चुप्पी सबसे बड़ा खतरा : मतदान से विमुख हो लोकतंत्र को न बनने दें तमाशा

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चुप्पी सबसे बड़ा खतरा : मतदान से विमुख हो लोकतंत्र को न बनने दें तमाशा

*प्रसंग-वश*

*वरिष्ठ लेखक,चिंतक,कवि चंद्रकांत अग्रवाल का कालम* 

त्रासदियों का द्वार बन गया,

दर्द वंदनवार बन गया।

अब सत्ता पाने के वास्ते,

लोकतंत्र औजार बन गया।

राजनीति के शीत युद्ध में,

धर्म तो तलवार बन गया।

अपनी 35 साल पुरानी एक गजल के ये शेर मुझे आज भी प्रासंगिक लगते हैं। लोकसभा चुनाव 2024 के दो चरण बीत चुके हैं। जिनमें हुए कम मतदान ने ही मुझे प्रेरित किया कि मैं कुछ लिखूं,मतदाताओं की इस चुप्पी पर,मतदाताओं के मतदान के प्रति उनके अनमनेपन पर। क्योंकि हमारे देश में, किसी भी मतदान का दिन भारतीय लोकतंत्र की दीवाली भी होती है और होली भी। ईद भी है ,क्रिसमस भी हैं और वैशाखी भी। क्योंकि पंथ चाहे जो हो उस पंथ की ईष्ट भक्ति व देशभक्ति दोनों ही परम सत्य हैं। लोकतंत्र के नाम पर आज देश भर में अमर्यादित राजनीतिक आचरण,तुष्टिकरण की राजनीति,राजनैतिक भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय चरित्र में आई भारी गिरावट, आम जनता को खासकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को मुफ्त की रेवड़ियां दिखाकर, बांटकर उस आधार पर तो कभी जातिवाद के आधार पर तो,कभी आरक्षण के आधार पर उनके वोट लेने का प्रयास करने, राजनीति को एक लाभप्रद व्यापार जैसा बना देने का शर्मनाक तमाशा सब देख रहे हैं, विगत कुछ दशकों से। यह परिदृश्य एक लोकतांत्रिक देश की दृष्टि से उत्तरोत्तर अधिकाधिक भयावह व शर्मनाक होता जा रहा है। ऐसे हालात में हमारे लोकतंत्र की परिभाषा कोई कैसे करे? अलबत्ता इस कैसे करे के सवाल पर अब मतदान के शेष चरणों के पूर्व,मतदान करने के पूर्व आत्मचिंतन जरूर कर सकता है हर सच्चा भारतीय। कर सकता है नहीं, उसे करना ही चाहिए। इसी बिन्दु से आज इस कॉलम की शुरूआत करना चाहता हूँ। आजादी के बीते 76 वर्षों में आजादी ने देश में हर वर्ग को खुशहाली नहीं दी, यह तो एक सर्वमान्य तथ्य ही हैं। पर जिस वर्ग को आजादी ने समृद्ध बनाया, उनके पास आज इस तरह की बातों के लिए समय नहीं है और उत्सव की उनकी परिभाषा ही बदल गई है।

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दूसरे एक अन्य बड़े वर्ग के मन में लोकतंत्र का यह मतदान पर्व उत्साह से मनाने की गहरी इच्छा तो है, परंतु वह मजबूर हैं, कहीं अपनी गरीबी के चलते तो कहीं अपने स्वार्थों के मायाजाल के चलते ।कहीं जातिवाद व संप्रदायवाद के जहर के चलते तो कहीं आतंकवाद के चलते । आतंकवाद सांप्रदायिक भी है और कहीं कहीं राजनैतिक भी। आज के दिन वह अपने अभावों और अवसरों की कमी पर रोएगा नहीं, शायद इसी तरह उत्सव मनाने के लिए वह बाध्य है आज। इसके अतिरिक्त एक मध्यम वर्ग भी है, जिसके पास अगर उत्सव मनाने की वजह नहीं है तो गमजदा होने का भी कारण नहीं है। इस मध्यम वर्ग की चिंताएं अलग किस्म की हैं। वह अब तक अंग्रेजों के जमाने की विक्टोरियन छद्म नैतिकता से मुक्त नहीं है। वह दो-ढाई सौ वर्ष बाद भी आध्यात्मिकता को अफीम की तरह चाटता है। कुंठाओं को पाल-पोसकर विकराल बनाने में उसे महारत हासिल है। इस वर्ग की बनावट रशियन गुड़िया की तरह है- गुड़िया के भीतर गुडिय़ा है। इसका एक टुकड़ा भ्रष्टाचार और उसके विरोध में आयोजित किसी आंदोलन से कोई महज परहेज नहीं करता। पाखंड उसका मुखौटा नहीं, उसकी आत्मा है, उसका केंचुल नहीं, उसका जहर है।

