Science of Nests: लोक संस्कृति में रचा बसा एक पाखी ‘घुघूती’ (पंडुकी) उनके घोंसले और उड़ान 

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Science of Nests: लोक संस्कृति में रचा बसा एक पाखी ‘घुघूती’ (पंडुकी) उनके घोंसले और उड़ान 

घोंसलों का विज्ञान-3/ डॉ स्वाति तिवारी 

Story Of Ghughuti Uttarakhand. पहाड़ की परंपरा का पक्षी, हम सभी के बचपन का साथी..जानिए घुघूती की दिल छू लेने वाली कहानी. उत्तराखंड न्यूज. घुघूती पक्षी ...

इसकी कहानी शुरू होती है हमारे सरकारी बंगले के  मुख़्य दरवाजे से। शिमला की पहाड़ी का अनुभव देता भोपाल का चार इमली  इलाका। शहर का अति महत्वपूर्ण आवासीय क्षेत्र। हराभरा शहर से अपेक्षा कृत ऊंचा पहाड़ी पर बना सघन उपवन जैसा। हमारे  बंगलें के भी चारों तरफ हरियाली है, पर्यावरण से प्रेम तो बचपन से ही था पर यह घर जैसे प्रकृति की पाठशाला हो गया था। खूबसूरत गार्डन में रंग-बिरंगे परिंदों का डेरा है। आपकी आंख सुंदर पक्षियों के चहचहाने से खुले इससे सुखद क्या हो सकता है। मुझे यह कहते हुए गर्व होता है, पक्षी और पौधों पर यहाँ मैंने बहुत गहनता से कई अनुभव अध्ययन की तरह किये। पक्षी, उनके घोंसले, उड़ान जाने क्या क्या समझा। थोड़ी बहुत उनकी भाषा भी समझने लगी थी।
हमने भी अपने घर के पास खाली जमीन पर बगीचा और वाकिंग ट्रेक तैयार किया था, पौधों में पानी डालना मुझे बेहद पसंद है, शायद पंच तत्व से इसी कार्य को करते हुए मेरा सीधा संपर्क हो जाता है। पानी, हवा, धरती, आकाश और धूप और गर्म चाय की प्याली से अग्नि तत्व भी मिल ही जाता है। पक्षियों से याराना और संवाद यहीं से शुरू हुआ।

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हमारे मुख़्य दरवाजे पर सुबह की धूप में एक गुलाबी कबूतर का जोड़ा आ बैठता। कुछ देर बाद वह गेट से उतर कर बगीचे में वाकिंग ट्रेक और धूल भरी क्यारियों में भोजन की जुगत में नजर आता। गुलाबी रंगत, सुराहीदार गर्दन, भली-भली सी भोली-भाली सूरत और मासूम आँखें मुझे उसको देखते रहने को बाध्य करती।

धीरे धीरे हमारी पहचान कुछ इस तरह हो गई जैसे मॉर्निग वाक पर रोज ही दिखते अपरिचितों की होने लगती है, दोनों एक दूसरे की उपस्थिति से आश्वस्त होते, बात नहीं होती पर मुस्कान अभिवादन में बदलने लगती। मैं उसकी और टकटकी लगाती और वह मुझे आता देख पलट-पलट कर देखता जाता और टुक-टुक कर दाना चुगते हुए तेजी से आगे बढ़ जाता। वह सुन्दर सी चिड़िया ज्यादा पास आने पर पंख फड़फड़ाती उड़ जाती जैसे कह रही हो “बाय- बाय” कल मिलते हैं।

जब कभी समय मिलता मैं उस जोड़े को कुछ भात और रोटी के टुकड़े डाल उनकी गतिविधि देखती। वे मेरे भात या रोटी से ज्यादा प्रभावित नहीं होते। मन हो तो तुरंत आते नहीं तो जब कोई नहीं हो उस क्षेत्र में तब खाते। छुट्टी के दिन भरी दोपहरी में  फाख्ताओं की “टुटरू की टुर्र-टुर्र टुर्र-टुर्र” सी अपनत्व भरी आवाज मेरे कानों में गूंजती है, मुझे लगता मैं किसी जंगल में बैठी हूँ। एक दिन उसकी फोटो खींच कर फेसबुक पर पोस्ट  की तो पता चला ये श्रीमान श्रीमती फाख्ता हैं। बस अब तो लक्ष्य मिल गया फाख्ता अध्ययन का।

