Silver Screen: अछूत वर्ग के अनूठे कथानकों से फ़िल्में भी अछूती नहीं रही! 

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Silver Screen: अछूत वर्ग के अनूठे कथानकों से फ़िल्में भी अछूती नहीं रही! 

समाज के उपेक्षित और पिछड़े वर्ग को सिनेमा के परदे पर उतारने में हमारे फिल्मकार कुछ ज्यादा ही पिछड़े नजर आते हैं। यदि उंगलियों पर गिने जाने लायक चंद फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर हिंदी फिल्मों में समाज के इस वर्ग का सतही चित्रण कर पर्दे पर भी इन्हें उपेक्षित रखा। देश को जाति प्रथा तथा जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए संविधान में कई प्रावधान रखे। अलग-अलग सरकारों ने भी समाज के पिछड़े और दलित वर्ग को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अपनी अपनी तरह से प्रयास भी किए। इसके बावजूद सामाजिक असमानता पूरी तरह समाप्त नहीं हुई। समाज की इसी असमानता को फिल्मों में भी समय समय पर फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों का विषय बनाया है। ‘अछूत कन्या’ से शुरू हुआ यह सिलसिला अभी भी कायम है। आजादी से पहले यानी फिल्मों के शैशवकाल से ही हो गई थी। तब 1936 में अशोक कुमार और देविका रानी की फिल्म ‘अछूत कन्या’ प्रदर्शित हुई। यह फिल्म अपने विषय से ज्यादा अशोक कुमार और देविका रानी की जोड़ी के कारण सफलता की सीढ़ी चढ़ी थी।

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इसके बाद 1946 मेंं चेतन आनंद ने ‘नीचा नगर’ नाम से फिल्म बनाई, जिसे कान फिल्म फेस्टिल के बेस्ट फिल्म अवार्ड (पाम डि ओर) से नवाजा गया था। ‘नीचा नगर’ गोर्की की 1902 की रचना ‘द लोअर डेप्थ्स’ पर आधारित है। इस फिल्म में गरीबों और समाज के दलित वर्ग के एक इलाके में आने वाली साफ पानी की पाइप लाइन को वहां का एक दबंग बंद कर देता है। इससे बस्ती में पानी को लेकर हाहाकार मच जाता है और वहां के लोग गंदा पानी पीकर बीमार होकर मरने लगते हैं। 1959 में प्रदर्शित बिमल राय की फिल्म ‘सुजाता’ समाज की उस गलत मानसिकता को दिखाने की कोशिश करती है, जो समाज को खोखला कर रहा है। फिल्म उस मानसिकता को भी गलत साबित करती है। ये फिल्म समाज में एक संदेश देती है कि छुआछूत आपका भ्रम है। भगवान ने सबको एक जैसा ही बनाया है। फिल्म अंतरजातीय विवाह के लिए भी लोगों को प्रेरित करता है। फिल्म में नूतन ने गरीब अनाथ और पिछड़ी जाति की युवती की भूमिका पूरी शिद्दत के साथ निभाई थी। इसके बाद लम्बे अरसे तक फ़िल्मकार इस विषय को भूल गए।

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1973 में प्रदर्शित निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’ में एक पूरे वर्ग के साथ हो रहे भेदभाव का मार्मिक रूप से चित्रण किया है। श्याम बेनेगल की ये पहली फीचर फिल्म थी जिसने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी इस फिल्म में शबाना ने एक शादी-शुदा नौकरानी लक्ष्मी का किरदार निभाया है। लक्ष्मी को गांव में अपने जमींदार पिता का व्यापार आगे बढ़ाने आए कॉलेज के एक छात्र सूर्या से प्रेम हो जाता है। लक्ष्मी गर्भवती हो जाती है, ऐसे समय में सूर्या उसका साथ छोड़ देता है। 1984 में आई दामुल बिहार के गरीब ग्रामीणों के प्रयास के मुद्दे को उजागर करती है। डायरेक्टर प्रकाश झा की फिल्म ‘दामुल’ एक ऐसी पिछड़ी जाति के मजदूर की कहानी है, जिसको अपने भू-स्वामी के लिए चोरी करने के लिए मजबूर किया जाता है।  फिल्म में अन्नू कपूर, श्रीला मजूमदार, मनोहर सिंह, दीप्ति नवल और रंजन कामथ मुख्य भूमिका में है।

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आश्चर्य इस बात का कि सदी बदलने के बाद भी उपेक्षित वर्ग से भेदभाव कम नहीं हुआ। इसलिए फिल्मों में 21 वीं सदी में भी सामाजिक असमानता और भेदभाव का विषय छाया रहा। साल 2011 में रिलीज हुई ‘आरक्षण’ ऐसी फिल्म है, जो देश में व्याप्त आरक्षण के गंभीर मुद्दे पर बनाई गई थी। फिल्म में अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, दीपिका पादुकोण और मनोज बाजपेयी मुख्य भूमिका में नजर आए। फिल्म का निर्देशन प्रकाश झा ने किया। बड़े सितारों और अच्छे निर्देशन के बाद फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं दिखा सकी।  निर्माता निर्देशक संजीव जायसवाल की 2012 में प्रदर्शित फिल्म ‘शूद्र : द राइजिंग’ देश के उन पच्चीस करोड़ लोगों की कहानी है, जो सदियों से जुल्म सह रहे हैं। इस फिल्म में दलितों को उनके मूल अधिकारों से वंचित किए जाने की समस्या को प्रभावी ढंग से उठाया गया। लेकिन, यह फिल्म भी सफलता से वंचित रही।

