Silver Screen: पांच दशक बाद भी बूढी नहीं हुई बॉबी!’ 

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Silver Screen: पांच दशक बाद भी बूढी नहीं हुई बॉबी!’ 

‘आई एम बॉबी, मुझसे दोस्ती करोगे!’ ये कहती डिम्पल कपाडिया को 1973 में जिस किसी ने भी देखा ,देखता ही रह गया। उनके लिए यह देखना सुनना, देखना अपने आप में बिल्कुल नया अनुभव था। क्योंकि, इससे पहले परदे पर जितनी भी नायिकाएं प्रेम करती दिखाई देती रहीं, कोई भी कमसिन नहीं, बल्कि उम्रदराज थी। ‘बॉबी’ ने परदे पर प्रेमिका की छवि को खंडित करके टीनएजर नायिका की जो छवि गढी, वह 50 साल बाद भी बरकरार है। ‘बॉबी’ को परदे पर आए 50 साल पूरे हो गए! जमाना बहुत आगे निकल गया। बॉबी की भूमिका निभाने वाली नायिका डिम्पल कपाडिया खुद 66 साल की हो गई, लेकिन परदे की ‘बॉबी’ आज भी किशोर और नवयौवना ही है। ’बॉबी’ 20वीं सदी में बनी थी। फिल्म का एक संवाद था ’मैं 21वीं सदी की लड़की हूं, कोई मुझे हाथ नहीं लगा सकता। जब ऋषि कपूर उन्हें टोकते हैं, कि अभी तो 20वीं सदी चल रही है, तो नायिका कहती है कि ’बूढ़ी हो गई 20वीं सदी और मैं अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद करना जानती हूं।’

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इस फिल्म की खासियत यह भी थी कि बॉबी ब्रगेंज़ा का 50 साल बाद भी क्रेज़ बना है। ये ऐसी टीनएज प्रेम कहानी है, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका अलग-अलग वर्ग से थे। हीरो राजा (ऋषि कपूर) अमीर हिंदू अमीर परिवार से था और हीरोइन ‘बॉबी’ (डिम्पल कपाड़िया) थी मछुआरा परिवार की ईसाई लड़की। वास्तव में तो ये युवाओं के लिए हवा के झोंके की तरह की फिल्म थी, जिन्हें अपने प्रेम को लेकर एक प्रेरणा की जरुरत थी। राज कपूर को फिल्मकारों की जमात में हमेशा ही क्रांतिकारी माना जाता रहा, जिन्होंने कहानियों में नए प्रयोग किए और सामाजिक मान्यताओं के चक्रव्यहू में सेंध लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 1973 में आई ’बॉबी’ भी ऐसी ही थी, जिसने प्रेम के बंधन की गांठों को खोल दिया था। इस फिल्म में इतनी सारी खूबियां थी, कि जिसकी गिनती नहीं की जा सकती। राज कपूर ने अपना सारा फ़िल्मी अनुभव इसमें झोंक दिया था। सबसे ख़ास बात रही बिलकुल नई जोड़ी। ऋषि कपूर पहले ’मेरा नाम जोकर’ में राज कपूर के बचपन की भूमिका निभा चुके थे, पर बतौर नायक ये उनकी पहली फिल्म रही। जबकि, डिंपल कपाड़िया तो बिल्कुल नया चेहरा था। जिसका कोई फ़िल्मी बैक ग्राउंड भी नहीं था। लेकिन, नई जोड़ी ने जो कमाल किया, उसे आज भी भुलाया नहीं गया

