ जाते हैं। हमारी यह धारणा है कि ये जो मोहल्ले वाला है ये झूठा ही होगा। माँल वाला तो झूठा हो ही नहीं सकता। यही धारणा अमेरिका या विदेश को लेकर भी है। क्या, इंग्लैंड-अमेरिका चोरी, मक्कारी, बेईमानी से मुक्त है? क्या वहां कमीशनखोरी या भ्रष्टाचार नहीं होता? क्या वहां भिखमंगे, चीटर, फटीचर नहीं है? यह हम किस यकीन के साथ कह सकते हैंं?सुनी, सुनाई बातों को लेकर पिल पड़े।

मैं तो मानता हूं कि अमेरिका में हमारे जैसी घटिया सड़कें भी होंगी और हमारे जैसे घटिया लोग भी। आदमी काला, गोरा, गेंहुआ जैसे भी हो उसकी फितरत कहां बदलती है। कहीं ढ़ँकी मुदी रहती है तो कहीं उधड़ी। अमेरिका या किसी देश के मुकाबले अपने प्रदेश का मजाक उड़ाकर वस्तुतः हमने अपना ही मजाक उड़ाया है, ये बात समझनी चाहिए। यही बात ऋषि सुनक को भी लेकर है। सुनक का मजाक उड़ाया भारतीय बल्दियत की धुर्रियाँ बिखेरना हुआ।

अमेरिका में बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी रहते हैं उनमें से मध्यप्रदेश के भी हैं। अमेरिका में मध्यप्रदेश की सड़कों व यहां की अधोसंरचना को लेकर कही गई बातों का तहे दिल से स्वागत किया और इस बात पर हैरत जताई कि अपने मध्यप्रदेश में क्यों मजाक उड़ रहा है।

खामियां देखने के लिए तो पूरी उमर पड़ी है,कभी कभार तो खूबियों पर नजरें इनायत हुआ करे यार। ज्यादा निंदारस से अजीरण हो जाएगा और अपने बाल-बच्चे,घर-द्वार सब खोटे दिखने लगेंगे। किसी में अमेरिका से भी श्रेष्ठ होने की ललक तो है। उस ललक का भी सम्मान होना चाहिए। भले आज नहीं, हो सकता है कल यह ख्वाब असलियत में बदल जाए। आप हमारे ख्वाबों-ख्वाहिशों पर पहरा नहीं लगा सकते मित्र..। एक बार फिर दुष्यंत जी की नसीहत

खुदा न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।

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Jayram shukla
जयराम शुक्ल