Silver Screen: सिनेमा के परदे से उतरकर मंच पर चढ़े बड़े अभिनेता
हर चुनाव में राजनीति की दुनिया के साथ फ़िल्मी दुनिया में भी हलचल कम नहीं होती। लेकिन, कलाकारों की अपनी लोकप्रियता भुनाने की लहरें ठंडी भी नहीं जल्दी पड़ती है। बीते कुछ सालों पर सरसरी नजर डाली जाए, तो ऐसे कई फिल्म अभिनेताओं के नाम सामने आएंगे जो राजनीति में आए, चुनाव लड़े और जीते भी। पर जल्दी ही हाशिए पर चले गए। देखा जाए तो राजनीति में सफल होने वाले कलाकारों के नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा और सनी देओल जैसे कई सफल कलाकार हैं, जिन्हें राजनीति रास नहीं आई। इस बार कंगना रनौत, अरुण गोविल संसद में पहुंचे हैं। अब चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है, इनमें महाराष्ट्र भी है जो फिल्म इंडस्ट्री का गढ़ है। निश्चित रूप से इस चुनाव में भी कई सितारे उतरेंगे।
सिनेमा और राजनीति में अकसर सरोकारों की साझेदारी दिखाई देती रही है। इसलिए कि इन दोनों ही दुनिया में सब कुछ असमंजस भरा होता है। कल तक जिस अभिनेता की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाती रही, उसकी एक फ्लॉप फिल्म उसकी इमेज को ख़त्म कर देती है। यही स्थिति तो राजनीति में भी है। एक चुनावी हार नेता के राजनीतिक जीवन को रसातल में ले जाती है। दोनों ही दुनिया में सबसे बड़ी भूमिका उन लोगों की होती है जो उन्हें चाहते हैं। फ़िल्मी दुनिया में ये चाहने वाले दर्शक होते हैं और राजनीति में समर्थक। लेकिन, अब फिल्म और राजनीति की दोनों दुनिया एक-दूसरे में समाहित होती जा रही है। नेता तो फिल्मों के ग्लैमर की तरफ आकर्षित नहीं हो रहे, पर अभिनेताओं (अभिनेत्रियां भी) को राजनीति में जाने का चस्का जरूर लग गया।
ये ताजा शगल नहीं है, बरसों पहले से है, पर अब ये ज्यादा बढ़ गया। जिस अभिनेता की एक झलक पाने को दर्शक घंटों इंतजार करते थे, वही अभिनेता लोगों से वोट के लिए हाथ जोड़ने खड़ा होने लगा। सिनेमा और राजनीति में यही रिश्ता है। इनकी सिर्फ हिंदी फिल्मों में ही ये नहीं है। कुछ ऐसी ही कहानी दक्षिण भारत में कई सालों से पनप रही है। वहां एमजी रामचंद्रन, जय ललिता, एनटी रामाराव और एम करुणानिधि ने भी फिल्मों में झंडे गाड़ने के बाद दक्षिणी राज्यों में राजनीति की कमान संभाली। ये पहले जाने-माने अभिनेता रहे, फिर लोकप्रिय नेता। इस परंपरा को बाद में रजनीकांत और कमल हासन जैसे अभिनेताओं ने भी आगे बढ़ाना चाहा, पर वे कोई कमाल नहीं कर सके।
सवाल उठता है कि कोई लोकप्रिय अभिनेता राजनीति में क्यों आता है! दौलत और शौहरत की तो उसे कोई चाह नहीं होती, फिर वो राजनीति में क्या लेने आता है। उसने चाहने वालों की अथाह भीड़ भी देखी होती है, जो किसी नेता के समर्थकों से कहीं ज्यादा बड़ी होती है। सिर्फ समाजसेवा की इच्छा रखकर राजनीति में आने वाले सुनील दत्त जैसे अभिनेता तो अब बचे नहीं, जिनके दिल में समाज के प्रति कोई दर्द बसता है। उनके बाद अमिताभ बच्चन, राज बब्बर, शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, जयाप्रदा, जया बच्चन, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, गोविंदा, परेश रावल और मिथुन चक्रवर्ती जैसे कलाकार अपने समय काल में अपने मंतव्य से राजनीति में आए। इनमें से बहुत कम चले और जो नहीं चल सके, वे वापस लौट गए। इसलिए कि राजनीति का आशय सिर्फ अपनी फ़िल्मी लोकप्रियता के दम पर चुनाव जीतने तक सीमित नहीं है।
समाज सेवा के लिए आगे आना, फिर मंच से अपनी आवाज जनता तक पहुंचाना इसमें शामिल है। फिल्म से राजनीति में कई अभिनेता आए, कुछ की ईमानदारी पर लोगों को भरोसा भी रहा, पर उनकी पारी लम्बे समय तक नहीं चली। इस सबके बावजूद यह सवाल आज भी जिंदा है कि आखिर अभिनेताओं की राजनीति का असल मकसद क्या है? अभिनेता की अपनी अलग दुनिया है, चाहने वालों की भीड़ है, अथाह पैसा है फिर उसे राजनीति में ऐसा क्या मिलता है, जो पाने की उसकी चाहत ख़त्म नहीं होती।
