श्रीकृष्ण ही हैं होली के महानायक, बसंत पुरूष की याद में मनाया जाने वाला भाव-रंगों का पर्व है होली
वरिष्ठ लेखक,कवि,पत्रकार चंद्रकांत अग्रवाल की कलम से
होली शब्द का विग्रह करें तो होगा हो + ली अर्थात किसी का हो जाना। प्रेम/समर्पण/ आत्मीयता व सेवा के भाव जगाने का मर्म अंर्तनिहित होता है होली में । वैसे भी हमारे सभी त्यौहार हमारी उदार सामाजिक व सांस्कृतिक बुनावट से उपजे हैं । दीपावली जहां अंधेरे पर उजाले की विजय का ऐसा पर्व हैं, जो राम जैसे उजास पुरूष की जय यात्रा का साक्षी हैं , तो रक्षाबंधन के पर्व में भाई-बहन के पवित्र रिश्ते की बुनियाद में हुमायूं और कर्णवती के महान रिश्ते की कहानी हैं। इसी तरह होली अपराजित आनंद के प्रतीक श्री कृष्ण जैसे बसंत पुरूष की याद में मनाया जाने वाला एक उदार सांस्कृतिक पर्व हैं । रंग अैार गुलाल का जन्मदिन हैं । सदियों पहले किसी पलाश के फूल को ब्रज की वीथियों से चुनकर एक नवयोवना ने उसके केसरिया रंग से एक सांवरिया को नहला दिया था। उस किशोरी की यह शरारत ही हमारी संस्कृति की महान धरोहर बन गई। राधा,कृष्ण की प्रेयसी मात्र बनकर नही रहीं , बल्कि देश में निश्चल प्रेम का संस्कार बन गई । समय आगे बढ़ा, संस्कृति और साहित्य के सरोकार बदले , अतीत नॉस्टेल्जिया लगने लगा।
प्रेम से भरे गारी गीतों की जगह मेडोना और ब्रिटनी के गानों ने ले ली । बसंत को बिसरा कर वेलेंटाइन को याद किया जाने लगा । पर होली जिंदा रही । रंग से जो परे है, वह रंगहीन नहीं, वह पारदर्शी होता हैं। वैराग्य यानी आप न तो कुछ रखते है और न ही कुछ परावर्तित करते हैं। अगर आप पारदर्शी हो गये हैं और आपके पीछे की कोई चीज लाल हैं, तो आप भी लाल हो जाते हैं। अगर नीली हैं तो आप भी नीले हो जाते हैं। आपके भीतर कोई पूर्वाग्रह होता ही नहीं।आप जहां भी होते हैं, उसी का हिस्सा हो जाते हैं। वह रंग एक पल के लिए भी आपसे चिपकता नहीं। आप केवल उसके ही नहीं होते हैं। आप सबके होते हैं । इसलिए अध्यात्म में वैराग्य पर ज्यादा जोर दिया जाता हैं। सृष्टि तो महज खेल है राग ओर रंगों का । फाल्गुन के महीने में यह खेल अपने चरम पर होता हैं। प्रकृति के मनोहरी व लुभावने रूप को निहार कर जीवोंं के भीतर राग हिलोरे लेने लगता हैं। असल मेंं तो ब्रह्माण्ड की किसी भी चीज में रंग नहीं हैं। पानी , हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन है। यहां तक कि जिन चीजों को आप देखते हैं, वे भी रंगहीन हैं। रंग केवल प्रकाश मेें होता हैं। रंग वह नहीं हैं, जो दिखता हैं, बल्कि वह है जो त्यागता है। आप जो रंग बिखेरते हैं, वही आपका रंग हो जायेगा।
जो अपने पास रख लेंगें, वह आपका रंग नहीं होगा। ठीक इसी तरह से जीवन में जो कुछ भी आप किसी को भी या समाज या देश को देते हैं, वही आपका गुण हो जाता हैं। होली पर रंगों की गहन साधना हमारी संवेदनाओं को भी उजला करती हैंं,क्योंकि होली बुराईयों के विरूद्ध उठा एक प्रयास हैं। इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता हैं और दूसरों का दुख दर्द बांटा जाता हैं। बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता हेैं। होली को आध्यात्मिक रंगों से खेलने की एक पूरी प्रक्रिया आचार्य महायज्ञ द्वारा प्रणित प्रेक्षाध्यान पद्धति में उपलब्ध हेैं। होली पर प्रेक्षाध्यान के ऐसे विशेष ध्यान आयोजित होते हैं। जिनके जरिए विभिन्न रंगों की होली खेली जा सकती हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारकावासियों , ब्रजवासियों, अपनी रानियों, पटरानियों एवं राधा के साथ होली मनाई और इसे प्रेम का उत्सव बना दिया। कई देवताओं ने इस होली के रंग का आनंद उठाया हैं। भूतभावन भगवान शंकर ने श्मशान की राख से होली खेली।