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’मेरा नाम जोकर’ से चोट खाए राज कपूर को इस फिल्म पर इतना भरोसा था कि उन्होंने किसी प्रयोग को नहीं छोड़ा। ’बॉबी’ का नॉस्टेलजिया आज भी जिंदा है और ये कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में दिखाई देता रहता है। ’अंदर से कोई बाहर न आ सके’ गाने की शूटिंग कश्मीर की जिस होटल के रूम में हुई थी, वो आज भी ’बॉबी हट ’ कहा जाता है और होटल में ठहरने वालों को उसे होटल की प्रतिष्ठा के रूप में दिखाया जाता है। फिल्म के पहले शो से जिस तरह की हाइप बनी, उससे फिर राज कपूर का सिक्का चल पड़ा। जो लोग ’मेरा नाम जोकर’ के फ्लॉप होने के बाद उन्हें साइड लाइन करने लगे थे, वे फिर उनके आस-पास सिमट आए। फिल्म की अल्हड़ प्रेम कथा ने ऐसा जादू चलाया कि राज कपूर के सारे कर्जे उतर गए, जो पिछली फ्लॉप फिल्म के कारण उन पर चढ़े थे। ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा ’खुल्लम खुल्ला’ में भी फिल्म की सफलता का जिक्र करते हुए लिखा है कि ’सिनेमा को लेकर राज कपूर का जुनून ऐसा था, कि फ़िल्मों से की हुई सारी कमाई वो फ़िल्मों में ही लगा देते थे।

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’मेरा नाम जोकर’ के बाद आरके स्टूडियो गिरवी रखा जा चुका था। ’बॉबी’ की सफलता के बाद उन्होंने अपना गिरवी घर मुक्त कराया। लगता था यह फिल्म आरके बैनर को उभारने के लिए बनाई गई थी, मुझे लॉन्च करने के लिए नहीं। ये फ़िल्म हीरोइन पर केंद्रित थी, जब डिंपल की तलाश पूरी हुई, तब मैं बाय डिफ़ॉल्ट हीरो चुन लिया गया। ये बात और है कि सारा क्रेडिट मुझे मिला, क्योंकि डिंपल की शादी हो गई और फ़िल्म हिट होने पर मुझे वाहवाही मिल गई!’ सत्तर के दशक वाले दर्शक जानते हैं, कि ’बॉबी’ से पहले फिल्मों में जो प्रेम कहानियां बनती रही, वे मैच्योर प्रेम पर केंद्रित थीं। लेकिन, ये संभवतः पहली ऐसी प्रेम कथा थी, जो कम उम्र की जवानी का जोश, विद्रोह, मासूमियत और बेपरवाह मोहब्बत का मिश्रण था। ’बॉबी’ की कहानी ने कहां और कैसे जन्म लिया, इसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प और अविश्वसनीय है। दरअसल, एक कॉमिक्स में राज कपूर ने एक बाप-बेटे की कहानी पढ़ी, जिसमें बाप अपने बेटे से कहता है ’क्या यह उम्र है तुम्हारी प्यार करने की!’ ये संवाद राज कपूर के दिमाग में इस तरह बैठ गया कि उन्होंने फिल्म का प्लॉट गढ़ लिया। इतना ही नहीं उन्होने गीतकार विठ्ठल भाई पटेल से एक गीत भी लिखवा लिया ‘वो कहते हैं हमसे अभी उमर नही है प्यार की’ और खुद ही इसकी धुन भी बना डाली। उनका आइडिया था कि ऐसी फ़िल्म बनाई जाए, जिसके बारे में दर्शक कहें कि यह भी कोई उम्र है प्यार करने की! यह बात अलग है कि यह गीत फिल्म में शामिल न हो सका। लेकिन, तब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के सहायक रहे राजेश रोशन ने इसे इंदीवर के नाम पर दूसरी फिल्म मे इस्तेमाल किया और राजकपूर की बनाई धुन भी अपने नाम कर ली। बाद में जब विवाद बढ़ा तो राजेश रोशन को माफी मांगना पड़ी थी।

