संस्कृत महारानी, हिन्दी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी…

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संस्कृत महारानी, हिन्दी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी…

अंग्रेजी को जिन लोगों ने माथे पर सजा रखा है, उन भारतीयों के लिए ‘संस्कृत महारानी, हिन्दी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी…’ उपमा दिल तोड़ने वाली हो सकती है। पर गर्व की बात यह है कि यह बात किसी भारतीय ने नहीं कही, बल्कि बेल्जियम से भारत आए फादर कामिल बुल्के ने कही है। और उन्होंने यह बात भारतीयों को खुश करने के लिए नहीं कही, बल्कि खुद संस्कृत और हिंदी सीखकर उन्होंने यह चुनौती सभी भाषाओं को दी है। बुल्के की यह बात उन भारतीयों को आइना दिखाती है, जो मातृभाषा बोलने में हीनता का भाव महसूस करते हैं। और अंग्रेजी बोलकर अपनी भाषा और अपने ही देश के लोगों को ही मुंह चिढ़ाते हैं। वह यह सीख ले सकते हैं कि भारत देश और यहां की भाषा संस्कृत और हिंदी कितनी महान है कि विदेशी लोग यहां की नागरिकता भी लेते हैं और यहां की भाषा भी सीखते हैं और संस्कृत व हिंदी का मान पूरी दुनिया में भी बढ़ाते हैं।

आज फादर कामिल बुल्के को याद करने का खास दिन है, क्योंकि उनका जन्म 1 सितंबर को हुआ था। वह बेल्जियम से भारत आये एक मिशनरी थे। भारत आकर मृत्युपर्यन्त हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे। वे कहते थे कि संस्कृत महारानी है, हिन्दी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर 1909 को रामस्केपेल गांव, नॉकके-हेइस्ट नगरपालिका वेस्ट फ्लैंडर्स, बेल्जियम में हुआ था। इनके पिता का नाम अडोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था। अभाव और संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन बिताने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखी। बुल्के ने पहले से ही ल्यूवेन विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी डिग्री हासिल कर ली थी। 1930 में ये एक जेसुइट बन गए। नीदरलैंड के वलकनबर्ग, (1932-34) में अपना दार्शनिक प्रशिक्षण करने के बाद, 1934 में ये भारत की ओर निकल गए और नवंबर 1936 में भारत (मुम्बई) पहुंचे। दार्जिलिंग में एक संक्षिप्त प्रवास के बाद, उन्होंने गुमला (वर्तमान झारखंड) में पांच साल तक गणित पढ़ाया। वहीं पर हिंदी, ब्रजभाषा व अवधी सीखी। 1938 में, सीतागढ़/हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी। इन्होंने हिंदी सीखने के लिए अपना आजीवन जुनून विकसित किया। इनकी प्रसिद्धि का कारण ही हिंदी साहित्य और तुलसीदास पर शोध था।

दरअसल बुल्के के शब्दों में ही अनुभव करें तो उन्होंने कहा था कि ‘1935 में मैं जब भारत पहुंचा, मुझे यह देखकर आश्चर्य और दुःख हुआ, मैंने यह जाना कि अनेक शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से अंजान थे और इंग्लिश में बोलना गर्व की बात समझते थे। मैंने अपने कर्तव्य पर विचार किया कि मैं इन लोगों की भाषा को सिद्ध करूँगा।’ इसके लिए बुल्के ने ब्रह्मवैज्ञानिक प्रशिक्षण (1939-42) भारत के कुर्सियॉन्ग से किया,1940 में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। जिसके दौरान इन्हें पुजारी की उपाधि दी गयी। भारत की शास्त्रीय भाषा में इनकी रुचि के कारण इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय (1942-44) से संस्कृत में मास्टर डिग्री और आखिर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1945-49) में हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, इस शोध का शीर्षक था राम कथा की उत्पत्ति और विकास ।  1950 में यह पुनः रांची आ गए। संत जेवियर्स महाविद्यालय में इन्हें हिंदी व संस्कृत का विभागाध्यक्ष बनाया गया। सन् 1950 में बुल्के ने भारत की नागरिकता ग्रहण की। इसी वर्ष वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त हुये। सन् 1972 से 1977 तक भारत सरकार की केंद्रीय हिन्दी समिति के सदस्य बने रहे। वर्ष 1973 में इन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया।

पेशे से इंजीनियर रहे बुल्के का वह ब्योरेवार तार्किक वैज्ञानिकता पर आधारित शोधसंकलन “रामकथा: उत्पत्ति और विकास” कहता है कि राम वाल्मीकि के कल्पित पात्र नहीं, इतिहास पुरूष थे। तिथियों में थोड़ी बहुत चूक हो सकती है। बुल्के के इस शोधग्रंथ के उर्द्धरणों ने पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत में नहीं, अंतर्राष्ट्रीय कथा है। वियतनाम से इंडोनेशिया तक यह कथा फैली हुई है। इसी प्रसंग में फादर बुल्के अपने एक मित्र हॉलैन्ड के डाक्टर होयकास का हवाला देते थे। डा० होयकास संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान थे। एक दिन वह केंद्रीय इंडोनेशिया में शाम के वक्त टहल रहे थे। उन्होंने देखा एक मौलाना जिनके बगल में कुरान रखी है, इंडोनेशियाई रामायण पढ़ रहे थे। होयकास ने उनसे पूछा, मौलाना आप तो मुसलमान हैं, आप रामायण क्यों पढते हैं। उस व्यक्ति ने केवल एक वाक्य में उत्तर दिया- ‘और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिये’। रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के वाल्मीकि की दिग्विजय कहते थे, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय। इस पूरे प्रसंग पर विस्तार से चर्चा करते हुए डा० दिनेश्वर प्रसाद भी नहीं अघाते। 20 वर्षों तक वह फादर बुल्के के संपर्क में रहे हैं। उनकी कृतियों, ग्रंथों की भूमिका की रचना में डा० प्रसाद की गहरी सहभागिता रही है। रामकथा : उत्पत्ति और विकास, 1949,हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश, 1955, अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, 1968, (हिंदी) मुक्तिदाता, 1972, (हिंदी) नया विधान, 1977, (हिंदी) नीलपक्षी, 1978, के रचियता फादर बुल्के की सोच वंदन करने वाली थी। भारत सरकार द्वारा 1974 में इनके साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया।

फादर कामिल बुल्के ने एक जगह लिखा है मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में रांची पहुंचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है। मेरे देश की भांति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है। इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया। यह बीसवीं सदी की बात है और हम उम्मीद कर सकते हैं कि हर भारतीय फादर बुल्के की तरह भारत और भारतीय भाषाओं का सम्मान बढ़ाकर भारत को गौरवान्वित करे…। बुल्के का निधन अगस्त 17, 1982 को 72 वर्ष की उम्र में एम्स, दिल्ली में हुआ था। उम्मीद है कि बीसवीं सदी बुल्के की थी और इक्कीसवीं सदी भारत, संस्कृत, हिंदी, राम और कृष्ण के प्रति बुल्के की सोच पर खरा उतरे…।