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पूरे देश की आबादी का अच्छा-खासा प्रतिशत जनजातियों का है, जिससे अब तक मीडिया भी एक सीमा तक अपरिचित है। वहां आज भी खतरों की सूचना नगाड़े पीटकर दी जाती है। विकास के नाम पर अनियोजित कार्य किए जाते हैं और हम जंगल खा रहे हैं, नदियां पी रहे हैं,अत: इस वर्ग का जीवन आधार सिकुड़ता जा रहा है। इस वर्ग के लाखों लोगों को तो आज भी मालूम भी नहीं होता कि चुनाव आकर चला गया। सूखी टहनियां सर्वत्र फहरा रही हैं- यही उनके लिए झंडा फहराना है। कभी-कभी कोई भूला -भटका मंत्री यहां आता है। विख्यात कवि धूमिल अपनी एक कविता में कहते हैं- एक पौधा लगाया और कहा वन महोत्सव? हमारे सारे कार्यक्रम इसी तरह रस्म अदायगी बनकर रह जाते हैं। आज चीन में भी विरोध की लहर हैं, परंतु वह दबाई जा रही है। वहां स्वतंत्र मीडिया नहीं है, पंरतु दमन-चक्र जारी है। हमारे दुश्मन दोस्त पड़ोस पाकिस्तान में विघटन की प्रक्रिया जारी है। उन्होंने विभाजन को विजय की तरह माना था, जबकि हिंदुस्तान में उसे एक दुर्घटना माना गया और गांधीजी ने तो उसे आध्यात्मिक त्रासदी कहा था। पाकिस्तान के स्कूलों में औरंगजेब को नायक की तरह पढ़ाया जाता है व हमारे स्कूलों में अकबर नायक है। वहां अदब की कक्षा इकबाल से शुरू होती है और शिक्षक गालिब को पढ़ाने में डरता है। दोनों ही देशों में पूर्वाग्रह, अहंकार और तर्कहीनता से रचा सच्चा- झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है। पाकिस्तान पंथ निरपेक्षता के अभाव में खंड- खंड बिखर रहा है और हमारे यहां भी कुछ शक्तियों द्वारा विगत दो दशक से ऐसे प्रयास हो रहे हैं कि पंथ निरपेक्षता के मार्ग को छोड़ दिया जाए। यहां मैंने धर्म के स्थान पर पंथ शब्द का उपयोग किया हैं। भागवत भास्कर रमेश भाई ओझा कहते हैं कि सेक्युर्लरिज्म के गलत अर्थ ने हमारे देश को नुकसान पहूंचाया है। पंथ निरपेक्ष शासन व्यवस्था हो पर धर्म रहित या धर्म निरपेक्ष शासन व्यवस्था नहीं होना चाहिए। क्योंकि धर्म तो प्राण वायु की तरह सबके लिए अनिवार्य हैं। धर्म का संबंध सत्य से होता है,पंथ से नहीं। सत्य का कोई पंथ नहीं होता पर हर पंथ का एक सत्य होता है। गंगा के घाट होते हैं, घाटों की गंगा नही। सभी संप्रदायों का अपना सत्य हैं पर सत्य का कोई संप्रदाय नहीं होता। अपने अपने घाट से सभी उसी गंगा में नहाते हैं।