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‘बॉबी’ का सबसे मज़बूत पक्ष था, इसका कथानक। इसे ख़्वाजा अहमद अब्बास के साथ पी साठे ने लिखा था। राज कपूर के लिए ख्वाजा अहमद अब्बास ने सात फिल्म लिखी। कई चुनौतियों के बीच राज कपूर ने युवा प्रेम पर फिल्म बनाने का फैसला किया। ’बॉबी’ की इस जोड़ी ने रातों-रात बॉक्स ऑफिस पर तूफ़ान मचा दिया। फिल्म की सफलता तो अपनी जगह, इस फिल्म के नाम से फैशन चल पड़ी। डिंपल की मिनी स्कर्ट, पोलका डॉट शर्ट, हॉट पैंट्स, बड़े-बड़े गॉगल और यंग ऐज की पार्टियां चल पड़ी। लोकप्रियता का आलम यह था कि हर छोटी चीज का नाम ’बॉबी’ चल पड़ा। छोटी बसों का नाम ’बॉबी बस’ हो गया। डिंपल की ड्रेस ’बॉबी ड्रेस’ बन गई और एक बाइक निर्माता ने फिल्म के हीरो को हीरोइन को लेकर भागने के लिए इस्तेमाल की गई बाइक का निर्माण राजकपूर के समधी नंदा की कंपनी एस्कार्ट ने खास तौर पर किया था । जिसका नाम ही ’बॉबी’ मोटर साइकिल’ के रूप में लोकप्रिय हो गया था, लेकिन, ये बाइक फिल्म की तरह सफल नहीं हुई।

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फिल्म में प्रेम चोपड़ा का एक संवाद आज तक याद किया जाता है। वे घर से भागी ’बॉबी’ का हाथ पकड़कर बोलते हैं ’प्रेम नाम है मेरा प्रेम चोपड़ा!’ ये फिल्म सिर्फ एक सफल प्रेम कहानी ही नहीं थी, जिसके नए नायक-नायिका ने मील का पत्थर गाड़ दिया था। इसके अलावा भी कई ऐसे कारण रहे, जो इसकी सफलता का आधार बने। फिल्म ने देश और विदेश में रिकॉर्ड तोड़ कमाई इसलिए भी की थी कि ये एक कम्प्लीट फिल्म थी, जिसमें सारे फॉर्मूलों के अलावा और भी बहुत कुछ था। सबसे सशक्त पक्ष था कथानक और इसका संगीत। ’मेरा नाम जोकर’ के बाद जब शंकर-जयकिशन ने ’बॉबी’ का संगीत देने से इंकार कर दिया तो लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को टीम में शामिल किया गया। इस फिल्म के कई गाने बरसों तक लोगों की जुबान पर चढ़े रहे। ए रंगराज ने सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। बेस्ट साउंड डिजाइन का फिल्मफेयर पुरस्कार भी एके कुरैशी को मिला। ‘बॉबी’ की कहानी का मूल आधार सिर्फ अल्हड़ प्रेम ही नहीं, प्रेम के रास्ते में आने वाली अमीरी-गरीबी भी रही। राज कपूर ने इसमें प्रेम की ताकत को भी दिखाया था, जो समाज और कानून का सामना करते हैं।

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शुरू में जो कहानी लिखी गई थी, उसके क्लाइमेक्स में हीरो-हीरोइन दोनों डूबकर अपनी जान दे देते हैं। जब ये कहानी डिस्ट्रीब्यूटर्स को सुनाई गई, तो वे बिफर गए। उन्होंने कहा कि इस तरह का क्लाइमेक्स रचा गया, तो फिल्म नहीं चलेगी। इसके बाद राज कपूर ने भी समझा कि दर्शक वास्तव में अल्हड़ प्रेम का इस तरह अंत शायद स्वीकार न करें। ’मेरा नाम जोकर’ का असफल प्रयोग वे देख चुके थे, इसलिए तय हुआ कि फिल्म का क्लाइमेक्स बदला जाए। जबलपुर के भेड़ाघाट में फिल्माए गए इस क्लाइमेक्स के अंत को सुखद किया गया और फिर जो हुआ वो सबके सामने है।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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