Silver Screen: कई भाषाओं की हमजोली, हिंदी फ़िल्मों की बोली!

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Silver Screen: कई भाषाओं की हमजोली, हिंदी फ़िल्मों की बोली!

जब हिंदी फिल्म की बात होती है, तो जहन में ऐसी फिल्म की कल्पना उभरती है जिसकी भाषा हिंदी हो! ये सही भी है, क्योंकि भाषा से ही फिल्म की पहचान बनती है। दक्षिण की फ़िल्में भी तमिल, तेलुगू और मलयालम में बनती है। भोजपुरी फ़िल्में वहां बोली जाने वाली भाषा की होती हैं। बांग्ला की फ़िल्में बांग्ला में और उड़िया फ़िल्में वहां भाषा में! लेकिन, हिंदी फ़िल्में पूरी तरह हिंदी में नहीं बनती! जिस तरह हिंदी कभी सीमाओं में कैद नहीं रही, वही स्थिति हिंदी फिल्मों की भी रही! इनमें पंजाबी, मराठी और गुजराती के अलावा संवाद कई बोलियां में भी होते हैं। फिल्म निर्माण के शुरूआती दौर में हिंदी के साथ उर्दू का तड़का भी लगता था! क्योंकि, शुरू से ही हिंदी के साथ उर्दू का तालमेल करके प्रभाव देने की कोशिश की गई। उर्दू तहजीब की भाषा है, उसका दायरा बहुत परिमार्जित है। हिंदी फिल्मों के कई गीतकार और संवाद लेखक उर्दू के साहित्यकार और शायरों रहे हैं। किंतु, समय के साथ-साथ इन दोनों भाषाओं का रिश्ता दरकने लगा! सिर्फ भाषा के इस्तेमाल में ही बदलाव नहीं आया, बोलने का लहजा भी बदल गया। सिनेमा को सबसे ज्यादा समाज प्रभावित करता है, पर भाषा ही वो घटक है, जो फ़िल्म का संस्कार दर्शाता है। सत्तर के दशक के आसपास हिंदी सिनेमा में एक टपोरियों जैसी भाषा भी विकसित हुई। ऐसी भाषा जो वास्तव में ठेठ मुंबई की बोली थी। ये भाषा ‘रंगीला’ और ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में जमकर बोली गई। इन फिल्मों की भाषा ने सबसे बड़ा नुकसान फिल्मों का ही किया।

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50 और 60 के दशक के मध्यकाल तक की फिल्मों में जुबान साफ़ और आसान थी। जबकि, आज की फिल्मों में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग के साथ स्थानीय बोली का भी घालमेल ज्यादा दिखाई देने लगा। अपराध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘गैंग आफ वासेपुर’ को भाषा के स्तर पर फिल्मों में आने वाले बदलाव का मोड़ कहा जा सकता है। इस फिल्म में भाषा का विकृत रूप सुनाई दिया था। अब तो स्थिति ये आ गई कि फिल्मों की भाषा को किरदार मुताबिक गढ़ा जाने लगा है! ‘तनु वेड्स मनु’ में कंगना रनौत अपना परिचय हरियाणवी में देती है। ‘बाजीराव मस्तानी’ में मराठा बना रणवीर सिंह मराठी बोलता नजर आता है! ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में भोजपुरी, ‘उड़ता पंजाब’ में पंजाबी, ‘पानसिंह तोमर’ में ब्रज भाषा का इस्तेमाल हुआ! वास्तव में तो फिल्मों की भाषा दर्शक की मनः स्थिति तक पहुँचने का जरिया होती है! यही कारण है कि ऐसी भाषा का इस्तेमाल होता है, जो लोगों में लोकप्रिय हो और आसानी से समझ आए। गुजराती और पंजाबी का ज्यादा इस्तेमाल होने का कारण यह भी है कि ओवरसीज में इस भाषा के लोग ज्यादा हैं।