 

निर्देशक नीरज घेवान की फिल्म ‘मसान’ 2015 को रिलीज हुई थी। इसकी कहानी बनारस के घाटों पर रची-बसी है। इस फिल्म में एक छोटे से कस्बे के चार लोगों की कहानियां दिखाई गई है। उन्हीं में से एक कहानी श्मशान घाट में काम करने वाले दीपक (विक्की कौशल) की है, जो निचले वर्ग यानी डोम जाति से ताल्लुक रखता है। दीपक को मृत शरीर जलाने और क्रिया कर्म के काम से नफरत है और इससे छुटकारा पाना चाहता है। इस फिल्म के जरिए सभी बाधाओं के खिलाफ आशा की कहानी दिखाई गई है। फिल्म में विक्की कौशल, रिचा चड्ढा, संजय मिश्रा, श्वेता त्रिपाठी और विनीत कुमार मुख्य भूमिका में थे। 2016 में रिलीज हुई मराठी फिल्म ‘सैराट’ ने बॉक्स ऑफिस पर तगड़ी कमाई की थी। 4 करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म ने ओवरऑल करीब 110 करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई की थी। इस फिल्म में दलितों से नाइंसाफी की कहानी को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया गया था। इसके एक साल बाद 2017 में प्रदर्शित अनुराग कश्यप की फिल्म ‘मुक्काबाज’ जातिवाद की जड़ों को खेलकूद की प्रतियोगिता तक दिखाया गया। इस फिल्म में एक दलित बॉक्सर श्रवण कुमार (विनीत श्रीनेट) की कहानी दिखाई गई, जिसे हर रोज अपने कोच और स्थानीय बॉक्सिंग फेडरेशन संचालक के हाथों अपमानित होना पड़ता है। लेकिन, श्रवण कुमार अपनी काबिलियत के दम पर बॉक्सिंग में कामयाबी हासिल करता है। अच्छे विषय और बेहतर निर्देशन के बावजूद दर्शकों ने इसे नकार दिया था।

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2021 में आई फिल्म ‘जय भीम’ इरुलुर आदिवासी समुदाय और उनके साथ सालों से हो रही बर्बरता की कहानी दिखाती है। यह फिल्म 1993 में तमिलनाडु में हुई सच्ची घटना पर आधारित है। जिसमें जस्टिस के चंद्रू का लड़ा गया केस दर्शाया गया है। जय भीम में पुलिस के अत्याचारों को भी दिखाया गया है।.यह फिल्म सामाजिक व्यवस्था  पर भी तंज कसती है। इस फिल्म में सूर्या ने वकील चंद्रू और लिजोमोल जोस ने सेनगानी के किरदार को शानदार तरीके से निभाया। वहीं निर्देशक टी जे ज्ञानवेल ने कोर्टरूम ड्रामा को भी काफी अच्छी तरीके से फिल्माया है। फिल्म जय भीम में मणिकंदन, राजिशा विजयन, प्रकाश राज और राव रमेश जैसे कलाकार मुख्य किरदार में नजर आए हैं। दो साल पहले 2022 में प्रदर्शित ‘फ्रैंडी’ में जब्या नाम का एक लड़का कथित नीची जाति से संबंध रखता है। इसलिए वो और उसका परिवार गांव के बाहर रहता है। जब्या के पिता छोटे मोटे काम करते हैं, जिसमें सुअर को पकड़ना भी शामिल है। वहीं जब्या सबसे अपनी पहचान छुपाता है। वो अपने स्कूल में पढ़ने वाली एक ऊंची जाति की लड़की शालू से एकतरफा प्यार करने लगता है। फिल्म के आखिरी में समाज के उन लोगों की सोच पर पत्थर फेंक कर मारा जाता है, जो आज भी दलितों का शोषण करते हैं और छोटी सोच रखते र्हैं।

फिल्म अभिनेताओं में ब्राह्मण कुल में पैदा मिथुन चक्रवर्ती ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने परदे पर सबसे ज्यादा बार आदिवासी, शूद्र और अछूत बताया गया। अपनी पहली ही फिल्म ‘मृगया’ में मिथुन ने एक आदिवासी युवा का अभिनय इतने सशक्त तरीके से निभाया था कि उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसके बाद उन्होंने बोनी कपूर की फिल्म ‘हम पांच’ में उसी तरह की भूमिका कर नाम कमाया। उनके इस स्वरूप को देखकर राकेश रोशन ने उन्हें ‘जाग उठा इन्सान’ में एक बार फिर अछूत बनाया, लेकिन यह फिल्म चल न सकी। अछूत और उपेक्षित वर्ग को फिल्म में सहायक विषय बना मीना कुमार और राजकपूर की फिल्म ‘चार दिल चार राहें’ का निर्माण ख्वाजा अहमद अब्बास ने किया। लेकिन, यह फिल्म चल न सकी। सावन कुमार ने काला रंग पोत कर गोरे डॉक्टर श्रीराम लागू को ‘सौतन’ में हरिजन बनाने की हास्यास्पद कोशिश की। फिल्म अपने विषय के बजाए चाय पर बुलाया है जैसे गीत के कारण ज्यादा लोकप्रिय हुई। यदि सुजाता, चक्र, पार और ‘अर्जुन’ को छोड़ दिया जाए, तो आदिवासियों और अनुसूचित जाति जनजातियों पर बनी ज्यादातर फिल्में सतही साबित हुई हैं और सिनेमा में भी उपेक्षित वर्ग उपेक्षित ही रहा है।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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