जहां देव होली खेलते हों वहां रंगों से मनुष्य कैसे अछूते रह सकते हैं। अत: पूर्णिमा को होलिका का पूजन और दहन करने के पश्चात फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को रंग गुलाल आदि से होली मनाई जाती हैं। जैमिनी और काठकगृह में वर्णित होने के कारण यह माना जाता हैं कि ईसा पूर्व कई शताब्दियों से ही होलाका उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र व भविष्योत्तर पुराण इसे बसंत से जोड़ते हैं। पूर्णिमांत गणना के अनुसार यह वर्ष के अंत में होता था। अत: होली का यह त्योहार हेमंत या पतझड़ के अंत की सूचना हैं और बसंत की काममय लीलाओं का संदेश। जीवों की सभी मानवीय कामनाओं का संदेश । होली की अग्नि को पवित्र माना जाता है। यह धर्म रूपी अग्नि है और यही वजह हैं कि लोग इसकी अग्नि से अपने घर का चूल्हा प्रज्जवलित करते है। इसकी अग्नि में नया पैदा हुआ अन्न सेंककर उसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं। होली की अग्नि में गाय के गोबर से बना नारियल चढ़ाया जाता हैं। गोबर से बने चक्र भी चढ़ाये जाते हैं। इस चक्र का आशय यही हैं कि जिस तरह भगवान विष्णु चक्र से अपने भक्तों की रक्षा करते हैं उसी तरह वे हमारी भी नृसिंह जैसा अवतार लेकर हिरण्यकश्यप जैसे दुष्टों से रक्षा करेें।
होलिका दहन से पूर्व उस पर कच्चा सूत लपेटा जाता हैं ताकि धर्म या सत्य रूपी प्रह्लाद की रक्षा हो सके। होली अगर अमर्यादित हो जाती तो शायद टेसू के फूलों का रंग सफेद होता , गुलाब काले होते, अबीर नीला होता , लेकिन ऐसा नही हुआ। होली तो मर्यादित रही लेकिन हम भटक गए । फिल्मों व मीडिया ने अब इसे पापुलर कल्चर बना दिया है। ऐसे कल्चर में परंपरावादिता भी होती हैं तो यथास्थितिवादिता के तत्व भी होते हैं। प्रतिरोधात्मकता /नकारात्मकता /शरारत व हास परिहास के अवसर भी होते ही हैं। कोई भी पापुलर कल्चर वैसे भी द्वंद्वात्मक /विरोधाभाषी / वैचारिक विषमता मूलक होता ही है । फिर हमारी सुविधाभोगिता की प्रवृत्ति इसे अपने पसंद के अनुसार रेखांकित कर देती हैं, कभी सकारात्मक रूप में तो कभी नकारात्मक रूप में । मैं नही समझता कि जिस तरह आज नगरों /महानगरों मे होली खेेली जाती है , उसका जिक्र हमारे किसी शास्त्र मेंं लिखा होगा ।
होली को रंगों का त्योहार कहा जाता है और रंगों की सीमा तो वैेसे ही अनंत होती हैं। आज तक कोई नही बताया पाया कि रंग कितने प्रकार के होते हैं। लाल ,पीले , नीले,हरे,काले इन्हें छोडिय़ेंं अब तो रंगों के लिए कई मुहावरे गढ़ लिए गए हैं वेस्टर्नकलर, ईस्टर्नकलर ,लाइटकलर आदि । फिर शेड्स तक बात पहुंच गई है । दो या दो से अधिक रंगों को मिलाकर नए= नए रंग तैयार किए जाने लगे हैं। जीवन के रंग भी इसी तरह नित नए शेड्स में हमारे सामने आने लगे हैं। प्रेम, समर्पण, सेवा, आत्मीयता ,उदारता ,त्याग आदि के परम्परावादी शेड्स तो बस किताबों में ही रह गए हैं । लालच ,स्वार्थ, द्वेष ,घृणा , क्रोध, काम , ईष्र्या आदि के कई नए शेड्स आजकल समाज में कहीं भी आसानी से देखे जा सकते है। अटल जी ने एक प्रधान मंत्री के रूप में मुझे भले ही प्रभावित न किया हो पर एक कवि के रूप में काफी प्रभावित किया है। उनकी संवेदनशीलता का एक आयाम देखिए, जो काफी प्रासंगिक लगता हेै मुझे- खून क्यों सफेद हो गया ?
