Silver Screen: समझ या मुद्दों से दूर, ये गुदगुदाती फिल्में

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Silver Screen

Silver Screen: समझ या मुद्दों से दूर, ये गुदगुदाती फिल्में

कॉमेडी फिल्में हर दौर में बनती रही हैं। लेकिन, समय के साथ इनका स्टाइल और पैटर्न बदलता रहा। ऐसी फिल्मों की कामयाबी इस बात निर्भर होती है, कि उसे दर्शक अपनी जिंदगी और उसकी उलझनों के कितना करीब पाते हैं। जो फ़िल्में ऐसा कर पाती है, वही दर्शकों का दिल भी जीतती है।

1958 में बनी देश की पहली कॉमेडी फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ को माना जा सकता है। ये एक म्यूजिकल कॉमेडी फिल्म थी, जिसके गीतों के बोल से भी खूबसूरत हास्य टपकता था। अशोक कुमार ने अपनी गंभीर अभिनेता की छवि को इसी फिल्म से तोड़ा था। इसके बाद समय-समय पर कॉमेडी फिल्में दर्शकों को गुदगुदाती रहीं। लेकिन, समय के साथ कॉमेडी का ट्रेंड बदला और दर्शकों की पसंद भी!

Silver Screen: समझ या मुद्दों से दूर, ये गुदगुदाती फिल्में

‘चलती का नाम गाड़ी’ में किशोर कुमार के साथ उनके दो भाई अशोक कुमार और अनूप कुमार ने भी काम किया था। यह फिल्‍म अपनी शैली की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसके विषय में ही हास्य समाहित था। इस फिल्म के पहले भी फिल्मों में कॉमेडी होती थी, पर पूरी तरह कॉमेडी फिल्में नहीं बनी। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग था, जो सफल रहा! इस फिल्म को कॉमेडी फिल्मों का ट्रेंड सेटर कहा जाता है। इसके बाद 1962 में आई फिल्म ‘हाफ टिकट’ में भी किशोर कुमार की एक्टिंग को लोग आज भी याद करते हैं।