राजनीतिक पार्टियों का नामी अभिनेताओं के प्रति सिर्फ इतना स्वार्थ होता है, कि उन्हें किसी मुश्किल सीट पर आसान जीत के लिए सामने लाया जाता है।सामान्य तौर पर चुनाव प्रचार में भीड़ जुटाने, किसी बड़े नेता के भाषण के पहले श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए अभिनेताओं को राजनीतिक पार्टियों से जोड़ा जाता है। लेकिन, बात यहीं ख़त्म नहीं होती। पार्टियों के लिए भीड़ जुटाने भी के अलावा इन सिनेमा के कलाकारों की भूमिका रही है। इनमें पुरुष कलाकारों के अलावा लोकप्रिय महिला अभिनेत्रियों ने भी राजनीति में अपने किरदार निभाए। दरअसल, किसी पार्टी का प्रचार भी जिम्मेदारी वाला काम है। आजकल राजनीतिक पार्टियों में स्टार प्रचारकों का दौर है, ऐसे में सिनेमा की ये हस्तियां ही अपने स्टार पावर का असर दिखाती है।
फिल्म और राजनीति ये दोनों ही ऐसी दुनिया है कि यदि इनमें संभलकर चलें तो जनता सिर पर बैठाती है। लेकिन, जरा चूके तो सारी लोकप्रियता धराशायी होते देर नहीं लगती। यही वजह है कि अपनी प्रसिद्धि को देखते हुए फिल्मों के कलाकार राजनीति में आ तो जाते हैं, पर कम ही लंबी पारी खेल पाने में सक्षम होते हैं। हिंदी फिल्मों के ऐसे कलाकारों में सुनील दत्त, हेमा मालिनी और स्मृति ईरानी ही हैं, जो कई बार चुनाव जीते और अपनी जगह बनाकर रखी। लेकिन अमिताभ बच्चन, गोविंदा, विनोद खन्ना, राज बब्बर, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा, राजेश खन्ना, मिथुन चक्रवर्ती और परेश रावल हिंदी फिल्मों के ऐसे कलाकार हैं, जो राजनीति में लंबी पारी नहीं खेल पाए! इसलिए कि उन्होंने अपनी फ़िल्मी लोकप्रियता को राजनीति में भुनाने की कोशिश की, जो जनता को रास नहीं आई। कभी वे खुद राजनीति से हट गए, कभी जनता दिया।
कुछ पार्टियों ने अपनी साख की खातिर कुछ अभिनेताओं या अभिनेत्रियों को राज्यसभा में शोभा की सुपारी बनाकर रखा है। जया बच्चन और जया प्रदा ऐसी ही अभिनेत्रियां रहीं, जिनका राजनीतिक पार्टियों ने चुनावी राजनीति से अलग रखकर राज्यसभा में अपनी पहचान बनाने के उपयोग किया। पहले यही काम राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत राज्यसभा सीटों पर सत्ताधारी पार्टी करती रही है। नरगिस, दिलीप कुमार और रेखा जैसे कलाकारों को भी इसी रास्ते संसद में भेजा गया था।
यह भी नहीं कि जिस कलाकार को पर्दे पर लोकप्रियता मिली उसे जनता ने भी हाथों-हाथ लिया। राजेश खन्ना, उर्मिला मातोंडकर, राज बब्बर, नगमा जैसे कई नाम हैं, जिन्हें वोटर्स ने नकारकर उनका ये मुगालता दूर कर दिया कि वे लोगों के दिलों पर राज करते हैं। धर्मेंद्र, सनी देओल, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा और गोविंदा ऐसे अभिनेता हैं, जिनका राजनीति से जल्दी मन उचाट हुआ। लेकिन, हेमा मालिनी और जया बच्चन को राजनीति ज्यादा ही रास आई। ऐसा नहीं कि सिर्फ हिंदी फिल्मों के कलाकार ही राजनीति की तरफ आकर्षित होते हैं। ये चलन दक्षिण भारतीय फिल्मों में कुछ ज्यादा ही पनपा और तीन-चार अभिनेता तो मुख्यमंत्री कुर्सी तक पहुंचे। एमजी रामचंद्रन, करुणाकरन, जय ललिता और एनटी रामाराव की फिल्मों के बाद राजनीतिक सफलता किसी से छुपी नहीं है।
इसके अलावा भोजपुरी के बड़े कलाकार मनोज तिवारी और रवि किशन भी राजनीति में उतरे और सफल रहे। सफलता और असफलता का ये चक्र अंतहीन है। दरअसल, फिल्म के परदे की अपनी अलग ही दुनिया है। यहां सफलता पर दर्शकों की तालियों की गूंज बार-बार सुनाई देती है। लेकिन, अभिनेता से नेता बनने के बाद मन में दबी-छुपी आशंकाएं जन्म लेती हैं। ऐसे में अपनों से टकराहट, शिकायत और उलाहने के दौर के बीच की भी एक दुनिया होती है, जहां कई बार कोई साथ नहीं होता। अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना के राजनीति में आने और फिर लौटने के बाद उनकी छटपटाहट को आसानी से समझा जा सकता है।