भेद में अभेद हो गया।
बंट गए शहीद ,गीत कट गए,
कलेजे मेें कटार फंस गई।
दूध में दरार पड़ गई ।
खेतो में बारूदी गंध,
टूट गए नानक के छंद ,
सतलुज सहम उठी ,
व्यथित सी वितस्ता है।
बसंत से बहार झड़ गई,
दूध में दरार पड़ गई ।
अपनी ही छाया से बैर ,
गले लगाने लगे हैं गैर,
खुदखुशी का रास्ता ,
तुम्हें वतन का बास्ता,
बात बनाएं , बिगड़ गई,
दूध में दरार पड़ गई ।
यह राष्ट्रीय समरसता के दूध में पड़ी दरार ही हमारी सामाजिक ,राजनैतिक व आर्थिक जीवन की सबसे बड़ी मजबूरी हैं। इस दरार ने ही हमारे उन त्योहारों को व्यक्तिगत बना दिया हैे , जो सामाजिक / सार्वजनिक / मानसिक / आध्यात्मिक समरसता के संवाहक होते थे । पहले इतने रंग नही हुआ करते थे , जितने कि आज उपलब्ध हैं। पर पहले की होली प्राणवान,ऊर्जावान व बेमिसाल होती थी , क्योंकि तब हदय के भाव रंगों से खेली जाती थी होली। आज सिर्फ कृत्रिम रंगों को एक दूसरे के चेहरों पर लपेटने की एक औपचारिक त्योहारी रस्म मात्र ही बन गई है होली । होली जो काफी पहले ब्रज स्पेसिफिक होती थी , सिर्फ ब्रज में ही खेली जाती थी , धीरे धीरे पूरे देश में व विदेश तक पहुंच गई। पर क्या ब्रज की उस होली के भाव /संस्कार / ब्रज के बाहर जा सके? यदि गए भी तो आज वे किस स्थिति में हैं? होली के पर्व में देवता महानायक श्री कृष्ण माने जाते हैं। श्री कृष्ण ने अपने अलौकिक,अद्वितीय प्रेम के विविध रंगों की बोछारों से होली रची थी। उनके समक्ष गोप = गोपियों के रूप मेंं समर्पण /प्रेम / आत्मीयता / उदारता / त्याग के रंगों से रंगे हुरियारे थे । पर आज कहां मिलेंगे ऐसे हुरियारे ? ब्रज छोड़ श्रीकृष्ण मथुरा आ गए और फिर महाभारत के महानायक बने । आज तो हमारे परिवारों / समाज / देश में ब्रज की होली नही ,बल्कि कुरूक्षेत्र के महाभारत के संस्कार ही रग- रग में बस गए हैं । और ये संस्कार हैं,धर्म,नैतिकता,संस्कारों के सौदागरों का दुराग्रह पूर्ण देश विरोधी होलिका स्वरूपी दोहरा चरित्र,इंसानों द्वारा महाभारत काल से भी अधिक भयावह दानवीय हिंसा, राजनीतिक स्वार्थों के लिए किसी भी हद तक गिर जाने की शकुनी त्रासदी, छल, बाहुबल ,धनबल, से रक्षक से भक्षक बनने की दुर्योधनीय नैतिक गिरावट , कई जनसेवकों के भ्रष्टाचार के हिरण्यकश्यप बन जाने का विश्वासघात आदि । ऊपर से ट्रेजेडी यह है कि हमारे पास प्रेम का कृष्ण / समर्पण का कृष्ण भी नहीं है।
तब …. पुन: अटल जी की इन पंक्तियों से विराम देना चांहूगा- कौरव कौन ? पांडव कौन ? टेड़ा सवाल है। दोनों और शकुनी का फैला कूट जाल है। धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुएं की लत है , हर पंचायत में पांचाली अपमानित है , जब बिना कृष्ण के महाभारत होना है, कोई राजा बने , प्रजा को तो रोना है।।