    1968 में आई ‘पड़ोसन’ का कथानक भी हंसी-मजाक से भरा था। इस फिल्म के हर पात्र ने अपनी सहज कॉमेडी से दर्शकों को हंसने पर मजबूर किया था। इस फिल्म में नायक के पड़ौसी लड़की को प्रभावित करने और उससे प्रेम करने की कोशिश को बेहद चटपटे अंदाज में फिल्माया गया था। गाँव के गेटअप वाले भोले-भाले (सुनील दत्त) का दिल उनकी पड़ोसन बिंदू (सायरा बानो) पर आ जाता है।
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बिंदू को संगीत का शौक है, उसे संगीत सिखाने मास्टर बने थे महमूद, रोज आते हैं। ‘पड़ोसन’ का असली मजा किशोर कुमार और महमूद की संगीतमय जुगलबंदी था। किशोर और महमूद की खींचा-तानी ‘एक चतुर नार …’ और किशोर के गाए ‘मेरे सामने वाली खिड़की में…’ की मिठास भुला पाना मुश्किल है। इस फिल्म के गाने ही इसकी सबसे बड़ी खासियत रहे। इसके संगीत में भी शरारत थी, जो आरडी बर्मन की देन था।
    1972 में आई ‘बॉम्बे टू गोवा’ अमिताभ बच्चन के अभिनय वाली पहली फिल्म थी। ये फिल्म एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो एक हत्या की गवाह होने के बाद कश्मकश में है। बस में उसकी मुलाकात कंडक्टर अमिताभ बच्चन से होती है। यह एक ऐसी मजेदार सवारी बस होती है, जो भारत के विभिन्न धर्मों और मान्यताओं के लोगों को एक साथ लेकर शुरू होती है।
अमिताभ बच्चन के साथ एक रोमांचक सफर और शानदार गानों के साथ यह फिल्म काफी पसंद की गई! ऋषिकेश मुखर्जी की 1975 में आई ‘चुपके-चुपके’ को सिचुएशनल कॉमेडी की पहली फिल्म माना जा सकता है। इस फिल्म को देखते वक्त तो दर्शक हंसते ही हैं, बाद में भी फिल्म के दृश्य उन्हें गुदगुदाते हैं।
फिल्म में धर्मेंद्र का एक नया रूप दिखाई दिया था। प्रो परिमल त्रिपाठी बने धर्मेंद्र अपनी स्टाईल से दर्शकों को हंसाते हैं। फिल्म का हास्य तब चरम पर पहुंचता है, जब अंग्रेजी के प्रो सुकुमार सिन्हा (अमिताभ बच्चन) परिमल त्रिपाठी बनकर जया बच्चन को बॉटनी पढ़ाते हैं।
Silver Screen: समझ या मुद्दों से दूर, ये गुदगुदाती फिल्में
    ऋषिकेश मुखर्जी की 1979 की फिल्म ‘गोलमाल’ को भी बेस्ट कॉमेडी फिल्म माना जाता है। फिल्म की कॉमेडी उस पुरानी पीढ़ी पर है, जो रूढ़ियों और बासी परंपराओं की लकीर पीट रही है। इसमें अमोल पालेकर का ऐसा डबल रोल है, जिसने दर्शकों को हंसाता नहीं, गुदगुदाया भी है।
इस फिल्म में अमोल पालेकर ने पहली बार अपनी संजीदा पहचान से बाहर निकलकर कॉमेडी की थी। उन्होंने इस फिल्म में दो किरदार निभाए थे। राम प्रसाद और लक्ष्मण प्रसाद की यह भूमिकाएं अलग ही ढंग से दर्शकों को हंसातीं। सई परांजपे की 1981 में आई ‘चश्मे बद्दूर’ भी ऐसी फिल्म थी, जिसे आज भी याद किया जाता है। ये फिल्म तीन बेरोजगार लड़कों की कहानी है, जो नौकरी और छोकरी की तलाश में हैं।
नायक-नायिका की भूमिका में फारूक शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी भी खूब जमी है। इसके साथ ही सई परांजपे की ‘कथा’ भी अलग तरह की कॉमेडी फिल्म थी। गुलजार जैसे गंभीर फिल्मकार ने भी 1982 में ‘अंगूर’ बनाकर अपनी नई पहचान से दर्शकों को अवगत कराया था। यह कॉमेडी अंग्रेजी प्ले ‘कॉमेडी ऑफ इरर’ पर आधारित थी।
फिल्म का हास्य दो जुड़वां जोड़ियों के हमशक्ल होने की वजह से गढ़ा गया था। यहां एक जैसे चेहरे वाले दो आदमियों की दो जोड़ियां होती हैं। संजीव कुमार नौकर बने देवेन वर्मा के साथ उसी शहर में पहुंच जाते हैं, जहां पहले से ही संजीव कुमार और देवेन वर्मा की एक जोड़ी पहले से रह रही होती है।
   1983 की फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ राजनीति, मीडिया और नौकरशाही की बुराइयों पर एक सटीक व्यंग्य था। ये कॉमेडी सिनेमा की कालजयी फिल्म रही। इसका ‘महाभारत’ वाला क्लाइमैक्स हास्य का पिटारा था। फिल्म महज कॉमेडी नहीं थी, इसका हास्य का रंग अलग ही था।