कबूतर प्रजाति का यह एक बहुत सुंदर पक्षी है, जो ललाई लिए भूरे रंग का होता है। फाख्ता पक्षी को आप अक्सर जमीन पर चलते हुए देख सकते हैं, यह जमीन पर पड़े हुए बीज और दाने खाना पसंद करता है, कभी कभी  छोटे कीट पतंगे भी खा लेता है। इसे भारत में कई नामों से जाना जाता है जैसे पर्की, चित्रोक, पंडुकी, परेई, पांडुक, पारावत, पिड़की, मंजुघोष और शांति कपोत, फाख्ता, फ़ाख़्ता, फाखता, फ़ाख़ता, ईंटाया, घूघी, धवँरखा, पंडक, पड़ुका, पण्डक, पेंड़की भी कहा जाता है। यह “घु.. घु” की आवाज़ निकलता है, इसीलिए इसका नाम घुघु पक्षी भी पड़ गया है, यह एक सुंदर और शोर करने वाला पक्षी होता है।

यह एक अद्भुत, बहुत ही प्यारा, सीधा साधा पक्षी है और इसकी सुरीली आवाज भी उतनी ही प्यारी लगती है। पहाड़ों के लोग जब मैदानी क्षेत्रों में रहते हैं तो वे घुघूती की आवाज सुनने के लिए तरस जाते हैं, कहा जाता है कि जो एक बार घुघुती के सुरीली घुरून (आवाज) सुन ले, वो कभी भी घुघुती को भूल नहीं सकता है और इसकी उस सुरीली आवाज को सुनने के लिए बार बार जी करता है। घुघु पक्षी की घुघूती का महत्व उत्तराखंड गढ़वाल-कुमाऊँ के लोक गीतों में देखा जा सकता है इसका जिक्र उत्तराखंड के विरह गीतों में, विवाह गीतों में और लोक कथाओं में जब मिलता है तो मन मोह लेता है।

चैत-बैसाख की बात हो और घुघुती की बात न हो, ऐसा नहीं हो सकता. लोक संस्कृति या लोक गीतों की बात हो और घुघुती का जिक्र न हो, ऐसा भी नहीं हो सकता. घुघुती हमारे लोक में रच-बस गयी एक चिड़िया (पक्षी) है, कहते हैं यह हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हो गयी है। शायद इसीलिए  कूर्माचल सांस्कृतिक परिषद, देहरादून ने अपनी स्मारिका को ‘घुघुती’ नाम दिया है. कुमाऊँ में मकर सक्रान्ति पर हर साल ‘घुघुतिया त्यार’ (त्यौहार) मनाने की परम्परा है. घुघुतिया पर्व  के दिन कुमाऊँ के घर-घर में गुड़ व आटे की घुघुती (शकरपारे की तरह का व्यंजन) बनाकर सरसों के तेल में तलकर चाव से खाया जाता है. वहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में माताएं अपने छोटे बच्चों को प्रसन्नता से छोटी-छोटी घुघुती बनाकर उसके बीच में एक छेद कर देती है एक प्रकार की माला बना देती है. बच्चे इनको अपने गले में टांगकर घूमते हैं।

लोक साहित्य में घुघुती कबूतर की तरह पत्रवाहक नहीं है, बल्कि यह सन्देशवाहक मानी गयी है;  ‘…उड़ि जा ऐ घुघुती न्हैं जा लदाख, हाल म्यरा बतै दिया म्यारा स्वामी पास…’ हो या ‘मेरी प्यारी घुघुती जैली, मेरी माँजी तैं पूछि ऐली…’ जैसे गीतों में शामिल है। उत्तराखंड के लोकगीतों में इसके बोलने को मायके से दूर ब्याही गई बेटी की विरह-वेदना से जोड़ा गया हैः

“घुघुती ना बासा, आमे कि डाई मा घुघुती ना बासा
घुघुती ना बासा, तेर घुरु घुरू सुनी मैं लागू उदासा
स्वामी मेरो परदेसा, बर्फीलो लदाखा, घुघुती ना बासा
घुघुती ना बासा, आमे कि डाई मा घुघुती ना बासा।”

