साँच कहे ता…! चंद्रगुप्तों (Chandragupta) को अब चाणक्य नहीं चारण चाहिए!

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साँच कहे ता…! चंद्रगुप्तों (Chandragupta) को अब चाणक्य नहीं चारण चाहिए!

अभी हाल ही में एक राष्ट्रीय सेमीनार(वर्चुअल) में भाग लेने का मौका मिला। विषय था..कुशल प्रशासनिक रणनीति बनाने में अकादमिक योगदान की जरूरत। इत्तेफाकन् मुझे ही मुख्य वक्ता की भूमिका निभानी पड़ी, वजह जिन कुलपति महोदय को उद्घाटन के लिए आना था वे ऐन वक्त पर नहीं आए।

वैसे कुलपतियों के अकादमिक सरोकार बचे ही कहां। बेचारों का पूरा पराक्रम धारा 52 से बचने में ही लगा रहता है। मैंने पढ़ा था कहीं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विश्वविद्यालयों के कुलपति का इतना मान सम्मान होता था कि प्रधानमंत्री उस शहर में जाते तो सबसे पहले कुलपतिजी से ही मिलने पहुंचते। जैसे गणेश जी की अर्चना के बाद सभी कर्मकाण्ड पूरे होते हैं वैसे ही कुलपतियों के सम्मान की स्थिति थी। चांसलर और वाइस चांसलर की अँग्रेजी व्याख्या से उलट कुलपति शब्द की भारतीय अवधारणा के सूत्र वशिष्ठ, संदीपन और द्रोणाचार्य जैसे प्राख्यात कुलगुरुओं के आश्रम से जुड़े हैं जहाँ राम, कृष्ण और अर्जुन जैसे धनुर्धरों ने शिक्षा पाई। सांस्कृतिक रूप से कुलपति शब्द की महत्ता राष्ट्रपति शब्द से किंचित भी कम नहीं।

प्रो. अमरनाथ झा जैसे विद्वान इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति थे, उनका इतना मान सम्मान था कि प्रधानमंत्री भी उनसे समय लेकर मिलते थे। वे पंडित नेहरू को न सिर्फ शैक्षणिक विषयों पर अपितु प्रशासनिक मामलों में अपनी राय देते थे। गलत लगने पर वे नेहरू की नीतियों पर सार्वजनिक टीकाटिप्पणी करने से भी नहीं चूकते। झा साहब बड़ा मान था, विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा की स्थिति यह थी कि हर अभिभावक अपने बच्चे का इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला चाहता था। यह विश्वविद्यालय भारत का आक्सफोर्ड था जहाँ से निकलने वाले छात्र राजनीति, प्रशासन, साहित्य,संस्कृति व अन्य क्षेत्रों में देश का नेतृत्व करते थे। अस्सी के दशक तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए अपने विद्यार्थियों को तैय्यार करने के लिए ख्यातनाम था। प्रयाग के आध्यात्मिक व सांसकृतिक संस्कारों से सिक्त इन मेधावियों की छाप प्रशासन के अलावा भी सार्वजनिक जीवन के विविध क्षेत्रों में देखने को मिलती रही।

आचार्य नरेन्द्र देव जैसे प्रखर समाजवादी चिंतक भी काशी विद्यापीठ व लखनऊ विवि. के कुलपति हुए। वे कांग्रेस व पं. नेहरू के प्रखर आलोचक थे, पर वे विश्वविद्यालय के कुलपति का दायित्व सँभालें यह आग्रह स्वयं पंडित नेहरू ने किया था। आज भी इन्हें के सर्वाधिक सम्मानित कुलपति के तौर पर याद किया जाता है। मध्यप्रदेश के विश्वविद्यालयों की कमान दो ऐसे विद्वानों ने सँभाली जो मुख्यमंत्री भी बने। सागर विश्वविद्यालय के कुलपति पं. द्वारका प्रसाद मिश्र रहे जबकि रीवा के अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति बनने का श्रेय पं. शंभूनाथ शुक्ल को गया। वे विध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी थे। पद्मभूषण पंडित कुंजीलाल दुबे मध्यप्रदेश के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष थे, वे इस पद पर दस साल रहे। नई पीढ़ी को यह जानना चाहिए कि श्री दुबे 1946 में नागपुर विश्विद्यालय के कुलपति बनाए गए थे। शिक्षाविद राजनेता का बड़ा सम्मान था। डा. राधाकृष्णन उच्चकोटि के शिक्षक और दार्शनिक थे, हमारे राष्ट्रपति बने। वह दौर राजनीति में विद्वता की प्रतिष्ठा का स्वर्ण काल था।