 बासु चटर्जी को भी सहज हास्य फिल्मों के लिए पहचाना जाता है। उन्होंने छोटी सी बात, हमारी बहू अलका और ‘खट्टा-मीठा’ जैसी यादगार फ़िल्में बनाई। लेकिन, ‘चमेली की शादी’ की कहानी पक्के अखाड़े बाज पहलवान चरणदास (अनिल कपूर) और कल्लूमल की बेटी चमेली (अमृता सिंह) के बीच इश्कबाजी की थी।
फिल्म के गाने और फिल्मांकन गुदगुदाने वाला था। बासु चटर्जी की ‘छोटी-सी बात’ को मासूम कॉमेडी फिल्म कहा जाता है। फिल्म की कहानी अमोल पालेकर की है, जो प्यार तो विद्या सिन्हा से करता है लेकिन कभी उसे बता नहीं पाता। फिर उसकी जिंदगी में अशोक कुमार आते हैं, जो उसे अपना प्यार पाने के नुस्खे सिखाते हैं।
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    ‘हेराफेरी’ प्रियदर्शन की ऐसी कॉमेड़ी फिल्म थी, जिसने ‘बाबूराव आप्टे’ की भूमिका से परेश रावल का कद इतना ऊंचा उठा कि कॉमिडी में वह ब्रांड बन गए। इसी फिल्म ने अक्षय कुमार की कॉमिक टाइमिंग से परिचित करवाया। 2000 में परदे पर आई प्रियदर्शन की फिल्म ‘हेरा फेरी’ नए दौर की कॉमेडी को लेकर ट्रेंड सेटर फिल्म कही जा सकती है। इस फिल्म के बाद फिल्मकारों को जैसे कॉमेडी फिल्म बनाने का कोई नुस्खा मिल गया।
प्रियदर्शन ने भी इसके बाद इस शैली की कई फिल्में बनाई। फिल्म में अक्षय कुमार, परेश रावल और सुनील शेट्टी मुख्य भूमिका में हैं। फिल्म का हास्य नौसिखए लोगों द्वारा किडनैपिंग का एक अधकचरा प्लान बनाकर पैसे कमाने की मानसिकता से उपजता है। एक क्लासिक ‘हेराफेरी’ के बाद यहां भी ‘हंगामा’, ‘हलचल’, ‘गरम मसाला’, ‘भागमभाग’, ‘ढोल’ और ‘दे दना दन’ जैसी औसत या खराब फिल्मों की लंबी कतार है।
निर्देशक दिबाकर बनर्जी की पहली फिल्म ‘खोसला का घोंसला’ हिंदी सिनेमा की मॉडर्न क्लासिक कही जाती है। इस फिल्म में सिचुएशनल कॉमेडी है। दर्शकों को लगता है कि फिल्म का कथानक उनकी जिंदगी से कतरनों से गढ़ा गया है। दिबाकर बैनर्जी की यह फिल्म सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की परंपरा को आगे बढ़ाती है।
    1994 में आई ‘अंदाज अपना अपना’ उस दौर में आई थी, जब कॉमेडी फिल्में लगभग बंद हो गई थीं। राजकुमार संतोषी की यह फिल्म अपने अंदाज और कॉमेडी की परफेक्ट टाइमिंग से दर्शकों को हंसाती है। 2003 में आई फिल्म ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ एक बेहतरीन कॉमेडी फिल्म थी। इस फिल्म में संजय दत्त और अरशद वारसी की एक्टिंग को लोग आज भी याद करते हैं। तीन साल बाद 2006 में इसका सीक्वल ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ भी आया जो खूब चला!
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   अनीस बज्मी की 2005 की फिल्म ‘नो एंट्री’ का हास्य शादी के बाद बनने वाले अफेयर की वजह से शुरू होता है। फिल्म के पात्र अफेयर तो कर लेते हैं, पर उसे सही तरीके से हैंडल न कर पाने की वजह से उनकी हालत बेचारों जैसी हो जाती हैं। ‘क्या कूल हैं हम’ एक सेक्स कॉमेडी फिल्म थी।
इसे पहली सेक्स कॉमेडी फिल्म भी कहा जाता है। फिल्म का हास्य द्विअर्थी संवादों से रचा गया था। फिल्म में द्विअर्थी स्टाईल वाले जो संवाद छुपकर बोले जाते थे, इस फिल्‍म में उनका सरेआम प्रयोग हुआ। फिल्म के कई दृश्य वाकई हास्य पैदा करते हैं। युवाओं के बीच यह फिल्म खूब लोकप्रिय हुई।
पंकज पाराशर की ‘पीछा करो’ एक बेहतरीन हास्य फिल्म थी, लेकिन, वो दर्शकों की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। पंकज आडवाणी की रुकी फिल्म ‘उर्फ प्रोफेसर’ को कॉमेडी क्लासिक माना जाता है। कमल हासन की पुष्पक, मुम्बई एक्सप्रेस और ‘चाची 420’ भी पसंद की जाने वाली कॉमेडी फ़िल्में हैं।
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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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