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हिंदी सिनेमा की हिंदी की बात की जाए, तो यह न तो व्याकरण सम्मत है न साहित्यिक! कहने को इन्हें हिंदी फ़िल्में कहा जाता हो, पर वास्तव में ये खरी हिंदी नहीं है, बल्कि कई भाषा और बोलियों का मिश्रण है! जबकि, देखा जाए तो मराठी, मलयालम, तमिल और यहाँ तक कि भोजपुरी और बांग्ला फिल्मों में भी वहाँ की अपनी भाषा होती है! पर, हिंदी फिल्मों में पूरी तरह हिंदी भाषा नहीं होती! फिल्म के संवादों में भाषा की इतनी मिलावट है, कि इसे पूरी तरह हिंदी फ़िल्में तो कहा ही नहीं जा सकता! फिल्मों में भाषा का जो बदला स्वरूप सामने आया, वो काफी हद तक हमारे समाज और संस्कृति का मापदंड है। देखा जाए तो समय के साथ बोलचाल की भाषा में भी बदलाव आ रहा है। ऐसे में सबसे सही भाषा वही मानी गई है, जो अपनी बात कहने का जरिया बने! कहने को एक फिल्म ‘हिंदी मीडियम’ भी बनी, पर ये भी हिंदी के लिए नहीं थी! समय-समय पर हिंदी की कई नामी हस्तियों ने भी हिंदी सिनेमा में अपना योगदान दिया। नीरज ने देव आनंद के लिए कई गीत लिखे, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर फिल्म बनी और शरद जोशी ने फिल्मों के संवाद लिखे।

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दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ बनाई, तब फिल्म की भाषा कोई विषय नहीं था! मूक फिल्मों के बाद जब फ़िल्में बोलने लगी और परदे पर पात्रों की संवाद अभिव्यक्ति होने लगी, तब भी भाषा संस्कार जैसी कोई बात नहीं थी। लेकिन, यहां से पटकथा और संवाद लेखन का काम जरूर शुरू हो गया। 1931 में जब पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनी, तो भाषा भी मुद्दा बन गया! लेकिन, तब हिंदी के साथ उर्दू की नफासत का पुट था, जो धीरे-धीरे लोप होता गया। 1940 में महबूब ख़ान ने ‘औरत’ बनाई थी, जो एक महिला के संघर्ष की कहानी थी। इसके बाद महबूब ख़ान ने एक ग्रामीण महिला के संघर्ष को ग्रामीण परिवेश में दिखाते हुए ‘मदर इंडिया’ बनाई! इस फिल्म की भाषा भोजपुरी मिश्रित हिन्दी थी। ग्रामीण परिवेश की कहानी वाली फिल्मों में हिन्दी और भोजपुरी का ही ज्यादा प्रयोग होता था। क्योंकि, मुंबई तथा अन्य बड़े शहरों में बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से गए लोगों की संख्या ज्यादा थी, जो भोजपुरी बोलते थे। बिमल रॉय ने खेती छोड़कर मजदूरी करने आए मजदूर की जिंदगी पर ‘दो बीघा ज़मीन’ जैसी फिल्म बनाई। इसमें बलराज साहनी ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इस फिल्म की भाषा तो हिन्दी थी, पर कई गाने भोजपुरी पुट वाले थे।