(मत बोल घुघुती, आम की डाली पर, मत बोल. तेरी घुरु-घुरू सुन कर मेरा मन उदास हो जाता है, मत बोल घुघुती)

 एक लोकगीत है ….
घूर घुघूती घूर घूर
घूर घुघूती घूर,
मैत की नौराई लागी
मैत मेरो दूर।
यह प्रायः आबादी क्षेत्र के आस-पास ही पायी जाती है. परन्तु यह घोंसला घरों में नहीं प्रायः पेड़ों की डाल पर या छोटी झाड़ियों के ऊपर बनाती है. पेड़ की शाखाओं पर या छत की मुण्डेर पर या किसी तार पर जब यह अकेली उदास सी बैठी होकर कुछ गाती है तो उसका उच्चारण ‘घु-घू-ती’ प्रतीत होता है जिससे इसका नाम ही पड़ गया है ‘घुघूती’. वह तो अपने गीत में न जाने क्या कहती है, लेकिन उत्तराखंड के लोकगीतों में इसकी आवाज को मायके से दूर ब्याही गई बेटी की विरह-वेदना से जोड़ा गया है।

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी जी के संस्मरण में एक उत्तराखंड की लोक कथा पढ़ी थी। फाख्ते की यह मार्मिक कथा स्त्री मन की अनकही पीड़ा की हूक जैसी है – भै भुकी, मैं सिती. मतलब भाई भूखा रहा, मैं सोती रह गई. वहां चैत माह में भाई दूर ब्याही बहनों को कपड़े, रूपए, पैसे और पकवानों की भेंट देने के लिए जाते हैं. इस माह बहनें भाइयों का इंतजार करती हैं. यह परंपरा भिटौली कहलाती है. कहते हैं, प्राचीनकाल में एक भाई इसी तरह अपनी बड़ी बहन को भिटौली देने गया. नदी, घाटियां, पहाड़ और जंगल पार करके वह बहन के ससुराल पहुंचा तो देखा, उसकी बहन सोई हुई है. घर में बूढ़ी मां अकेली थी, इसलिए वह भिटौली (भाई द्वारा दी जानेवाली भेंट जिसे राजस्थान में बायना कहा जाता है) की टोकरी बहन के पास रख कर चुपचाप वापस लौट आया.

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सुबह बहन की नींद खुली तो उसने भिटौली देखी. भाई को वहां न पाकर वह परेशान हो गई. पता लगा, वह तो रात में ही वापस लौट गया था. बहन रो-रो कर कहने लगी- “भै भुकी, मैं सिती! भै भुकी मैं सिती!” (भाई भूखा रहा मैं सोती रह गई). और, एक दिन यही कहते-कहते उसके प्राण पखेरू उड़ गए. वह घुघुती चिड़िया बन गई और यही कहती रही- “भै भुकी मैं सिती! कुकु…कू…कू…कू!” तभी से यह चिड़िया बहनों के दुःख का दर्द भरा गीत गाकर रुलाती है।

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इन दिनों हमारे घर की दूसरी मंजिल की खिड़की पर यह विगत कई सालों से अपना घर बनाती है। पहली बार इसको तिनके ले जाते जब देखा था तो इसकी लगन देख कर आश्चर्यचकित रह गई थी उसे ना भात दिखता था ना कुछ और। सतत सूर्योदय से सूर्यास्त तक  तिनकों को ले जाती अथक परिश्रम करती पंडुकी मुझे गृहस्थी के लिए घर और घर के लिए श्रम का सन्देश देती। काम से थक कर जब धूप में भी तिनके ले जाती पंडुकी श्रमिक के उस खरे पसीने की महत्ता भी समझा देती।

मैंने देखा वह लम्बी-लम्बी लकड़ी गुलमोहर की पत्तियों  की शिराएं बीच से चोंच में दबाती फिर उड़ जाती। तिनका उठाकर वह पहले केबल के तार पर बैठती तब लगता जैसे कोई नट रस्सी पर बांस को पकड़े संतुलन साध रहा हो।  इसकी इसी गतिविधि की फोटोग्राफ़ी  की तो तिनका ले जाता फाख्ता साहित्यिक पत्रिका  “दूसरी परंपरा” का कवर पेज बन गया। इस चित्र पर पाठकों ने कहा इसकी सुन्दर मासूम आँखों में सृष्टि के सृजन का सुख, आशा और विश्वास की किरणें  दिखाई दे रही हैं।

