Silver Screen: अपने समयकाल से आगे के सोच वाली फ़िल्में

1519

इंसानों की तरह, हर फिल्म का भी एक जीवनकाल होता है। इसलिए कि फ़िल्में कई बार समाज के पीछे चलती है, कभी आगे चलकर रास्ता दिखाती हैं। ऐसी फिल्मों की कमी नहीं, जिन्हें देखकर लगता है कि ये अपने समय से पहले दर्शकों के सामने आ गई! दरअसल, ये फ़िल्में एक प्रयोग की तरह होती है, जिन्हें कई बार सफलता मिल जाती है, तो कभी ये दर्शकों के गले नहीं उतरती। इन फिल्मों की सबसे खास बात होती है कि उनका ट्रीटमेंट!

यदि वो दर्शकों को पसंद आ गया तो बॉक्स ऑफिस पर सफलता का झंडा गाड़ लेती हैं। ऐसे में निर्देशक के सामने चुनौती होती है कि वे फिल्म की कहानी को दर्शकों को बिना किसी उलझन के कैसे समझा पाता है। राज कपूर जैसे कुछ निर्देशकों ने ये काम बखूबी से किया है। उन्होंने मुद्दों को इतने प्रभावशाली तरीके से पेश किया उनकी फिल्में अपने वक्त से आगे की मानी गईं। लेकिन, 1970 में आई ‘मेरा नाम जोकर’ में उनका प्रयोग उल्टा पड़ गया था। फिल्म की असफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि ये तब के सामाजिक दायरे में फिट नहीं बैठी थी। पहली बार दर्शकों ने एक स्कूल टीचर के साथ उसके स्टूडेंट के मोह को शिद्दत से देखा था। निश्चित रूप से तब के समाज ने इसे स्वीकार नहीं किया और फिल्म सफलता नहीं पा सकी।

Silver Screen: अपने समयकाल से आगे के सोच वाली फ़िल्में

प्यासा (1957) को सिनेमा के स्वर्ण युग की फिल्म कहा जाता है। सामाजिक मानदंडों पर टिप्पणी करने की जो हिम्मत गुरुदत्त ने दिखाई वो किसी और के लिए संभव नहीं था। इस फिल्म में उनका चरित्र भी श्रेष्ठ रूप में सामने आया था। इस फिल्म के ‘जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां है’ जैसे गाने आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। इसके बाद अमरदीप निर्देशित देव आनंद की ‘तीन देवियां’ (1965) के ज्यादातर दृश्य ब्लैक एंड व्हाइट में फिल्माए गए थे। ये एक ऐसे कवि की कहानी थी, जिसे तीन अलग-अलग महिलाओं से प्यार हो जाता है।

यह फिल्म लेखक डीएच लॉरेंस की रचनाओं से प्रेरित थी। यह उस समय से बहुत आगे की फ़िल्म थी! देव आनंद की ही 1966 में आई फ़िल्म ‘गाइड’ की गिनती भी ऐसी ही फिल्मों में होती है। यह फिल्म जब बनी, तब के हिसाब से ‘गाइड’ को काफ़ी बोल्ड कहा गया था। फिल्म का नायक ‘राजू गाइड’ अन्य फिल्मों के नायकों की तरह सच्चाई का पुलिंदा नहीं था और न फ़िल्म की हीरोइन रोज़ी अभिनेत्रियों की तरह त्याग और सहनशीलता की मूर्ति थी।

जब शादी-शुदा ज़िंदगी उसे ख़ुशियाँ न दे सकी तो उसने विवाह के बंधन के बाहर रिश्ता बना लिया। ‘गाइड’ को चार पीढ़ियों ने देखा और पसंद किया। इसे जब भी देखा गया, तो दर्शकों को लगता कि ये आज बनी फिल्म है। नवकेतन बैनर की करीब सभी फिल्में ऐसी ही बनी, जिन्हें देखकर लगता था कि ये वक़्त के पहले की फिल्में हैं। फिल्मों में हीरो अच्छाई का प्रतीक होता है, वो कभी कुछ बुरा नहीं कर सकता! लेकिन, ‘गाइड’ का राजू वैसा नहीं था।

Silver Screen: अपने समयकाल से आगे के सोच वाली फ़िल्में

फरहान अख्तर निर्देशित ‘दिल चाहता है’ (2001) तीन दोस्तों की कहानी थी। दोस्ती के रिश्ते और प्यार से पगी इस फिल्म में एक तरह का संदेश था। इसमें जिंदगी के खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ दोस्ती और प्यार का असली मतलब समझाया गया था। यही कारण है कि बरसों बाद भी फिल्म आज की कहानी लगती है। 2002 में आई फिल्म ‘क्या कहना’ को पसंद किए जाने का कारण इसमें टीनएज प्रेगनेंसी की कहानी फिल्माई गई थी।

ऐसी लड़की की कहानी जिसके गर्भवती होने के बाद समाज के ताने सहने पड़ते हैं। उसके प्रेमी को कोई कुछ नहीं कहता। समय से आगे की फिल्मों में ‘माई ब्रदर निखिल’ (2005) भी है, जिसमें एड्स जैसा मुद्दा दिखाया गया था। जबकि, उस समय ‘एड्स’ पर लोग खुलकर बात करने से हिचकते थे। फिल्म में दिखाया था कि कैसे निखिल को एड्स होने की बात का पता चलते ही उसे घर वाले बाहर कर देते हैं।

