Silver Screen: फिल्मों की विनाशकारी प्रयोगशाला में बनते विध्वंस के फार्मूले!

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Silver Screen: फिल्मों की विनाशकारी प्रयोगशाला में बनते विध्वंस के फार्मूले!

फ़िल्मी दुनिया में नए फार्मूले की हमेशा डिमांड बनी रहती है।

हर फिल्मकार चाहता है कि वो कुछ ऐसा नया करें जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो! ऐसी कोशिश में कई बार फार्मूले चल निकलते, तो ऐसा भी होता है कि पहली बार में फार्मूला फेल हो जाता है।

कथानकों की फ़िल्मी लैब में देशद्रोही विलेन का बम, मिसाइल या कोई ऐसी चीज बनाने का प्रयोग कई बार हुआ, जिससे भारी विध्वंस होने की आशंका होती है।

Silver Screen: फिल्मों की विनाशकारी प्रयोगशाला में बनते विध्वंस के फार्मूले!

ब्लैक एंड व्हाइट से आजतक की कई फिल्मों में इस तरह की कहानियां दोहराई गई, जब विलेन को इतना ताकतवर बताया गया कि वो देश के खिलाफ षड़यंत्र की व्यूह रचना कर लेता है।

उसकी एक विनाशकारी लैब होती है जिसमें बकायदा वैज्ञानिक काम करते हैं। इसमें एक देशभक्त वैज्ञानिक भी होता है, जिसका अपहरण करके लाया जाता है और जो ऐसा कोई बम, मिसाइल या संक्रामक दवा बनाना जानता है जो देश को ख़त्म कर दे।

लेकिन, हिंदी फिल्मों का सर्वशक्तिमान नायक फिल्म का अंत आते-आते इस विनाशकारी लैब को ध्वस्त कर देता है।

अब ऐसी फ़िल्में बनाने वालों को कोरोना के वायरस के रूप में नया फार्मूला मिला है। चर्चा तो यह भी चली थी कि इस वायरस को चीन की जैविक प्रयोगशाला में बनाया, पर इसमें कितनी सच्चाई थी, यह तो समय बताएगा।

Silver Screen: फिल्मों की विनाशकारी प्रयोगशाला में बनते विध्वंस के फार्मूले!

लेकिन, हिंदी सिनेमा में कुछ ऐसी फिल्में जरूर बनी, जिनमें प्रयोगशालाओं में विनाशकारी फार्मूले बनते दिखाई देते रहे। ऐसे कथानकों पर बनी अधिकांश फिल्मों की ज्यादातर रील इसी फॉर्मूले को हासिल करने या इसे नष्ट करने में खप जाती हैं।

जबकि, कुछ फिल्मों में इसे उपकथा के रूप में जोड़कर फिल्मों की रील बढाने का खेल भी जारी रखा। फिल्मी लैब में विनाशकारी फार्मूले बनने, बनाने और मिटाने का सिलसिला कब से शुरू हुआ यह अपने आप में खोज का विषय हो सकता है।

लेकिन, फिल्मी पंडितों का अनुमान है कि यह भेड़चाल विदेशी फिल्मों से और खासकर जेम्स बांड की फिल्मों से शुरू हुई।

बाद में इसी की भोंडी नकल करके कुछ फिल्मकारों ने मुख्यधारा से हटकर ऐसी फ़िल्में बनाने की शुरुआत की। इनमें कुछ सफल रही, तो कुछ को दर्शकों ने नकार दिया।

Silver Screen: फिल्मों की विनाशकारी प्रयोगशाला में बनते विध्वंस के फार्मूले!

दरअसल, फिल्मी लैब में फार्मूले गढ़ने की शुरुआत तो बरसों पहले ही शुरू हो गई थी, जो रंगीन से लेकर वाइड स्क्रीन और स्टीरियोफोनिक स्पेशल इफेक्ट वाले युग में भी बरकरार है।

साठ के दशक में एक फिल्मकार थे एनए अंसारी, जिन्होंने अपनी फिल्मों की अधिकांश कहानियां फिल्मी लैब के इर्द गिर्द रची।

फेल्ट हेट लगाए मुंह में पाइप दबाए एनए अंसारी ने मुल्जिम, मिस्टर मर्डर, वहां के लोग, टावर हाउस, वांटेड, जरा बच के, ब्लैक केट, मिस्टर लम्बू और ‘मंगू’ जैसी फिल्मों में दर्शकों को फिल्मी लैब और वहां के फॉर्मूलों के दर्शन कराए थे।

Silver Screen: फिल्मों की विनाशकारी प्रयोगशाला में बनते विध्वंस के फार्मूले!

जेम्स बॉन्ड की सफलता से प्रेरित होकर हमारे यहां रामानंद सागर ने ‘आंखे’ बनाई, जिसमें चीनी लैब में देसी वैज्ञानिक का अपहरण कर लिया जाता है और दुनिया को मिटाने का फार्मूला हासिल करने की कवायद में पूरी फिल्म देश विदेश की सैर कर लेती है।

इसी श्रेणी में दक्षिण के रवि नगाइच ने अजीबो-गरीब खलनायक और वैज्ञानिक लैब की पृष्ठभूमि को लेकर ‘फर्ज’ का निर्माण किया, जिसमें जितेंद्र को एजेंट-113 बताया था। इस फिल्म की सफलता के बाद सुरक्षा, जी-9, एजेंट विनोद जैसी फ़िल्में बनी।

विजय आनंद जैसे विख्यात निर्देशक भी इस फार्मूले से बच नहीं सके!

