Seeta Maata: सीतानवमी पर माँ सीता को जनक की बेटी की तरह याद करते हुए

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Seeta Maata:सीतानवमी पर माँ सीता को जनक की बेटी की तरह याद करते हुए

मनोज श्रीवास्तव

•जनकसुता- राजा (जनक) की बेटी।
क्या रावण को कभी लगा कि जिसको वह उठा के लाया है, वह भी किसी की बेटी है; कि जिनको वह उठा के लाया है, वे भी किन्हीं की बेटियां हैं।
कि जैसा साहिर ने कहा : ‘मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी / यशोदा की हमजिन्स राधा की बेटी/पयम्बर की उम्मत जुलैखा की बेटी।’
लेकिन रावण-दृष्टि तो दूसरी ही होती है। उसे तो बेटी के रूप में इनका ध्यान भी आए तो वैसे ही आएगा जैसे साहिर की एक नज़्म के जागीरदार को
“हाए वो गर्म- ओ-दिलावेज उबलते सीने/जिनसे हम सतवते-आबा का सिला लेते हैं/जाने इन मरमरीं जिस्मों को ये मरियल दहकान/कैसे इन तीरह घरौंदों में जनम देते हैं।’
सीता भी शब्दशः धरती की बेटी हैं। साहिर ऊपर की पंक्तियों में किसान की याद करते हैं तो सीता की प्रथमतम स्मृतियां भी कृषि से जुड़ी हुई हैं।
अथर्ववेद के कौशिक सूत्र के अनुसार : ‘कुमुद्धती पुस्करिणी सीता सर्वाङ्गशोभिनी/कृषिः सहस्रप्राकारा प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि’ अर्थात् कुमुदों और कमलों से सुशोभित सर्वांङ्गशोभिनी, सहस्रों प्रकार वाली कृषिरूपा यह व्यापक लक्ष्मी सीता निरन्तर मेरे साथ रहे। इसी में आगे यह भी कहा गया कि ‘उर्वी त्वाहुमर्नुष्याः श्रियं त्वा मनवो विदुः आशयेऽन्न्स्य नो धेहानमीवस्य शुष्मिणः’ अर्थात् सीता! मनुष्य तुम्हें उर्वी कहते हैं। मननशील लोग तुम्हें लक्ष्मी कहते हैं। हम लोगों के कोश में आरोग्यवर्धक और शक्तिशाली पर्याप्त अन्न प्रदान करो।
ऋग्वेद (4/57/6) में सीता के लिए कहा गया थाः ‘अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा।’
वाल्मीकि रामायण में स्वयं जनक कहते है “एक दिन में यज्ञ के लिए भूमिशोधन करते समय खेत में हल चला रहा था। उसी समय हल के अग्रभाग से जोती गयी भूमि (सीता) से एक कन्या प्रकट हुई। सीता (हल द्वारा खींची गई रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता विख्यात हुआ।”
‘अथ मे कृषतः क्षेत्रं लाङलादुत्थिता ततः/क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।’
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क्रिस्टोफर अंस्टी की कृषक-कन्या (Farmer’s Daughter) नामक कविता के ये शब्द शायद सीता के लिए ही कहे गए थे: “As soptless as the blooming flower/Which long unheeded grew/She little reck’d her beauty’s power/or e’er its dangers knew/Alas! She ne’er suspected ill/who never ill design’d / And void of art, ne’er knew the guile/of man’s degenerate mind.”