उसे वो सब झेलना पड़ता है, जो असल जिंदगी में भी इस बीमारी वालों के साथ व्यवहार किया जाता है। सलाम नमस्ते (2005) भी ऐसी फिल्म थी, जिसमे रिश्तों को नया विस्तार दिया गया था। 2006 की फिल्म ‘कभी अलविदा ना कहना’ भी अपने समय से पहले बनी फिल्म थी। फिल्म का मूल विषय हर किसी को अपने हिस्से की खुशी पाने का अधिकार है। निर्देशक करण जौहर ने फिल्म के संदेश को बहुत संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया था। फिल्म के कलाकारों के बीच कमाल की केमिस्ट्री देखने को मिली थी।

इसी तरह मीरा नायर ने अपनी फिल्म ‘मानसून वेडिंग’ में चाइल्ड अब्यूज का मुद्दा उठाया था। ये एक यौन शोषित लड़की की कहानी थी, जो अपने परिवार से इस बारे में कुछ नहीं कहती। लोग आज भी बच्चों की बात को अनसुना कर उन्हें डांट देते हैं। फिल्म ने पेरेंट्स को एक तरह से सलाह दी थी, कि अपने बच्चों की बात पर ध्यान देना कितना जरूरी है। संवेदना और सहजता के साथ फिल्म बनाना आसान नहीं होता, पर कुछ फिल्म ने इस भ्रम को तोड़ा है। 2014 में आई ‘मार्गरिटा विद ए स्ट्रॉ’ एक ऐसी दिव्यांग महिला की कहानी दिखाई थी, जो अपनी सेक्सुएलिटी के बारे में खोज करती है। फिल्म में एक लड़की को लड़की से प्यार हो जाता है। क्या इसे समय से पहले की फिल्म नहीं कहा जाएगा!

Silver Screen: अपने समयकाल से आगे के सोच वाली फ़िल्में

1978 की फिल्म ‘शालीमार’ भले ही व्यावसायिक रूप से सफल नहीं हुई, पर ये देश में बनी शीर्ष फिल्मों में से एक थी। ये बेहतरीन क्लासिक फिल्म थी, जिसे हॉलीवुड और बॉलीवुड दोनों के सितारों दोनों के साथ बनाया गया था। इसके बाद आई ‘जाने भी दो यारो’ (1983) भी ऐसी फिल्म थी, जिसमें बेहद रोचक अंदाज में भ्रष्टाचार पर सीधी चोट की गई थी। व्यवस्था, कारोबार और मीडिया के गठजोड़ करारा व्यंग्य किया था।

यह फिल्म इतनी पसंद की गई कि इसने वैकल्पिक सिनेमा को पंख लगाने जैसा काम कर दिया। कुछ फिल्में अनायास बन जाती है, जो बाद में मील का पत्थर साबित होती हैं। ये ऐसी फिल्म थी, जिसका दोबारा बनाना असंभव होता है। यह अपनी तरह की अलग ही क्लासिक फिल्म थी। 1985 में आई ‘खामोश’ को भी अपने समय से पहले की फिल्मों में गिना जा सकता है। इस फिल्म में कोई गीत नहीं था।

‘खामोश’ ने अपने दौर के दर्शकों झकझोर दिया था। सईद मिर्जा ने 1989 में जब ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’ बनाई तो इसे अटपटे और लम्बे नाम के कारण खूब चर्चा मिली थी। ये फिल्म मुंबई के गैरकानूनी धंधे में शामिल एक युवक की कहानी थी। फिल्म में मानव जीवन के मूल्यों को गहराई समझाया गया था। 80 के दशक की फिल्मों के लिए इस विषय पर बनी फिल्म एक अनोखा प्रयोग था।

dsf 1531703448

1990 में आई फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ एक डॉक्टर के इर्द-गिर्द घूमती कहानी थी, जो कुष्ठ रोग के लिए एक वैक्सीन तैयार करता है। प्रतिष्ठान के खिलाफ उसकी लड़ाई उसका अलग ही संघर्ष था। फिल्म की सूक्ष्मता बहुत प्रभावित करती है। यश चोपड़ा की फिल्म ‘लम्हे’ (1991) भी वक़्त से पहले आई फिल्म थी। इसमें एक पकी उम्र का व्यक्ति अपनी ही बेटी के प्यार में पड़ जाता है।

अनाचार के रंगों के कारण ‘लम्हे’ को बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा सफलता तो नहीं मिली, पर इस फिल्म को बनाना ही बड़ा साहसिक काम था। यह यश चोपड़ा की बनाई सबसे बोल्ड फिल्मों में से एक रही। ‘लम्हे’ शायद यश चोपड़ा के अपरंपरागत मानवीय रिश्तों को दिखाने का एक अलग ही प्रयास था। धर्मवीर भारती के चर्चित उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा (1992) को श्याम बेनेगल की सबसे सफल फिल्मों में गिना जाता है। फिल्म का नायक मयंक मुल्ला तीन अलग-अलग महिलाओं से अपना प्रेम संबंध बनाता है। इस फिल्म में घटनाओं को एक अलग ही दृष्टिकोण से दर्शाया गया था।