
Short Story: शोभा रानी तिवारी की दो लघुकथाएं
मेरे पापा ” लघुकथा”
” पापा वो पापा कहांँ हैं आप? मोहन ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू किया।”बेटा इतनी ऊंँची आवाज में क्यों बोल रहे हो”,? रघु ने मोहन से कहा…” मैं सुन रहा हूँ ,बोलो क्या बात है” ? “पापा मेरे सभी दोस्तों के पास रहने के लिए अच्छा मकान, घूमने के लिए गाड़ी और पहनने के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े हैं, और मेरे और मुन्नी के पास तो कुछ भी नहीं “?अरे बेटा! “तुम्हें तो पता है न ,कि तेरे पिता ऑफिस में चपरासी हैं, लेकिन मुझसे जितना हो सकता है मैं करता हूंँ। मैं ही जानता हूं कि घर का खर्च कैसे चलता है”? “मैं कुछ नहीं जानता पापा, इस बार जन्मदिन पर मुझे लैपटॉप चाहिए तो चाहिए”।
रघु ने कुछ न कहा ।मोहन ने एक-दो दिन तक अपने माता-पिता से बात तक नहीं की,और रात में गुस्से में सोचता रहा.. आखिर पापा अपने लिए अच्छे कपड़े क्यों नहीं बनवाते ?उनकी बंडी को देखकर मुझे शर्म आती है, उसमें कितने छेद हैं?आखिर ऐसा कपड़ा पहन कर लोगों को क्या दिखाना चाहते हैं? मांँ के लिए भी साड़ी क्यों नहीं लेते ?मुन्नी को तो मना लेते हैं ,क्योंकि वह छोटी है,लेकिन पर इस बार मैं नहीं मानने वाला ।
दरअसल हुआ यह कि,रघु जिस घर में रहता था वह रहन रखा था। रघु ने उसे छुड़वाने के लिए ऑफिस से लोन लिया था, इसलिये बहुत सा रूपया वेतन से कट जाता था। बच्चों की पढ़ाई के लिए ,और फिर घर का खर्च, मुश्किल से गुजा़रा होता था।इसलिए रघु ओवर टाइम भी काम करता था।
एक दिन मोहन जल्दी- जल्दी में पापा के जूता पहन लिया ,तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई ,क्योंकि जूते में तल्ला तो था ही नहीं।मोहन सोंचने लगा ,कि आखिर पापा इसे पहनते कैसे हैं?
एक दिन रघु आफिस से घर नहीं आया ,तो घर के सभी लोग घबरा गए,और ऑफिस जाने लगे, तभी सुरेंद्र अंकल ने बताया कि तुम्हारे पापा अचानक गिर पड़े, उन्हें हास्पिटल में भर्ती करवाया है ।सभी लोग हास्पिटल गए ।वहांँ पता चला कि, पापा का ब्लड प्रेशर बढ़ जाने से उन्हें चक्कर आ गया था।रघु को दवाई देकर घर भेज दिया गया।वहांँ ऑफिस वालों ने बताया कि, रघु ने ऑफिस से लोन लिया है और उसकी भरपाई के लिये वह रोज ओवर टाइम काम करता है।
जब मोहन को पिता की सच्चाई का पता चला तो वह दौड़कर पापा के पास गयाऔर पापा से लिपटकर रोने लगा कहा…”कि आज से आप काम नहीं करेंगे बल्किआराम करेंगे” ।”पापा मेरी सोंच ग़लत थी।मुझे माफ कर दीजिए,”।
“आज से मैं काम करूँगा, और मुझे कुछ नहीं चाहिए पापा”।
“अरे नहीं बेटा! अभी तो तुम्हें बहुत पढा़ई करनी है,और पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनना है”।
“बेटा जब तू कमाने लगेगा तो एक जोड़ी जूता अवश्य ले देना”।
मोहन कुछ न बोल पाया, केवल आंँखों से अश्रुधार बह रहे थे।
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लघुकथा- रिश्तों का बंधन

मांँ ” की मृत्यु के बाद ,रक्षाबंधन में पहली बार सुनीता अपने चार वर्ष के पुत्र देवांश के साथ,मायके जा रही थी ।अंदर ही अंदर एक अजीब सा डर और घबराहट थी।पता नहीं.. भैया और भाभी मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे? मेरा वैसा सम्मान होगा भी या नहीं…,जैसे मांँ के रहने पर होता था । स्टेशन पर उतरते ही, परिचित आवाज कानों में सुनाई दी,सुनीता… “मैं यहांँ ,सुनीता आओ”
” यह सामान मुझे दे दो “। भैया को देखकर सुनीता को अच्छा लगा। “कहो देवांश भांजे तुम कौन सी कक्षा में हो “? “मामा जी मैं K .Gमें हूंँ”।
‘ घर पर भाभी को इंतजार करते देखकर सुनीता की घबराहट कुछ कम हुई। भाभी ने सुनीता को वैसा ही प्यार किया , जैसा मॉ करती थी।
‘भैया ने दुलारते हुए कहा… “बहना..हमारे रहते हुए तुम अपने को कभी भी अकेला मत समझना”।
‘राखी का त्यौहार, वैसा ही मनाया गया ,जैसे मॉ के रहने पर मनाया जाता था। सुनीता ने अपने भैया की कलाई में रेशम की डोर कलाई पर बांँधकर माथे पर तिलक लगाया, आरती उतारी और मिठाई भी खिलाई तथा भैया की लम्बी आयु के लिए ईश्वर से प्रार्थना की।
‘सुनीता वहांँ दो दिन रूकी, और जब वह वापस जाने के लिए तैयार हुई ,तो भाभी ने बहुत सुंदर सी साड़ी और शगुन के दो हजार रूपए उसके हाथ में रख दिए । देवांश को भी कपड़े व रूपये दिए। भाभी और भैया का प्यार देखकर सुनीता की आँखें छलक गई। भाभी ने रास्ते के लिए टिफिन व मिठाइयांँ भी रख दी।’भैया उन्हें स्टेशन तक छोड़ने आए ।जब रास्ते में देवांश को भूख लगी और टिफिन खोला तो उसमें पूरी ,सब्जी , अचार तथा मठरी और मिठाइयांँ थीं। उस खाने से रिश्तों के मिठास की खुशबू आ रही थी ।

शोभा रानी तिवारी
619 अक्षत अपार्टमेंट,
खातीवाला टैंक इंदौर म. प्र.
8989409210