उन्होंने अपनी फिल्म ‘ब्लैक मेल’ में फिल्मी लैब के फार्मूले को देश प्रेम की चाशनी, धर्मेन्द्र, राखी और शत्रुघ्न सिन्हा के प्रेम त्रिकोण और’ पल पल दिल के पास’ जैसे गीतों के बल पर आशातीत सफलता दिलाई।

फिल्मी लैब में जब इंसानों के अदृश्य होने के फार्मूले रचे जाते हैं, तो मिस्टर एक्स, मिस्टर एक्स इन बाम्बे और ‘मिस्टर इंडिया’ जैसी फिल्मों का निर्माण होता है।

ख़ास बात यह कि नायक के अदृश्य होने वाली तमाम फिल्मों के शीर्षक ‘मिस्टर’ शब्द से शुरू होते रहे।

अधिकांश फिल्मी लैब में ऐसे फार्मूले बनाए जाते हैं, जिसमें कोई रासायनिक हथियार होता है, जो दुनिया को विनाश के कगार पर लाने के लिए बनाया जाता या कोई ऐसी मिसाइल होती जिसे दुनिया के खात्मे के लिए छोडा जाता।

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फिल्म के क्लाइमेक्स में हरा या लाल वायर काटने की दुविधा में परेशान नायक सही वायर काटकर दर्शकों की अटकी सांसों को राहत देकर हीरोइन के गले में हाथ डालकर रोमांस करने निकल पड़ता है।

अधिकांश फिल्मी लैब का मुखिया या डाॅन कोई अजीबो-गरीब शक्ल वाला ज्यादातर चीनी किरदार होता है।

ऐसी भूमिकाओं के लिए बकायदा ऐसे अभिनेता भी मौजूद हैं या थे, जिनमें मदन पुरी ने सबसे ज्यादा चीनी खलनायक की भूमिका निभाई।

उसके बाद जीवन, एनए अंसारी, कुलभूषण खरबंदा, अमरीश पुरी, कमल कपूर और अनुपम खेर ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया।

लैब में प्रयोग करने वाले देशभक्त वैज्ञानिक जिनका अपहरण कर फिल्मी रीलों को आगे खिसकाया जाता रहा, उनकी भूमिका करने वाले कलाकारों में सज्जन, मनमोहन कृष्ण और नजीर हुसैन शामिल हैं।

जब फिल्मों में तकनीक मजबूत हुई तो इस फार्मूले में थोड़ा बदलाव आया। राकेश रोशन ने रितिक रोशन के लिए ‘कृष’ सीरीज में इसे जमकर अपनाया।

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रजनीकांत की फिल्म ‘रोबोट’ के बाद शाहरूख खान ने ‘रा-वन’ में इस फार्मूले को रोबोट से जोड़कर एक अलग रूप दिया। लेकिन, ऐसी सभी फिल्मों का मकसद था दुनिया का विनाश करना। फिल्मों में यह तयशुदा फार्मूला है।

यदि वैज्ञानिक हीरोइन का बाप है, तो वह देश के हित का फार्मूला बनाएगा जिसे हासिल करने के लिए दूसरे देश का खलनायक उसका अपहरण करेगा और आखिर में हीरो के हाथों फार्मूला और वैज्ञानिक ससुर को बचा लिया जाता है।

यदि वैज्ञानिक दूसरे देश का है, जो इस देश के विनाश का फार्मूला तैयार कर रहा है, तो हीरो उसकी लैब तक पहुंचकर जो अक्सर किसी टापू या पहाड़ी पर होती है, उसे नष्ट कर देता है।

‘शान’ ही फिल्म थी जिसमें टापू पर शाकाल के अड्डे को नष्ट करना ही फिल्म के तीन हीरो का मकसद होता है और वे इसमें कामयाब भी होते हैं।

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लेकिन, जिस तरह उस अड्डे को नष्ट कर विलेन को मारकर हीरो और हीरोइनें वहां से सुरक्षित निकल आते हैं, वो दृश्य बेहद नाटकीय था।

अब, जबकि कोरोना ने फिल्मी लैब का मसाला फिल्मकारों को परोस दिया, तो संभव है इसे भी फिल्मकारों द्वारा आजमाया जाए।

लेकिन, विडम्बना यह है कि वुहान लैब के इस फार्मूले ने सिनेमा की रील पर उतरने से पहले ही दुनिया के साथ साथ फिल्मी दुनिया को तबाही के कगार पर ला खड़ा कर दिया, जिससे सिने जगत धीरे धीरे उबर रहा है।

देखना है फिल्मी वैज्ञानिक अपनी फिल्म निर्माण प्रयोगशालाओं में इस फार्मूले को किस तरह आजमाते हैं क्योंकि, जब फिल्मकार फार्मूले गढ़कर उन पर फ़िल्में बना सकते हैं, कोरोना वायरस तो कड़वी सच्चाई है, निश्चित रूप से इस पर तो फिल्म बनेगी ही और उस अड्डे को फिल्म के परदे पर नष्ट होते भी दिखाया जाएगा।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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