जैसा कि नाम से ही प्रकट है विश्विद्यालय माने ऐसे शैक्षणिक संस्थान जहाँ समूचे विश्व की विद्याओं का अध्ययन-अध्यापन हो। विश्वभर के अध्येता पढ़ने आएं। आजादी के बाद शुरू हुए हमारे विश्वविद्यालयों के सामने नालंदा और तक्षशिला दृष्टांन्त रहा होगा। चीनी अध्येता ह्वेनसांग नालंदा के विद्यार्थी रहे हैं। चाणक्य तक्षशिला में पढ़े भी और पढा़या भी। चाणक्य ने अपने शिष्यों को श्रेष्ठ प्रशासक और राजनायिक के रूप में गढ़ा जिन्होंने तीन चौथाई विश्व जीत चुके सिंकदर के पांव भारत में नहीं जमने दिए। सत्ता से स्वयं निरपेक्ष रहते हुए चाणक्य ने भारत को एक गणराज्य के रूप में स्थापित किया। प्रशासनिक रणनीति बनाने में अकादमिक योगदान का चाणक्य-चंद्रगुप्त से बढ़िया शायद ही कोई उदाहरण हो।

राजकाज में अकादमिक योगदान और उसके प्रतिफल देखने के लिए हमें ग्रीक और यूनानी दार्शनिकों, चिंतकों की ओर देखने की जरूरत नहीं। हमारे वैदिक वांग्यमय और पौराणिक आख्यानों में इसके सूत्र बिखरे पड़े हैं। ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की। पालनहार के नाते भगवान विष्णु को आप प्रधानमंत्री मान सकते हैं। उन्हें परामर्श देने के लिए सप्तर्षि मंडल था। ये सप्तर्षि परामर्श के साथ समय समय पर विष्णुजी को सचेत भी करते थे। विष्णुजी ईश्वर थे फिर भी सहिष्णुता की पराकाष्ठा यह ही थी कि छाती में ब्रह्मर्षि भृग के पद प्रहार के बाद भी प्रत्युत्तर में कहते हैं कि विप्रवर आपको चोट तो नहीं लगी क्योंकि कि मेरी छाती बज्र की भांति कठोर है।

आज की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में पदप्रहार तो दूर की बात, वाक्यप्रहार से ही तिलमिलाकर सत्ताएं जीभ खैंचने के लिए तैय्यार रहती हैं। नारद भी विष्णुजी के भक्त और सलाहकार थे। पर विश्वमोहिनी स्वयंवर में लगा कि विष्णुजी ने उनके साथ छल किया तो नारद ने ऐसा भीषण श्राप दिया जिसे राम बनकर उन्हें त्रेता में भोगना पड़ा, पत्नी के वियोग में। विष्णुजी परम पराक्रमी ..जैसा कि नारद ने उलाहना देते हुए कहा..परम सुतंत्र उपर कोउ नाहीं..वे चाहते तो नारद को सृष्टि निकाला दे सकते थे पर नारद की विद्वता व उनकी प्रतिष्ठा में उन्होंने कभी आँच नहीं आने दी।

ऋषियों, देवताओं, ईश्वर के बीच ऐसे वाद, विवाद, संवाद होते रहते थे लेकिन सब परस्पर एकदूसरे के लिए अपरिहार्य थे। स्तुति की जरूरत थी, तो निंदा और आलोचना की भी। सबका महत्व था। आज तो हाल ये कि …सिर्फ करते रहो वंदना, सत्य कहना समझना मना..।

अब तो राज चाहे किसी का हो असहिष्णुता सत्ता का मौलिक चरित्र बनती जा रही है। अपने देश में सन् बहत्तर के बाद से इस प्रवृत्ति को विस्तार ही मिलता गया। स्थिति यह बन गई कि प्रशासन में जो बौद्धिकों का दखल होता था वह मंद पड़ता गया और सलाह की जगह चापलूसी शुरू हो गई।

विश्वविद्यालयों के कुलपति और शैक्षणिक संस्थानों के प्रमुख योग्यता नहीं वरन चापलूसी के आधार पर तय होने लगे हैं। इसलिए एक जमाना वो था जब प्रधानमंत्री कुलपतिजी से मिलने जाया करते थे और आज का जमाना ये कि कुलपतियों का झुंड मंत्रियों के बँगलों में लाइन लगाए खड़ा है। अपने सूबे के एक उच्च शिक्षा मंत्री थे। वे नवरात्र में भंडारा करवाते थे, एक बार मैं भी उनके अनुष्ठान में पहुंचा और यह देखकर चकित रह गया कि विश्विद्यालयों के कई कुलपति भंडारे में पूड़ी -पंजीरी बांटनें में जुटे थे। शहर में कोई मंत्री आए तो स्वागत के लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बड़ी माला कुलपति महोदय लिए खड़े रहते हैं..क्या करिएगा।

हमारे चरित्र की ये पतनशीलता हमारी ओढी हुई है। ऐसे में यदि अफसोस मानें कि लोकप्रशासन में हमारी योग्यता की कोई पूछ परख नहीं तो ये गलत बात है। हम हर नकल पश्चिम की करते हैं पर अधकचरी। शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में भी नकल कर लें। अमेरिका दुनिया में इसलिये श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास श्रेष्ठ विश्विविद्यालय हैं। चीन इस श्रेष्ठता की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

