विरोध विपक्ष का अधिकार, लेकिन सत्र निर्बाध चलाने की जिम्मेदारी भी तो ले

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यूं तो मैं पहली बार लोकसभा का सदस्य निर्वाचित हुआ हूं तो कोई भी छोटे मुंह बड़़ी बात कहने की हिमाकत नहीं कर सकता। फिर भी अपने अल्पकालीन कार्यकाल के मद्देनजर जिन बातों पर गौर कर पाया हूं,उसमें से कुछ आपके साथ साझा करना चाहूंगा। इसमें सबसे उल्लेखनीय बात यह पाता हूं कि भारतीय संसद के इतिहास में हम सबसे गैर जिम्मेदार विपक्ष के साथ सदन को देख पा रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिये चिंतनीय है ही, विपक्ष के लिये भी विचारणीय पहलू है। सत्ता पक्ष में होने से भारतीय जनता पार्टी की भी इस मुद्दे पर चिंता अपनी जगह है ही।
इस समय देश देख रहा है कि विपक्ष याने हंगामा,सडक़ से लेकर तो संसद तक अवरोध,मर्यादाहीनता,फिजूल की बहसबाजी,देश,समाज के प्रति सकारात्मक रवैये के अभाव की गहरी खाई है। मानसून सत्र हो या बजट सत्र, विपक्ष में गंभीरता का सर्वथा अभाव है। ऐसा क्यों है, इसका अनुमान तो लगाया जा सकता है, किंतु वास्तविक प्रकाश तो विपक्ष ही डाल सकता है। बीते कुछ समय से यह देखने में आ रहा है कि विपक्ष एक सूत्रीय कार्यक्रम पर चल रहा है। वह है, सरकार के हर कदम का विरोध करना। न कोई तर्क, न कोई आधार, न मुद्दा, न औचित्य और न ही राजनीति का तकाजा। राजनीति में एक सीमा तक बेवजह विरोध भी होता है, लेकिन जब विपक्ष विरोध के अलावा दूसरा तरीका ही अख्तियार न करे तो कहना पड़ेगा कि ऐसे तो संसदीय परंपरा,कार्य पद्धति और आचरण ही खत्म हो जायेगा। अब जबकि करीब एक साल तक किसानों के नाम पर विरोधी राजनीतिक दलों के एजेंडा पर चले आंदोलन के मद्देनजर तीनों कृषि कानून वापस लेने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है, ऐसे में 29 नवंबर से शुरू होने वाले शीतकालीन सत्र में विपक्ष की भूमिका का इंतजार देश कर रहा है।
आप देखें कि जब भी संसद का सत्र प्रारंभ होता है, तब तात्कालिक रूप से ऐसा कोई मुद्दा उछाल दिया जाता है, जिसका कोई सिर-पैर नहीं होता। चूंकि मकसद ही हंगामा खड़ा करना होता है तो विपक्ष इसमें दिमाग ही नहीं लगाता। यदि कहीं कुछ गड़बड़ महसूस कर रहे हैं तो देश की जनता के जिम्मेेदार प्रतिनिधि होने के नाते आप संसद में जोर-शोर से वे मुद्दे लाकर सरकार को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं। आप जनता की अदालत में मामले को ले जा सकते हैं। लोकतंत्र के मजबूत और विश्वसनीय स्तंभ मीडिया के सामने वस्तु स्थिति रख सकते हैं। विपक्ष वैसा कुछ करने से बचता है, क्योंकि असलियत वह भी जानता है।
जब भी संसद का सत्र होता है, देश को यह उम्मीद रहती है कि वहां स्वस्थ बहस होगी, जन हित के मुद्दों पर चर्चा होगी, जन कल्याण के फैसले लेने में विपक्ष भी सरकार के साथ बराबरी से खड़ा रहेगा, किंतु हम देख रहे हैं कि ये सब कपोल कल्पित होता जा रहा है। विपक्ष ने निश्चित ही ऐसा तय किया लगता है कि कुछ भी हो, वह सरकार के कामों की छिछालेदार ही करेगा। अब यह बात समझ से परे हैं कि सरकार और विपक्ष दोनों का ही काम जब जन कल्याण है और चुनाव के पहले तमाम दल अपने घोषणा पत्र जारी कर जनहित की योजनाओं की बात करते हैं तो सदन में उन पर चर्चा के समय हंगामा,विरोध या सदन से उठकर चले जाने का क्या मतलब है? यह तो पलायनवादी रूख है। विपक्ष संभवत यह मानता है कि सरकारें कोई काम अच्छा नहीं करती तो सवाल यह है कि जब वे सत्ता में होते हैं तब क्या सोचते हैं?
दरअसल, लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त ही यह है कि विपक्ष न्यायकर्ता की भूमिका न निभाये, बल्कि वह प्रतिस्पर्धी बनकर पेश आये। जब आप स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करेंगे तो जनता के लिये बेहतर कर सकेंगे। यदि दो दशक पहले की बात करें तो संसद में सत्तारूढ़ दल को आड़े हाथों लेने में विपक्ष का सानी नहीं था। तब अनेक ऐसे सासंद हुए, जिन्होंने लोकतंत्र की मर्यादा के भीतर सरकार को खूब कोसा, उनकी नीतियों की मीमांसा की,उसकी तथ्यपरक आलोचना की और सरकार को अनेक फैसले वापस भी लेने पड़े। इसके विपरीत अब विपक्ष में अजीब तरह की जिद नजर आती है, जो अबोध बच्चे के चांद मांगने की तरह होती है।
मुझ जैसे नये, पहली बार के सांसद बेहद उम्मीदों के साथ संसदीय आचरण सीखने को उत्सुक रहते हैं, लेकिन तब घोर निराशा होती है, जब विपक्ष सदन नहीं चलने देता और उठकर चले जाते हैं, कार्रवाई रोक देना पड़ती है या सत्र समाप्ति की घोषणा करना पड़ती है। अनेक मौके ऐसे आते हैं जब आसंदी तक की मर्यादा का ध्यान भी नहीं रखा जाता और उस पर कागत,वस्तुएं फेंक दी जाती हैं। यह लोकतंत्र का उपहास है और जनता की उम्मीदों पर तुषारापात भी। आप सरकार के कामों की कमियां उजागर करें, उसे ठीक करने के ठोस उपाय बतायें, पूरे जोर-शोर से अपनी बात रखें, किंतु सदन की कार्रवाई बाधित कर देश के सामने गलत छवि पेश की जा रही है। विदेश में भी हम पर अंगुलिया उठती हैं। विपक्ष को इस पर गंभीरता और पूरी जिम्मेदारी से सोचना होगा। जिसमें एक बात तो सर्व सम्मति से तय कर लेना चाहिये कि चाहे जो हो, सदन तो निर्बाध चलाया जायेगा। किसी मुद्दे पर सहमति,असहमति आपका अधिकार है, लेकिन सदन की मर्यादा भंग करने का अधिकार तो किसी को नहीं होना चाहिये। हम उम्मीद करें कि आने वाले सत्रों में तमाम दल इस पर जरूर गौर कर अपने सदस्यों को ताकीद करेंगे कि पहली अनिवार्यता सदन के संचालन की होना चाहिये।
(लेखक इंदौर से भाजपा के सांसद हैं।)
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शंकर लालवानी

लेखक इंदौर से भाजपा के सांसद हैं