सीता प्रकृति की वैसी ही निर्दोष कन्या हैं जो रावण के द्वारा सिर्फ इसलिए अपहृत हुईं कि वो पूर्वानुमान नहीं कर पाई कि आदमी इतना गंदा भी हो सकता है।
सीता ‘सुता’ हैं, पुत्री हैं। सुता की व्युत्पत्ति यों है : ‘सूयते इति सुता, सुत्+टाप् वैदिक तत्सम्, सुवति इति सुतः’ (श्रीरस्वामी)। वैदिक साहित्य में ‘सुत’ का अर्थ है- निकला हुआ या प्रस्रवित रस। वैदिक साहित्य में सभी जगह ‘सुता’ का प्रयोग यज्ञ संदर्भ में ‘रस’ के अर्थ में हुआ है। कालान्तर में ‘सुता’ का अर्थ पुत्री हो गया। डॉ. मंजुला श्रीवास्तव का कथन है कि ‘रामायण में जिन मुख्य तीन राज परिवारों इक्ष्वाकु, वानर एवं राक्षस की कथा वर्णित है; उन तीनों में ही पुत्रियों का अभाव था।’ (वाल्मीकियुगीन भारत)। लेकिन शायद डॉ. श्रीवास्तव के ध्यान में यह ‘जनकसुता’ नहीं रहीं।
जनक ने पुत्री को अलग ही आदर्श दिये हैं। यह ध्यान दें कि सीता को हमेशा पिता का नाम ही मिला, मां का नहीं। पांडव तो पिता पांडु के नाम से जाने गए और मां के नाम से ‘कौंतेय’ के रूप में भी। पर सीता को वैदेही, जानकी, और जनकसुता तो कहा गया, कभी मां के नाम से नहीं पुकारा गया।
उस जमाने में आज की तरह श्रीमती राम कहने की प्रथा नहीं थी। स्त्री के व्यक्तित्व की इयत्ता का आदर था।
पिता के संस्कार लंका में काम आ रहे थे तो विभीषण ने उन्हें जनकसुता ही कहा। कुंअर बेचैन की कविता है ‘बेटियाँ भी जाने क्यों पिता को ही पहले याद करती हैं :
बेटियाँ/शीतल हवाएं हैं/जो पिता के घर बहुत दिन तक नहीं रहतीं/
ये तरल जल की परातें हैं/लाज की उजली कनातें हैं/
है पिता का घर हृदय जैसा/ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं।’
सीता ने पिता के घर में जो रूप हार्दिक स्वच्छता का वातावरण पाया था, रावण की लंका में उसके ठीक विपरीत कलुष और द्वेष का माहौल था। उनके तरल जल जैसे हृदय को वहां किसी शांति तरह का अनुभव नहीं हो सकता था। पति से वियुक्त सीता लंका में रह किस प्रकार सकती थीं?
राजा जनक की बेटी और इस पाप गृह में! इस पापोपवन में ! लंका में सीता की हर सांस शूलबिद्ध है। शिशिर की निष्पत्र शाख जैसे दिन हो गए हैं उनके। भयभीत अश्रुओं से सिक्त चेहरा है उनका। हैं वाटिका में, लेकिन जिन्दगी में कोई सुगंध नहीं रह गई है। दिल में बहुत से भँवर हैं। अम्बर की तरफ दृष्टि भी नहीं जाती। बेनूर और बेरंग हैं सुबह और शाम। सीता की इस त्रासदी को विभीषण ने कह सुनाया। सीता राजा की पुत्री हैं लेकिन वे रह किस प्रकार रही हैं? तुलसी ही बताए थे : “हारि परा खल बहु विधि, भय अरू प्रीति दिखाइ/तब असोक पादप तर, राखेसि जतन कराइ।।’ राजकन्या के ये हाल!