अपने मध्यप्रदेश की बात करें तो राष्ट्रीय संस्थानों को अलग कर दें तो कोई ऐसे संस्थान नहीं जिनकी रैंकिंग देश में सौ के भीतर हो। देश के पैमाने पर तो दुनिया के श्रेष्ठ सौ संस्थानों में भी कोई नंबर नहीं लगता। यह हाल उस देश का है जो अपने गुरुकुलों, नालंदा, तक्षशिला विश्विद्यालयों की बदौलत विश्वगुरू रहा है।

यह विमर्श का विषय है कि क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था बौद्धिक परंपरा को पनपने नहीं देना चाहती? क्योंकि आमतौर पर यही आरोप लगता है कि राजनीति के बेजा दखल ने शैक्षणिक संस्थाओं का बेडा गर्क किया है।

जनप्रतिनिधियों के चुने जाने का आधार उनकी योग्यता नहीं अपितु ज्यादा से ज्यादा मत अर्जित करने का कौशल है। और यह कौशल जाति, संप्रदाय, बाहुबल, धनबल से आता है। इन्हीँ में से कोई शिक्षामंत्री भी बनता है। नीति नियंताओं में ऐसे ही लोगों का बहुमत होता है। यह भी विचारणीय तथ्य है। पर अमेरिका तो लोकतांत्रिक उदारता की पराकाष्ठा और चीन एक तरह से तानाशाह। पर शिक्षा के क्षेत्र में दोनों तेजी से आगे बढे हैं।

बौद्धिकों और शिक्षाविदों का काम पढाने के अलावा लोकशिक्षण का भी है। हमारे यहां के प्रायः बौद्धिक राजनीतिक धाराओं के पिट्ठू हैं। अब तो हाल यह कि राजनीतिक दलों की पर्चा बुलेटिन बनाने का काम भी यही देखते हैं। चुनावी लोकतंत्र को किसी के हक में कैसे प्रभावित किया जा सकता है हम यह भी लगातार देख रहे हैं। इनके लिए लोकजागरण राजनीतिक एजेंडा सेट करके उसके प्रपोगंडा का भोंपू बन जाना है।

पिछले सालों में ऐसे ही कई प्रदर्शन व अभियान देखने को मिले। जब असहिष्णुता के नाम पर हस्ताक्षर अभियान चलाए गए, अवार्ड वापिस किए गए। यही लोग माओवादियों, अलगाववादियों के मामले में चुप रहते हैं । थियामिन चौक में लोकतंत्र समर्थक छात्रों के नरसंहार को चीन का अंदरुनी मामला बताते हैं और जब कश्मीर में हिंसा भड़काने और जवानों पर पत्थर बरसाने वालों पर जरा सी भी कार्रवाई होती है तो ये चिंहुक उठते हैं। इसके उलट एक दूसरा वर्ग भी है। जो देश की हर मुसीबत की जड़ में सिर्फ मुसलमानों को देखने में जुटा है। दोनों धड़े इतिहास को अपने हिसाब से मथने में भिड़े हैं।

इस तरह प्रायः बौद्धिक खेमेबाजी में बंटे हैं । जो तटस्थ हैं उनकी कोई बखत व अपील नहीं। निजाम कभी अकल को पनाह नहीं देता क्योंकि वह खुद को सबसे ज्यादा अक्लमंद समझता है। वह बौद्धिकों को चाहता तो है पर अपने दरबारी की शक्ल में जो उसके हुक्म का हुक्का भरता रहे।

मध्यकाल में कबीर हुए, इब्राहीम लोधी जैसे निर्दयी और निरंकुश के शासनकाल में। काशी की गलियों में दादू, रैदास जैसे समकालीन बौद्धकों की मंडली लेकर लोकजागरण करते रहे निर्भयता के साथ।इस्लाम के निंदकों को खौलते कड़ाह में तलवा देने वाला इब्राहीम कबीर और उसके अनुयायियों का बाल बांका नहीं कर पाया। जानते हैं क्यों ..वो इसलिये कि लोक की ताकत से बड़ी बड़ी सल्तनतें घबराती हैं बशर्ते उसे जगाने वाला निजी स्वार्थों से निरपेक्ष हो।

तुलसी के प्रायः सभी समकालीनों को अकबर ने अपना दरबारी बना लिया। …माँगकर खाइबो मसीत में सोइबो कहते हुये तुलसी नहीं गए। तुलसी अपने आप में एक आंदोलन बन गए और सनातन मूल्यों की रक्षा की। यह कहना गलत है कि सत्ता का दवाब बुद्धि का गला चपा देता है। यह हम पर निर्भर करता है कि कितना दबते हैं। अब तो हाल यह है कि झुकने का इशारा मिलता है तो हम बिछ जाते हैं।

सवाल ये है कि पहले हम बौद्धिक कहलाने वाले वाले लोग खुद को नाप लें कि कितने पानी में हैं फिर तय करें कि शासन को लोकजयी बनाने की दिशा में क्या कर सकते हैं।