राज कपूर, बिमल रॉय जैसे फिल्मकार छठे दशक से अपनी एक पहचान कायम करने में सफल रहे थे। राज कपूर के पास फिल्म निर्माण का लम्बा तजुर्बा था। क्योंकि, पृथ्वीराज कपूर ने अपने बेटे को सितारे का बेटा बनाकर नहीं रखा, बल्कि उनको संघर्ष की आंच में तपाया। राज कपूर अपनी फिल्मों के कथानक के साथ उसके निर्माण से भी बेहद तादात्म्य बनाकर रखते थे। फिल्म के संगीत से लेकर भाषा तक के प्रति उनका गहरा समर्पण था। आह, आग, आवारा, श्री चार सौ बीस जैसी फिल्मों के संवादों में भाषा का बहुत ख्याल रखा गया था। बिमल रॉय जैसे फिल्मकार ने बंगला संस्कृति में कई फ़िल्में बनाई, पर जब वे हिन्दी सिनेमा में आए, तो उसमें भी अपनी श्रेष्ठता दिखाई। नबेंदु घोष जैसे लेखक, पटकथाकार, हृषिकेश मुखर्जी जैसे सम्पादक जो आगे चलकर फिल्मकार भी बने, उन्होंने भी कई अच्छी फिल्में बनाई। उनकी बनाई फिल्में हमराही, बिराज बहू, दो बीघा जमीन, परिणीता, देवदास, सुजाता, बंदिनी थीं, जो आज मील का पत्थर हैं। हम यदि इन फिल्मों को याद करते हैं तो हमें दिलीप कुमार, बलराज साहनी, नूतन, सुचित्रा सेन, अशोक कुमार जैसे कलाकार ही याद नहीं आते, बल्कि दृश्य, संवाद और गीत भी मन-मस्तिष्क में ताजा हो जाते हैं।

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श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी ने जब कला फिल्मों के निर्माण में कदम रखा तो अपने सिनेमा में भाषा के साथ उच्चारण की स्पष्टता पर भी ध्यान दिया। इसका कारण यह था कि उनके साथ सत्यदेव दुबे जैसे रंगकर्मी थे, जो भाषा की शुद्धता के प्रबल समर्थक थे। वे भाषा की शुद्धता और उसके उच्चारण तक में अपनी बात मनवाते थे। यही वजह है कि मंडी, जुनून, निशांत, अंकुर और भूमिका जैसी फिल्में में भाषा का अलग ही अंदाज दिखाई दिया था। बाद में यही काम उनके समकालीनों में सुधीर मिश्रा, प्रकाश झा, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्जा ने भी किया। बीआर चोपड़ा की महाभारत के संवाद लेखन में डॉ राही मासूम रजा के योगदान को सभी याद करते हैं। इसी तरह रामानंद सागर ने भी रामायण सीरियल बनाते हुए उसके संवादों पर विशेष जोर दिया। ‘भारत एक खोज’ धारावाहिक भी भाषा के स्तर पर बेहद सशक्त था। तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी निर्माण के रूप में जाने जाते हैं।

ये मुद्दा भी बहस का विषय रहा कि भाषाई संस्कार में आए बदलाव से हिंदी को नुकसान हुआ या कोई फायदा भी हुआ? इस मुद्दे पर सभी एकमत नहीं हो सकते! इसलिए कि सभी के तर्क अलग-अलग हो सकते हैं! कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से हिंदी का स्तर गिरा नहीं है! बल्कि, इस रास्ते से हिंदी क्षेत्रीय भाषा एक बड़े समूह तक जरूर पहुंची! ये ज़रूर है कि आज बॉलीवुड में ज्यादातर फिल्मों में खिचड़ी भाषा का इस्तेमाल होने लगा है। इसमें अंग्रेजी और हिंगलिश सब कुछ होता है। ये भी कहा जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी खराब नहीं हो रही, बल्कि समृद्ध हो रही है। साथ ही क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां भी संरक्षण पा रही है। लेकिन, फिर भी बॉलीवुड की फिल्मों को हिंदी फ़िल्में ही कहा जाता है और कहा जाता रहेगा। हिन्दी सिनेमा की भाषा को बचाने की कोशिश पहले नहीं की जाती थी। क्योंकि, सब कुछ अपने आप ही चला करता था। हिन्दी फिल्मों में हिंदी को कोई खतरा नहीं था। लेकिन, बाद में चीजें बदलना शुरू हुई। जो लोग इस बदलाव से जुड़े थे और इसका समर्थन कर रहे थे उनका मानना यही था कि नए जमाने के साथ सिनेमा को भी अपनी एक भाषा की जरूरत है।