‘राजा की पुत्रियां’ कभी न्यू फ्रांस भी भेजी गई थीं। 1663 से 1673 के बीच 700 से 900 फ्रेंच स्त्रियों को शासन के द्वारा प्रायोजित कर क्यूबेक, मांट्रियल जैसी जगहों पर भेजा गया था ताकि वे वहां उपनिवेशन करने वाले फ्रेंच सैनिकों और किसानों से शादी कर सकें और न्यू फ्रांस को आबाद कर सकें। वे ‘राजा की पुत्रियाँ’ कहलाती थीं। उनमें से ज्यादातर गरीब थीं।
लुई चौदहवें के समय यह योजना चली थी। अब कहाँ वैराग्य की तपोमूर्ति राजा जनक और कहां लुई चतुर्दश जो विषयासक्ति का बड़ा उदाहरण माना जाता है।
कहां राजा जनक ने सीता को स्वयं पाला और शहरी और ग्रामीण फ्रांसीसी कन्याओं को धन के बल पर सिर्फ ढूंढ़कर एक अनजान प्रदेश भेज दिया।
जनकसुता और इन राजपुत्रियों के बीच बस यहाँ समानता थी कि दोनों को अनजान प्रदेशों में जाना पड़ा। एक को अपहृत कर ले जाया गया, दूसरों को प्रायोजित कर।
पालन-पोषण और प्रायोजन में फर्क होता है। जनकसुता जनकसुता रहीं और ‘राजा की बेटियां’ कभी व्यक्तिगत रूप से राजा की वात्सल्य-भाजन नहीं बन पाई। लेकिन टेस्टामेंट का वह वचन – ‘गो अहेड, माई डॉटर’ ( बुक आफ ट्रुथ) शायद दोनों के लिए अपनी-अपनी तरह से सच था।
सीता के लिए जनक लेकिन स्वयं एक प्रेरणा-पुंज थे जबकि उन फ्रांसीसी स्त्रियों के लिए ‘राजा की बेटियां’- ये शब्द मात्र उनके आप्रवासन की राजकीय स्पांसरिंग को स्पष्ट करने वाले शब्द थे, उससे ज्यादा नहीं। उनके साथ कोई नाम नहीं जुड़ा था लुई चौदहवें का। जबकि सीता उतनी ‘सुता’ थीं, जनक जितने पिता थे।
जनक ने आम पिताओं की तरह सीता को बहुत नियम नहीं सौंपे थे, लेकिन हर बच्ची की तरह सीता के लिए भी उसके पिता उसके प्रारंभिक नायक थे। जनक ने सीता को अनुशासन नहीं दिया था, उदाहरण दिया था। खुद की जीवन शैली से। क्लीयरेंस केलान्ड ने अपने पिता के बारे में यही लिखा था कि : “He did not tell me how to live; he lived, and let me watch him do it.” सीता के बचपन के आत्म-संदेहों को जनक के दर्शन ने दूर किया था। जनक के कारण हो सीता एक ऐसी स्त्री के रूप में विकसित हुईं जो रिलेशनल थीं और जो उन रिश्तों के द्वारा फेंकी गई चुनौतियों के निर्वहन में जीवन झोंक सकती थीं। जनक उनके पिता का नाम था और ऐसा था कि नाम से ही पितृत्व झलकता था। वे तब भी जनक थे जब सीता भूमिजा थीं। जनक में इतना पिता-पितापन था।
सीता में भूमिजा होने के कारण धरती-सा धैर्य भी रहा और जनकसुता होने के कारण वे एक गहरी आध्यात्मिकता से अनुस्यूत भी रहीं। नेचर और नर्चर, प्रकृति और पोषण दोनों के सर्वश्रेष्ठ का हासिल हैं सीता।
यदि ‘जनक’ शब्द ऐतिहासिक-पौराणिक अर्थ पर न जाएं तो सीता सिर्फ ‘पिता की बेटी’ (जनकसुता) हैं। या यदि जाएं भी तो जनक सिर्फ पिता हैं। उनका पितृत्व ही उनकी पहचान बन गया है। वे बस जनक हैं। बाप हैं। सीता उन्हीं के पुण्यों की प्रतिमूर्ति हैं : ‘जनक सुकृत मूरति बैदेही’ (बालकांड, 310, रामचरितमानस)।
जब सीता विवाहोपरांत पिता के घर से विदा हो रही होती हैं, तब तुलसी उनके पिता के परम वैराग्य, धैर्य और ज्ञान की महामर्यादा का उल्लेख करते हैं : ‘सीय बिलोकि धीरता भागी / रहे कहावत परम बिरागी/लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी/मिटी महामरजाद ग्यान की।’ उन जनकपुत्री सीता को लंका के वैभव में तिनके भर भी रुचि होना ही न थी। न हुई।
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मनोज श्रीवास्तव
वरिष्ठ साहित्यकार ,सेवा निवृत IAS अधिकारी ,भोपाल 
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