
व्यंग: विद्वता का इतना अभिमान कि अपने आप को स्वयंभू मानता है!
डॉ कपिल भार्गव
ओछे ओछे कुर्ते और जीन्स या ट्राउजर पहने हुए, बौद्धिकता को प्रगट करने के लिए दाढ़ी बढ़ाए हुए तथा लम्बा सा थैला टांगें हुए कुछ लोगों का एक समूह करता है अक्सर तथाकथित साहित्य गोष्ठियां एवं सभाएं। प्रारंभ के कुछ तकनीकी शब्दों का पारिभाषीकरण तो वह भारतीय परिप्रेक्ष्य में अनचाहे मन से करते हैं, परंतु कुछ ही समय बाद उनकी गाड़ी पटरी से उतर जाती है और उन सभी शब्दों की व्युत्पत्ति वह अपनी सहूलियत से करने लगते हैं। भारत में पिछले 11 साल से लगभग वह साहित्य और बुद्धिजीवियों के लिए अत्यंत कठिन समय प्रतिपाद्य लेकर अपनी संगोष्ठी को प्रारंभ करते हैं तथा साहित्य प्रेमियों एवं सत्ता के विरुद्ध उन तथाकथित साहित्यकारों अथवा मानवीयता को बचाने वाले शब्दकारों के दमन को अपनी कहानियों और पटकथाओं के केंद्र में रखते हैं।
वह नहीं चूकते हैं वर्तमान व्यवस्था को खिलजी की तलवारों से तौलने में और उन तथाकथित शोधार्थियों तथा भटके हुए छात्रों को बेचारा कहने में जो भारत के विरुद्ध बड़ी-बड़ी साजिशों में शामिल रहे हैं तथा कुछ जेल में हैं, यह किसी से भी नहीं छुपा है।
शायद बहुत पढ़ते लिखते होंगे इससे गुरेज नहीं, परंतु विद्वता का इतना अभिमान कि अपने आप को विश्व के ऐतिहासिक और समकालीन साहित्यकारों में वहां का हर एक प्राणी स्वयं को स्वयंभू मानता है और कुछ नहीं मानता है भारत को भारत बनाए रखने की पृष्ठभूमि को, वर्तमान को, भविष्य को और अतीत को भी जहां कहीं भी भारत को भारत बनाए रखने की बात हो उन सब बातों को। वह शायद मानते हैं ऐसे दर्शन को जहां एक ऐसी सत्ता विद्यमान है जो है कहीं नहीं लेकिन उन्हें हर जगह दिखाई देती है। जहां उनका एक अदना सा प्यादा भी बोल उठता है कि अगर किसी ने तरन्नुम में फलां विधा की रचना लिख दी तो वह दुनिया के किसी भी छंद को बिना किसी झिझक के आराम से लिख देगा, और वह मैं हूं। इनकी बात सुनकर शायद अप्पय दीक्षित जी भी माथा पकड़ लें। अजीब सा आत्म विश्वास इनकी घृणा में स्पष्ट दिखाई देता है इस बात का शायद इन्हें भान भी न होगा और न वह करना चाहते हैं।
आश्चर्य की बात तो यह है कि इन सम्मेलनों का मुख्य उद्देश्य शायद भारतीयता के विरोध में ही होता है जिसे वह अपने मौलिक अधिकार के रूप में मान बैठे हैं और यह परंपरा लगभग 10 साल से और अधिक तीखी हो गयी लगती है।
एक बार भारत भवन में एक सुप्रसिद्ध तथाकथित कवि तथा लेखक गला फाड़-फाड़कर कर कह रहे थे कि आज विश्वविद्यालय में खिलजी की तलवारें चल रही हैं और नालंदा और तक्षशिला जैसे शिक्षा के संस्थान फिर से चोटिल हो रहे हैं तब मुझे अपनी एक कविता याद आई थी जिसे मैंने उन्हें प्रश्नकाल में सुनाया था जिसका उन्होंने क्या उत्तर दिया वह कविता के बाद लिखूंगा-
“चीख”
शोर बहुत बढ़ गया है, अब सुनाई कहाँ देतीं है,
मासूमों की त्रसित की अब चीख!!
अब चलने लगी हैं मशीनें, कानों में बुदबुदाते हेड फोन,
सुनने कहां देते किसी की चीख।
इससे भयानक वो हैं,
जिनके संप्रत्यय बाँट देते हैं इंसानों को,
फिर चुनकर सुनते हैं चीख।
जो भी है दब रही है,
इस मचे कोलाहल में,
किसी जरूरतमन्द की चीख।
और वह चीख रहे हैं,
जिन्हें कुछ हुआ ही नहीं!
इस कविता के बाद जब मैंने उनसे पूछा की क्या आपने खिलजी की तलवारों की पैनी धार देखी है या उसे महसूस किया है तब उनका उत्तर था –
हैं,हुं, खुल खुल खुल…………(जैसे कुछ पता ही न हो)!!
फिर वह मेरी चिंतन परंपरा पर उल्टा प्रश्न करने लगे जो उनका स्वभावगत लक्षण है।
कुल मिलाकर कहने का अभिप्राय यह है कि जब से हिंदी साहित्य में लेखन की परंपरा का आरंभ हुआ है तब से यह लंबे समय तक खरगोश की चाल में दौड़ लगाते रहे हैं, और जब दौड़ में वैचारिक नवाचारों का प्रवेश हुआ तब भी यह चल रहे हैं, भले ही चाल कछुए की हो लेकिन निरंतर अपने संप्रत्ययों को लोगों के मस्तिष्क में बैठाने का भर्षक प्रयत्न कर रहे हैं, आवश्यकता है कि इनके समानांतर भारतीयता के विचारों का एक मजबूत प्रासाद खड़ा किया जाए तभी इनकी चाल को जो केवल “चाल ही है” अवरुद्ध किया जा सकता है।
हां मुख्य बात तो यह है कि यह अपने कार्यक्रमों के साथ-साथ कुछ पुरस्कार वितरण भी साहित्य के क्षेत्र में करते हैं और हाल ही में जिनके नाम इन्होंने पुरस्कारों के लिए घोषित किए हैं उनमें से किसी एक रंगरूट को इन्होंने हाल ही में दूसरी धारा के गणवेश में देख लिया है, और उसे बहुत हड़काया भी है, अब एक-दो दिन में पता चलेगा कि उसे वह पुरस्कार मिलेगा भी या नहीं या दूसरी धारा की गणवेश उसका यह पुरस्कार छीन लेगी। अनवरत………!!

डॉ कपिल भार्गव





