

फूलों की चीख: कनेर की ज़ुबानी, जब कनेर बोला: ‘मुझे भी जीने दो’
महेश बंसल का लेख
सुबह की सैर पर निकले महेश बाबू को मैंने पुकारा, “अरे महेश बाबू, ज़रा ठहरिए! क्या मेरी ओर एक नज़र भी नहीं डालेंगे?” वे चौंककर रुके और मेरी ओर देखने लगे। मैं, कनेर का पेड़, अपनी लालिमा बिखेरते फूलों के साथ खड़ा था, लेकिन मन में एक गहरी पीड़ा थी।
“आप अपने गमलों में लगे पौधों के कुछ फूल खिला देखकर कितने प्रसन्न होते हैं, उनकी तस्वीरें खींचते हैं, उन्हें सोशल मीडिया पर साझा करते हैं,” मैंने कहा। “लेकिन मैं यहाँ, घर की बाउंड्री पर, हर दिन राहगीरों की बेरुखी और निर्दयता का शिकार होता हूँ।” महेश बाबू ध्यान से सुनने लगे, और मैंने अपनी व्यथा जारी रखी। “मुझे ज़हरीला कहकर घर के बाहर लगाया जाता है ताकि जानवर मुझसे दूर रहें। लेकिन इंसानों का क्या? हर सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ने वाले आते हैं। वे मेरी शाखाओं को बेरहमी से खींचते हैं, लाठियों से मारते हैं, मेरी कोमल पंखुड़ियों को नोचते हैं। उन्हें अपने आनंद की परवाह है, लेकिन मेरे दर्द का एहसास नहीं।” महेश बाबू की आँखों में सहानुभूति झलकने लगी। मैंने अपनी बात आगे बढ़ाई। “क्या भगवान को प्रसन्न करने के लिए किसी और के दर्द की आवश्यकता है? क्या पूजा का अर्थ किसी की मेहनत और अस्तित्व को ठेस पहुँचाना है? मेरी यही प्रार्थना है कि लोग समझें, फूलों को उनकी शाखाओं पर मुस्कुराने दें, उन्हें तोड़कर उनकी हँसी न छीनें।” महेश बाबू ने मेरा चित्र लिया और वचन दिया कि वे मेरी व्यथा को सब तक पहुँचाएँगे। आज, मेरी यह कहानी आप तक पहुँची है, ताकि आप समझ सकें कि हर फूल, हर पौधा, अपनी कहानी कहता है। हमें चाहिए कि हम उनकी सुनें, समझें, और उन्हें उनके प्राकृतिक रूप में खिलने दें।
*बागवान की व्यथा*
सुबह-सुबह ओस से भीगे ताजे फूलों को देखकर मन खुश हो जाता है। लेकिन जैसे ही कोई राहगीर बाउंड्री के पास आता है, हल्की-सी चिंता घेर लेती है—”अरे, ये कहीं फूल तो नहीं तोड़ लेगा?” और फिर… ‘चटाक!’ फूल हाथ में और पौधा बेचारा झूलता रह जाता है! हम अपने प्यारे पौधों की देखभाल करते हैं, पानी देते हैं, खाद डालते हैं, और जब वे रंग-बिरंगे फूलों से मुस्कुराने लगते हैं, तभी कोई उन्हें बेरहमी से तोड़कर भगवान को चढ़ाने चल देता है! लेकिन क्या सच में भगवान खुश होते हैं किसी और की मेहनत पर डाका डालने से? ज़रा सोचिए! फूलों को तोड़ने से न केवल उनका जीवन खत्म हो जाता है, बल्कि पौधे भी कमजोर हो जाते हैं। उन तितलियों और मधुमक्खियों का सोचिए, जो पराग लेने आती हैं, उनका भी हक छीना जा रहा है! जो फूल हवा में झूम रहा था, सूरज से गपशप कर रहा था , सुवास एवं सौंदर्य से बागवान सहित राहगीरों को आनंदित कर रहा था, उसे भगवान को चढ़ाने के नाम पर तोड़कर उसका शेष जीवन भी समाप्त कर दिया जाता है। अपनी बगिया में खिल रहे फूल अवसाद को फटकने भी नहीं देते। फिर अल सुबह चाहे जो उन फूलों को तोड़ ले जाता है। उसे कोई मतलब नहीं कि इन फूलों को खिलने तक की यात्रा में हमने कितना परिश्रम किया है? बच्चों जैसा पाला पोसा है पौधों को, तब जाकर फूल खिलखिलाते है। फूल ही नहीं, मेरे यहां मीठा नीम का दस साल पुराना पौधा था। अल सुबह पांच बजे नींद में बाहर पौधे के समीप कुछ आवाज सुनाई दी, बाहर की लाइट चालू की , उठकर देखा तो एक महाशय बहुत सारी मीठे नीम की शाखाएं कंधे पर डाले दौड़ लगा रहे थे, शायद सब्जी बेचने वाला होगा। शाखाएं तोड़ने की ऐसी घटनाओं से वह पौधा अब नहीं रहा। इसी तरह कुछ बागवानी प्रेमी कटर साथ में लेकर चलते है। चलते रस्ते कोई भी मन को भाने वाला पौधा दिखा तो चुपके से उसकी कटिंग कर लें जाते है।
फूल तोड़ने वाले खुद से पूछें—क्या यह सच में ज़रूरी है? क्या मैं भगवान को बिना किसी की मेहनत पर अन्याय किए भी प्रसन्न नहीं कर सकता? यदि घर पर भगवान को फूल चढ़ाना इतना ही आवश्यक समझते है, तो अपने घर पर फूलों के पौधे लगाए।
फूलों का खिलना केवल देखने में सुंदरता नहीं बढ़ाता, बल्कि पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में भी सहायक होता है। जब कोई व्यक्ति भगवान को चढ़ाने के नाम पर इन्हें तोड़ता है, तो वह यह भूल जाता है कि भगवान को प्रसन्न करने के लिए प्रेम और करुणा की आवश्यकता होती है, न कि किसी और के पौधों को हानि पहुँचाने की। यकीन मानिए, जब आप किसी और के बगीचे को हरा-भरा रहने देंगे, तब भगवान भी मुस्कुराएँगे!
फूलों को खिलने दें, वे हमें खुशबू और सुंदरता प्रदान करते हैं। हमें प्रकृति की इस अनमोल देन की रक्षा करनी चाहिए और दूसरों को भी इसके प्रति जागरूक बनाना चाहिए। असली पूजा तभी होगी जब हम भगवान की बनाई सृष्टि का सम्मान करेंगे और पौधों को बिना क्षति पहुँचाए उनकी सुंदरता का आनंद लेंगे। हम फूलों को उनकी शाखाओं पर मुस्कुराने देंगे, उन्हें तोड़कर उनकी हँसी नहीं छीनेंगे।
महेश बंसल