Silver Screen ऐसी किताबें जिनकी कहानियों से सिनेमा जन्मा!

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 अपने जन्मकाल से ही हिंदी सिनेमा की अपनी एक अलग धारा रही है। कुछ विषयों को छोड़ दें, तो ये धारा दर्शकों की पसंद-नापसंद और बदलते ज़माने के अनुसार हमेशा बदलती रही है। कभी ये धारा समयकाल की घटनाओं से प्रभावित रही, कभी सामाजिक बदलाव से और कभी इतिहास के पन्ने पलटकर उसमें से कहानियां तलाशी गई। एक दौर ऐसा भी आया, जब फिल्मकारों ने समाज के साथ किताबों में अपने लिए मसाला ढूंढा! 20वीं सदी की शुरुआत में जब हिंदी सिनेमा की शुरुआत हुई, तब उसकी सबसे ज्यादा मदद धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक किताबों की कहानियों ने ही की थी! इसके बाद सिनेमा में स्वतंत्रता आंदोलन और गांधीजी के आदर्श समाए रहे! इस दौर में ‘जिस देश में गंगा बहती है’ जैसी फ़िल्में बनी, जिसमें डकैतों और चोरों का ह्रदय परिवर्तन कराकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लौटने की बात कही गई। क्योंकि, उपन्यास या नाटक जब फिल्म बनकर हमारे सामने आते हैं, तो दिमाग पर ज्यादा असर डालते हैं। यही कारण है कि फ़िल्मी दुनिया में कालजयी रचनाओं पर फिल्में बनती रही। देखा जाए तो सिनेमा ने अपने सामाजिक सरोकारों को कभी अलग नहीं होने दिया, फिर वो किसी भी रूप में दर्शकों को परोसे जाते रहे हों! प्रेम, बदला और पारिवारिक समस्याओं के अलावा खेल, शिक्षा, स्वास्थ्य, पहलवानी और आतंकवाद जैसे नए विषयों पर भी फ़िल्में बनी और पसंद की गईं! ये समय पहले नहीं था! लेकिन, ऐसी अभिव्यक्ति जो बीते कुछ दशकों में हुई, सिनेमा ने पहले कभी नहीं की थी। समाज और देश की समस्याओं पर फिल्मकार मुख्य रूप में चिंता करते दिखाई देने लगे हैं।
3 Idiots
सामाजिक सरोकारों के लिए फिल्मकारों ने उस दौर में लिखी गई किताबों को माध्यम बनाया! स्मृतियों के गर्भ को टटोला जाए तो 1953 में पहली बार सामाजिक सरोकारों को लेकर बिमल रॉय के निर्देशन में ‘दो बीघा जमीन’ बनाई गई थी। यह सलिल चौधरी की प्रसिद्ध कहानी पर आधारित थी। इसे उस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना गया था। मजदूरों और किसानों की समस्या पर आधारित संभवतः ये पहली यथार्थवादी फिल्म थी। इस फिल्म ने किसानों के जीवन की समस्याओं का करुण और जीवंत प्रभाव दिखाया था।1954 से 60 तक ऐसी ही सामाजिक फिल्मों का दौर रहा! यथार्थ का चेहरा दिखाने का काम ‘परिणीता’ ने भी किया, जो शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित थी। इसके बाद ‘देवदास’ भी शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की कहानी पर बनी। उनकी कई किताबों पर हिंदी और बंगाली फ़िल्में बनाई गई। सामाजिक विसंगतियों पर गहरी चोट करती ‘मदर इंडिया’ भी महबूब खान ने इसी समय बनाई! ये फिल्म सिनेमा के इतिहास का मील का पत्थर साबित हुई!