यह  लिटिल ब्राउन डव यानी छोटा फाख्ता या पंडुक है. यह देखने में मैना के बराबर होता है यह भी घर-आंगन और बरामदों में चक्कर लगाता है और किसी ऊंची जगह पर बैठ कर धीरे-धीरे गाता रहता है. हमारी हंसी से मिलती-जुलती आवाज़ के कारण इसे ‘लाफिंग डव’ भी कहा जाता है. इस नन्हे फाख्ते का नामकरण खुद प्रसिद्ध प्रकृति विज्ञानी कार्ल लिनियस कर गए हैं. उन्होंने इसका नाम स्ट्रेप्टोपेलिया सेनेगालेंसिस रखा।

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मैंने देखा इसकी सहचरी खिड़की की कोने में बैठी लाये गए तिनके बड़े मनोयोग से जमाती जा रही थी। इसकी एक बड़ी खासियत है. वह यह कि प्यार के मौसम में यह मादा को रिझाने के लिए किसी ऊंची जगह से तेज आवाज में गीत गाता है- कुकु…कू! अगर मादा ध्यान न दे तो दिन भर भी रह-रह कर गाता रहता है. इसके अलावा मादा को चकित करने के लिए तालियों की फट-फट की तरह पंख फटफटा कर सीधे ऊपर आसमान में उड़ान भरता है. वहां से गोता लगा कर सर्पिलाकार चक्कर काटता हुआ नीचे चला आता है. अगर मादा रीझ गई तो उसके साथ जोड़ा बनाता है. प्यार करने के बाद उसे घोंसले के लायक जगहें दिखाता है. जगह पसंद आ जाने पर मादा वहां बैठ जाती है. नर फाख्ता पतली डंडियां, घास-फूस, पंख, रुई, ऊन, तार वगैरह ला-ला कर मादा को देता है. वह नीड़ का निर्माण करती है और उसमें दो सफेद अंडे दे देती है. दिन भर मादा अंडे सेती है. शाम होने पर पारी बदल करके रात भर नर फाख्ता अंडे सेता है. बच्चों का पालन-पोषण नर और मादा दोनों मिल कर करते हैं। उन्हीं दिनों सामनेवाले टेलीफोन के खम्बे पर भी एक बॉक्स नुमा  जगह में फाख्ता का घरौंदा देख रही हूं तो मन खुशी से आश्चर्यचकित है।

यह घरौंदा चित्रोखा फाख्ता यानी स्पाटेड डव का है। तब से आज तक कई बार इनको घर बनाते देखती रही हूँ, फाख्ता के बच्चों को पलते-बढ़ते देखना मुझे एक अलग आनंद देता है। वैसे यह कोई विशिष्ट रचनात्मक नीड नहीं बनता। फाख्ता पक्षी बहुत सामान्य से घोंसला बनाता है इसमें तिनकों का उपयोग किया जाता है यह अपना घोंसला किसी भी ऊंचे स्थान पर बना लेता है, नर घुघूती पक्षी और मादा दोनों ही अंडों को सेने और बच्चों को भोजन खिलाने का काम करते हैं, यह पक्षी दो हफ्तों तक अण्डों को सेता है। इस को हर स्थान पर देखा जा सकता है।

ये पक्षी मुख्यत: मनुष्य बस्तियों, तालाबों के किनारे या झील के आस-पास ही अपना घोंसला बनाते हैं, मकानों के छज्जे, मुंडेर, एंटीना, रोशनदान के शेड के एंगलों के बीच भी बैठे रहते है। ये अपने घोंसले पेड़ों की दो शाखा वाली टहनियों पर, झाड़ियों, घर के छतों व छज्जों पर, बगीचों में तथा खेतों के आस पास ही अपने घोंसले बनाते हैं। ये अपने घोंसले सामान्य ऊँचाई पर बनाते हैं, यह अपना सामान्य घोंसला बनाते हैं जिसमे ये घास-फूस, तिनकों, लकड़ी के टुकड़ों को रखकर अपना घोंसला बनाते हैं!