Lok Sabha Elections : 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मतदाता ने दिए साफ संकेत

चुनावों के संदेश को समझेंगे राजनीतिज्ञ और मीडिया के सयाने!

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Lok Sabha Elections : 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मतदाता ने दिए साफ संकेत

पांच राज्यों के मतदाता ने दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए अपने मन की बात उजागर कर दी है। 2024 में होने वाले आम चुनाव के संदर्भ में इसे देश के मतदाता की राय का संकेतक माना जा सकता है क्योंकि यह देश के तीन कोनों और मध्यभाग की जनता के मत की अभिव्यक्ति है। इसका अर्थ यह है कि उत्तर-पश्चिम के पंजाब से लेकर पूर्वोत्तर के मणिपुर, दक्षिण के गोवा, उत्तर के उत्तराखंड और मध्य के उत्तरप्रदेश तक लोगों ने राजनीति के परिवर्तन को स्वीकार किया है। पारंपरिक ढंग से राजनीति करने वालों को अब पसंद नहीं किया जाएगा।

नतीजे कुछ पंडितों को चौंकाने वाले हैं। आम आदमी नहीं चौंकता। इन पंडितों में कई वे लोग शामिल हैं जो मीडिया में बैठकर अपना दृष्टिकोण थोपते रहे हैं तो वास्तविकता से कटे हुए राजनीतिक नेता भी शामिल हैं। एक्जिट पोल के पहले तक बौद्धिक समाज का बड़ा तबका और मीडिया का एक हिस्सा लगातार उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ की जगह समाजवादी पार्टी के लौटने की हवा बना रहा था।

पंजाब में कांग्रेस के दलित प्रयोग को भी खूब बखाना रगया। एक्जिट पोल के आने पर यह वर्ग चौंका और उसके बाद दलीलें देनी शुरु की गईं कि महिलाओं के मत और लाभार्थियों के मौन समर्थन को हमने नहीं देखा। नहीं देखा या नहीं देखना चाहा, यह फैसला उन्हें ही करना है और उन्हें यह भी सोचना है कि एक नरेशन खड़ा करके हवा बनाने की कोशिश करके या वास्तविकता से आंखें मूंदकर वे अपनी विश्वसनीयता को कितना नुकसान पहुंचाते हैं। जनता के सोचने के तरीके को किसी एक खांचे में नहीं बांधना चाहिए और न ही अपनी विचारधारा के आधार पर राजनैतिक वास्तविकता को नकारना चाहिए, यह इन नतीजों ने सबक दिया है।

राजनीतिक पार्टियों के लिए हर चुनाव कुछ सबक छोड़कर जाता है। भारतीय जनता पार्टी के केन्द्र में सत्ता में आने के बाद और देश के आसेतु हिमालय सत्ता में छा जाने के कारणों पर ये लोग तभी चर्चा करते हैं जब वह चुनाव जीतती है अन्यथा उसकी राजनीति को नकारते रहते हैं। कई लोग सिद्धांतों की मृगछाया में जीते रहते हैं जो चुनावी नतीजों की रोशनी में घबराकर पिघलने लगती है। लेकिन वे हर चुनाव में यही नियति जीते हैं।

भारतीय जनता पार्टी की सफलता केवल उसके संगठनात्मक ढांचे अथवा मोदी के चमत्कार से जोड़कर देखना बड़ी भूल है। माना कि मोदी के व्यक्तित्व में लोकप्रिय नेता का जादू है, उनकी वक्तृता का मुकाबला नहीं है और उनकी नब्ज पर जबर्दस्त पकड़ भी है।

लेकिन समय के साथ राजनीति के बदलाव और उसके लिए अपने पुनराविष्कार की भी वृत्ति भाजपा को जीवनदान देती रही है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इसी पुनराविष्कार में चूककर खत्म होने की कगार पर पहुंच चुकी है। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी को वैकल्पिक पार्टी के रूप में इतनी सीटें मिली हैं। लोकतंत्र में दूसरे क्रम पर इसी स्थिति में पार्टी को लड़ना चाहिए और सदन में उपस्थिति दर्ज करानी चाहिए लेकिन वह अपने चरित्र में निहित दोषों की वजह से सत्ता से चूकी है।

कांग्रेस के बारे में हमें व्यापक चर्चा करनी चाहिए क्योंकि इस सबसे पुराने दल का चुनाव-दर-चुनाव क्षरण हो रहा है। अब उसके हाथ से एक और राज्य छिन गया। पंजाब में राहुल गांधी ने चुनाव के पहले काफी प्रयोग किए और दलित मुख्यमंत्री का चेहरा देकर देश भर में कांग्रेस के बदलाव का ढिंढोरा पीटा गया। मीडिया ने इसे मास्टर स्ट्रोक कहा लेकिन उसके अति दयनीय प्रदर्शन ने राहुल गांधी के तमाम करतबों को व्यर्थ सिद्ध कर दिया।