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   सामाजिक भावनाओं को कचोटती ‘जागते रहो’ का निर्माण भी राज कपूर ने 1956 में किया था। 1957 में गुरुदत्त की ‘प्यासा’ ने सामाजिक चेतना को बुरी तरह झकझोरा था! 1959 में फिर बिमल रॉय ने जाति बंधनों पर चोट करने वाली ‘सुजाता’ बनाई! कृष्ण चोपड़ा ने प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ पर ‘हीरा मोती’ नाम से फिल्म बनाई, जो साहित्य और सिनेमा के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी बनी! प्रेमचंद की ही कहानियों पर सत्यजीत रे ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सद्गति’ बनाई। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम, मन्नू भंडारी के उपन्यास आपका बंटी और महाभोज, शैवाल के उपन्यास पर ‘दामुल’ के अलावा केशव प्रसाद मिश्र की रचना ‘कोहबर की शर्त’ पर राजश्री ने ‘नदिया के पार’ और बाद में ‘हम आपके हैं कौन’ बनाई। राजेन्द्रसिंह बेदी की कहानी पर एक चादर मैली सी, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर सूरज का सातवाँ घोड़ा, विजयदान देथा की ‘दुविधा’ नाम की कहानी पर ‘पहेली’, उदयप्रकाश के उपन्यास पर ‘मोहनदास’ जैसी फ़िल्में बनाने की हिम्मत की गईं जो पसंद की गई।
Parineeta
   1968 में बनी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म ‘सरस्वतीचंद्र’ भी एक गुजराती उपन्यास पर बनाई गई थी, जिसे गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी ने लिखा था। इसी उपन्यास पर 2013 में निर्देशक संजय लीला भंसाली ने एक टेलीविजन सीरियल भी बनाया। 1956 में आई देव आनंद की फिल्म ‘गाइड’ आरके नारायणन के उपन्यास ‘द गाइड’ पर आधारित थी। 1971 की फिल्म ‘तेरे मेरे सपने’ लेखक एजे क्रोनिन के उपन्यास ‘सिटाडेल’ की कहानी पर बनाई गई थी। 1978 में श्याम बेनेगल के निर्देशन में ‘जुनून’ बनी, यह फिल्म लेखक रस्किन बांड के उपन्यास ‘ए फ्लाइट ऑफ पिजंस’ पर थी। 1981 में उर्दू उपन्यास ‘उमराव जान अदा’ पर ‘उमराव जान’ ने तो इतिहास रच दिया था। इसके रचनाकार मिर्जा हादी रुसवा थे। सुशांत सिंह राजपूत की डेब्‍यू फ‍िल्‍म ‘काई पो चे’ चेतन भगत के उपन्यास ‘द थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ’ पर आधारित थी। वहीं, आमिर खान, शरमन जोशी और आर माधवन की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ भी चेतन भगत के ही उपन्यास ‘फाइव प्वाइंट समवन’ पर बनी थी। श्रद्धा कपूर और अर्जुन कपूर की फिल्म ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ भी चेतन भगत की ही किताब पर रचे गए कथानक पर बनी, पर ये पहली दो फिल्मों की तरह नहीं चली।
   इसका आशय ये कदापि नहीं कि कालजयी किताबों पर बनने वाली फिल्मों को हमेशा सफलता मिली है! कई फिल्मों को दर्शकों ने नकारा भी! क्योंकि, विषय की समझ और पटकथा की सृजनात्मक क्षमता आसान नहीं होती। बहुत कम फिल्मकार होते हैं, जो फिल्म की तकनीक और किताब की समझ के साथ न्याय करके पटकथा को आकार दे पाते हैं। गोदान, उसने कहा था, चित्रलेखा और ‘एक चादर मैली सी’ ऐसी ही फ़िल्में थीं जो चर्चित किताबों पर बनी, पर असफल हुई। दरअसल, किताब के मूल भाव से सामंजस्य बैठाते हुए उसकी गहराई तक उतरकर फिल्म बनाना चुनौती भी है और जटिल प्रक्रिया भी। साहित्य को सिनेमा में बदलने वाले कुछ ही सिद्धहस्त निर्देशक हुए हैं। इनमें बिमल रॉय, सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, प्रकाश झा, गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकार अव्वल रहे हैं। अभी ये प्रयोग थमा नहीं है। फिल्मों के बाद अब ओटीटी पर ऐसी फिल्मों की बाढ़ आने वाली है।