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पर जिस तरह गंगा प्रवाह घाट से दूर हो गया तो सूने घाट का कोई महत्व नहीं । उसी तरह सत्य से दूर हुए पंथ की भी कोई महिमा नहीं रहती। एक बार मतदान के बाद उन्होनें कहा था कि अपना मत प्रत्याशी की क्षमता व उसके चरित्र को देखकर करना चाहिए। दोनों ही एक साथ होना जरूरी हैं। मेरी सोच भी यही है कि चुनाव में पार्टी से अधिक प्रत्याशी महत्वपूर्ण होता हैं, चाहे फिर वह किसी भी दल,धर्म या जाति से क्यों न जुड़ा हो। उसी तरह देश का नेतृत्व कोैन करेगा, यह भी बहुत महत्वपूर्ण सवाल होता हैं,जो हर मतदाता को अपने आप से जरूर पूछना चाहिए। पाकिस्तान में मजहब का काढ़ा पिलाया गया, यहां उसी का चरणामृत बांटा जा रहा है। हमने गणतंत्र व्यवस्था को जो एक समूचे वाक्य की तरह थी, अब तोड़कर शब्दों में बांट दिया है और संदर्भहीन शब्द प्राणहीन होते हैं। वर्तमान समय मुझे रायपुर के लेखक संजीव बख्शी के उपन्यास भूलन कांदा की याद भी दिलाता है। छत्तीसगढ़ में एक किंवंदती है कि मनुष्य का पैर भूलन कांदा पर पड़ता है तो वह स्मृति खोकर निश्चेष्ट खड़ा रह जाता है और उसे चहुं ओर घना मार्ग विहीन जंगल दिखाई देता है। ठीक इसी तरह की कथा स्कॉटलैंड में भी कही सुनी जाती है। कहते हैं कि ऐसी दशा में किसी अन्य व्यक्ति के स्पर्श से भूलन कांदा के प्रभाव से व्यक्ति मुक्त होता है। इस समय भारत भी भूलन कांदा के प्रभाव में लगता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत भूल चुका है और अब कठोर यथार्थ के स्पर्श से ही मुक्त हो सकता है। स्वामी विवेकानंद की ही तरह, बांग्ला के महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की चेतना भी विकसित थी और वह लोगों की मानसिक गुलामी से मुक्ति की महान आकांक्षा रखते थे। खुशहाली की कामना में वह समाज का जो खाका खींचते हैं, वह दुनिया भर के महानतम चिंतकों के लिए कमोबेश एक-सा ही रहा है। गीतांजलि में बहुत खरे-खरे शब्दों में उन्होंने कहा है:  IMG 20240507 WA0004

*चित्त जहां भयशून्य हो, ऊंचा रहे भाल,

हो जहां ज्ञान स्वतंत्र,

और दुनिया बंटी न हो छोटी-छोटी दीवारों में।

जहां हर शब्द सच की गहराइयों से जन्मे,

उत्साह हो सटीक सही सब-कुछ करने का हममें,

जहां न हो रूढिय़ों की सुनसान मरुभूमि,

सूखे न कभी जिसमें स्पष्ट विचार की धारा।

मस्तिष्क के आयाम खुलते हैं जहां, विचारों और कर्मों से और ऐसे ही स्वर्ग में जागे अपना देश।*

इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए महात्मा गांधी ने चारित्रिक दुर्बलताओं को खत्म करने के लिए सत्य और अहिंसा को सामाजिक उत्थान के औजार के रूप में विकसित किया। सच भी है-जो सत्य की राह पर और सद्चरित्र होगा, वही अपनी व देश की खुशहाली की रक्षा भी कर सकेगा। जरूरतों के वक्त दूसरों पर आश्रित व्यक्ति कभी भी आजाद नहीं कहला सकता। आजादी के बाद, देश के नवनिर्माण का दौर चला, पर राह में फिर कहीं ज्ञान-परंपरा का सोता सूखने लगा। समाज सामंती बंदिशों से निकल नहीं पाया और धीरे-धीरे उपभोक्ता संस्कृति के लपेटे में आ गया। यही कारण है कि राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने के बावजूद हम वह भारत नहीं बना सके, जिसका हमने स्वप्न देखा था। चारों तरफ भ्रष्टाचार का नंगा नाच है और नैतिकताएं किस्से- कहानियों की बातें हो गई हैं। सूरत,इंदौर,खजुराहो आदि क्षेत्रों में हुआ शर्मनाक पॉलिटिकल ड्रामा निश्चय ही भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी तो है ही,भारतीय राजनीति की नैतिक गिरावट के चरमोत्कर्ष की तरह भी लगती है मुझे। भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्यवाही हमेशा होती रहना चाहिए, चाहे भ्रष्टाचारी कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो। पर इन कार्यवाहियों में पारदर्शिता होनी चाहिए और ये राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होनी चाहिए। आज राजनीतिक रूप से हर तरफ डर,लालच का माहौल गहराया हुआ है। ऐसा भी लगता है मानों असहमतियों के स्वर दबाए जा रहे हैं। अगर हम फिर नए सपनों का भारत बनाना चाहते हैं तो आज फिर से हमें ज्ञान की ऐसी परंपरा का विकास करना होगा, जिसकी जड़ें अपनी धरती में हों, जो हमारे विचार, व्यवहार और समस्त जीवन में लोकतांत्रिक चेतना को विकसित करे और ऐसा माहौल बनाए हर तरफ, जिससे सच्ची मानवीय स्वतंत्रता की आकांक्षाएं फिर से पनप सकें। हम भारत वासी मिलकर पूरी दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र बनाते हैं, फिर भी कितनी अजीब बात है कि भारत का आम वोटर देश की राजनीति से विमुख रहता है। राजनीति उसे गलीज शब्द लगता है और इसलिए वह देश की राजनीति से विमुख रहता है। वह शुतुरमुर्ग बन नेताओं को गाली देता है, मगर वोट देते समय विवेक की जगह पार्टी, जाति, वर्ग और स्वार्थ से प्रभावित हो जाता है। चरित्रवान व सेवाभावी लोग राजनीति को बहुत गंदा बताकर अपने कर्तव्य को पूर्ण कर लेते हैं। एक अच्छे उम्मीदवार ,एक अच्छे पार्टी कार्यकर्ता,या एक जागरूक वोटर के रूप में उनको देश प्रेम व देशभक्ति के लिए अपनी कोई भूमिका दिखाई ही नहीं देती। शिक्षित युवाओं की बात करूं तो हममें से कितने हैं, जो वोट देना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं। विगत 76 सालों मेें व आज भी ऐसी कौन सी पार्टी हेै देश में जो सिर्फ चरित्रवान व कर्मयोगी उम्मीदवार देने का ही दावा कर सके,भले ही वह जीते या न जीते। वहीं एक प्रजातंत्र तब सफल माना जाएगा जब हर नागरिक अपने विवेक से वोट दे। लोगों के पास सुदृढ़ विचारधारा हो, विवेक हो तभी तो वह सत्ता को, देश को बेहतर बनाने के लिए चुनौती दे सकते हैं। साफ महसूस कर सकता हूं कि हमारी राजनीति अब नैतिकता और समाजोन्मुख नहीं रह गई है। यह वोट-बैंक और जाति-वर्ग के बल पर चलती है। विचारधाराएं समाप्त हो चुकी हैं। हमारे अधिकांश राजनेता परहित नहीं, स्वहित हेतु राजनीति में आते हैं। युवाओं की दखलंदाजी राजनीति में बस उतनी ही है, जितनी हो सकती थी, यानी कुछ युवा नेताओं को यह सौभाग्य मिलता है, जिनके माता-पिता,रिश्तेदार राजनीति में हों या जिन पर किसी बड़े नेता की कृपा दृष्टि हो या जो धन कुबेर हों। देश को लेकर मुझे प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस की उक्ति याद आती है-एक सुचारू रूप से शासित देश में गरीबी पर हमें शर्म करनी चाहिए और विषम रूप से शासित देश में अमीर होने पर शर्म करनी चाहिए। यूरोप के अधिकांश देशों में ग्लोबल होने के साथ-साथ संस्कृति और प्रकृति दोनों को सहेजा है। मैं ऐसे ही भारत का सपना देखता हूं जो संस्कृति-आधुनिकता का संगम हो। ताकि भारत वो भारत बन जाए, जहां कोई रात को भूखा न सोए व इटारसी जैसे देश के तीसरे सबसे बड़े जंक्शन इटारसी पर किसी रोटी बैंक को खोलने की जरूरत न पड़े, जहां गरीबों के नाम पर बनाया गया वातानुकूलित सर्वसुविधा युक्त रैनबसेरा बेघर व बेसहारा लोगों को आश्रय देने में नाकारा साबित न हो,जहां कोई पढ़ा लिखा युवा व अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा युवा बेरोजगार न हों, जहां सबको स्वास्थ्य ,शिक्षा,शुद्ध पेयजल,सांस लेने के लिए शुद्ध वायु को , जहां पर हर बच्चा काम करने की बजाय पढ़ सके, जहां पर हर इंसान सुरक्षित महसूस कर सके। सपनों के भारत का बखान कर लेने से तो ऐसा देश नहीं बनेगा, हमें अपने हाथों से इसे वह रूप देना है। अब चुनाव वह समय है कि जब हम अपने अधिकारों की मांग की जगह, एक सच्चे नागरिक के कर्तव्य भी निभाएं। भारत को जागरूक नागरिकों की ऐसी बड़ी संख्या में जरूरत है जो कि अपने कर्तव्यों को समझते हों तथा दूसरों को उनके नागरिक कर्तव्य, समझाने का बीड़ा उठाने की भौतिक सोच रखते हों। ऐसे में, मुझे एक चाय कंपनी का विज्ञापन बहुत अच्छा लगता है,