चरणजीत सिंह चन्नी

खुद मुख्यमंत्री पदे के उम्मीदवार चरणजीत सिंह चन्नी का दो-दो सीटों से हारना आखिर क्या सिद्ध करता है। उनकी बहन प्रियंका का उत्तरप्रदेश में नया अवतार माना जा रहा था और उन्होंने लड़की हूं-लड़ सकती हूं जैसे नए नारे और अधिक से अधिक महिलाओं को टिकट देकर नया चलन चलाना चाहा था। तब भी राज्य की जनता ने उसकी वापसी नहीं की। यहां तक कि उसे पिछले चुनाव से भी पीछे धकेल दिया। तो गांधी परिवार की यह राजकुमारी क्या नया कर सकी। उल्टे कांग्रेस की यह बंद मुट्ठी भी खुल गई।

कुल मिलाकर तो जनता ने पूरे गांधी परिवार को ही नकार दिया और संदेश यह दिया है कि गांधी परिवार अब प्रासंगिक नहीं है और सच में तो कांग्रेस का भविष्य भी नहीं है। गांधी परिवार का कार्ड इस तरह पहले कभी बेकार साबित नहीं हुआ। इस परिवार को अपनी रीति-नीति के बारे में पुनर्विचार करना चाहिए। जिसके लिए वह कभी तैयार नहीं है। जी-23 के नाम से विख्यात पार्टी के ही कतिपय नेता इन मसलों को उठाने का असफल प्रयास करते रहे हैं।

पंजाब में आप की हिमालयी विजय ने भी यही संदेश दिया है कि मतदाता को नई राजनीति की दरकार है। अकालियों की धर्म आधारित राजनीति और परिवार के हाथों में प्रदेश के सारे सूत्र समेट लेने की कार्रवाइयों से मतदाता आजिज आ चुका था। हरियाणा में यही चौटाला ने किया था। बाद में कांग्रेस ने पंजाब में सत्ता संभाली तो वह अपने वादे पूरे नहीं कर पाई और उसकी शैली से लोगों का इत्तेफाक नहीं रहा।

पंजाब के अनुभव ने एक बार यही साबित किया है कि कांग्रेस को उसके आलाकमान ने ही नष्ट किया है। आलाकमान का अर्थ इस समय सिर्फ गांधी परिवार से है। इसलिए पंजाब में लोग स्पष्ट तौर पर कहते थे-एक बार आप।

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इस चाहत में लोगों ने आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार भगवंत मान की तमाम कमजोरियों, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गलतियों और सरहदी राज्य की संवेदनशीलताओं को जानते हुए आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत से चुना है। यह इस पार्टी का देश की राजनीति में पहला बड़ा हस्तक्षेप है। वह केन्द्र शासित प्रदेश से निकलकर मुख्यधारा के पूर्ण राज्य में प्रवेश कर रही है। इस तरह, अब उसके पैर दिल्ली से देश की राजनीति के तरफ विस्तारित हुए हैं और यह तय है कि वह कांग्रेस को सबसे पहले विस्थापित करेगी। जहां-जहां क्षेत्रीय दल मजबूत हुए या मतदाता को वैकल्पिक पार्टी मिली है, कांग्रेस को पीछे धकेल दिया गया है।

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भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राजनीति के बदलाव को भांपने की समझ विकसित हुई है, (बंगाल में वह विफल हुई तो इसके अलग कारण हैं। ), उसका संगठन शास्त्र मजबूत है और उसने पारंपरिक वर्गों को जोड़ा है। उत्तरप्रदेश में लाभार्थी वर्ग खड़ा करना या महिलाओं को अपने पाले में लाने की सफल कोशिश उसके लिए नई जमीन तैयार करने की तरह था। इसके अलावा मुद्दों की सही पहचान भी चुनाव में मायने रखती है।

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अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी हो या पंजाब में बादल-अमरिंदर, परिवारों की पारंपरिक राजनीति को भी मतदाता ने खारिज कर दिया है। इन नतीजों से भारतीय जनता पार्टी 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए उत्साह से भर गई है। लेकिन क्या उसे मिलकर घेरने का प्रयास करने वाली तमाम विपक्षी पार्टियां इन परिणामों से कोई सबक लेंगी, यह देखा जाना है। हाल तक वे नकारात्मक विरोध और पारंपरिक राजनीतिक शैली के सहारे ही भाजपा को घेरने के प्रयास करती रही हैं। सपा, कांग्रेस और बंगाल के बाहर विस्तार की गरज से गोवा में पहली बार उतरी तृणमूल कांग्रेस की विफलता ने उनके लिए भी कई सवाल छोड़े हैं.