आपने भी देखा होगा- *जागो रे – जागो रे।* हमें बहुत गहरी संस्कृति और मानवता की जड़ें मिली हैं, इन्हें हम सींचेंगे तो विकास की नई शाखाएं निकलेंगी। भारत का आदर्श और स्वप्रिल स्वरूप हमें ही सृजित करना है। ऐसे में अल्बर्ट आइंस्टाइन की ये पंक्तियां मुझे हमेशा आदर्श को परिभाषित करने की प्रेरणा देती हैं- *आदर्श सपना होता है, पर इसे सत्य में बदलने के लिए कर्तव्य व कर्म जरूरी है।* जो आदर्श हमेशा मेरे सामने रहे हैं और जिन्होंने मुझे जीवन के आनंद से लबरेज किया हैं, वे हैं-अच्छाई-सुंदरता और सत्य। सभी का शत प्रतिशत मतदान इसी दिशा में होना चाहिए। आजाद होने और आदर्शवादी खुशहाल होने का फर्क हम अच्छी तरह समझ चुके हैं। इसलिए लोकतंत्र के इस पर्व चुनाव का जश्र मनाते हुए हमें यह सच सदैव याद रखना चाहिए कि हमें आजाद हुए भले हीं 76 साल हों गयें हों पर देश प्रेम, देश भक्ति , भारतीय संस्कृति व उसके संस्कारों, ज्ञान, चरित्र, नैतिकता, मानवता, पारदर्शिता, संवेदनशीलता, आदि के रंगों से बनी आदर्शवादी सार्थक खुशहाली अब तक नहीं मिल पाई हैं। आजादी प्राप्त करने के 76 वर्ष बाद भी यह हमारे लिए उतना ही शर्मनाक हैं,जितना गर्व हम अपनी 76 साल पुरानी आजादी का करते हैं। अत: हमें अब तो देश हित में,आम जनता के हित में,पूरी ईमानदारी से,अपनी पूरी ताकत से एक मतदाता के रूप में मुखर होना ही पड़ेगा,कर्म पथ पर गतिमान भी होना ही पड़ेगा, मतदान न करने,नोटा में देने या स्वार्थ या दबाव में देने की अपनी चुप्पी को तोड़ना ही पड़ेगा। कुछ इस तरह,जिस तरह कि,करीब बीस साल पहले मेरे द्वारा कभी कहीं पढ़ीं,एक कविता की इन पंक्तियों में

रेखांकित किया गया हैं-

चुप्पी सबसे बड़ा खतरा है,

जिंदा आदमी के लिए,

तुम नहीं जानते वह कब तुम्हारे

खिलाफ ही खड़ी हो जायेगी ,

और सर्वाधिक सुनाई देगी

तुम देखते हो एक गलत बात,

और खामोश रहते हो।

वे भी यही चाहते हैं,

इसलिए तारीफ करते हैं ,तुम्हारी चुप्पी की

पर यह भी सच है कि वे आवाज से बेतरह डरते हैं

इसलिए बोलो-अपने

हृदय की आवाज से,

अपने रक्त में गूंजते नगाड़ों की गरज से

आकाश की असमर्थ

खामोशी को चीरते हुए,

भले ही कानों पर पहरे हों,

जुबानों पर ताले हों,

भाषाएं बदल दी

गयी हों रातों-रात

आवाज अगर सचमुच

जिंदा आदमी की हैं

तो दब नहीं सकती,वह सतत आजाद हैं।

आपका मतदान ही आपकी आवाज है।