Silver Screen:’कांस फिल्म फेस्टिवल’ में इस बार भारत का जलवा!   

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Silver Screen:’कांस फिल्म फेस्टिवल’ में इस बार भारत का जलवा! 

फिल्म बनाने वाले देशों में दुनिया के दो पुरस्कारों का विशेष महत्व है। ये हैं ‘ऑस्कर’ और ‘कांस फिल्म फेस्टिवल।’ जिस भी देश की किसी फिल्म को इनमें से कोई अवॉर्ड मिलता है, उसे अभूतपूर्व उपलब्धि माना जाता है। ऐसे में वे फिल्मकार भी दुनिया की आंख में आ जाते हैं जिनकी फिल्म पुरस्कृत होती है। भारत दुनिया में सर्वाधिक फ़िल्में बनाने वाले देशों में जरूर गिना जाता है, पर यहां ऐसी फ़िल्में बहुत कम बनती है, जो पुरस्कार पाने के योग्य हों। लेकिन, इस बार ‘कांस फिल्म फेस्टिवल’ में अनुसुईया सेनगुप्ता और पायल कपाड़िया ने भारत का नाम रोशन किया। बुल्गारिया के निर्देशक कॉन्स्टेंटिन बोजानोव की हिंदी भाषी फिल्म ‘द शेमलेस’’ के लिए अनुसुईया सेनगुप्ता को फेस्टिवल में ‘अनसर्टेन रिगार्ड’ श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। कोलकाता की अनुसुईया सेनगुप्ता इस श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय हैं।

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देखा जाए तो इस साल का ‘कांस फिल्म फेस्टिवल’ भारत के लिए हर दृष्टि से उपलब्धियों से भरा रहा। इस फेस्टिवल में आठ भारतीय या भारत पर आधारित फिल्मों को स्पर्धाओं में जगह मिली। पायल कपाड़िया की फिल्म ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट, एफटीआईआई के छात्र चिदानंद एस नाइक की ‘सनफ्लावर वेयर द फर्स्ट वन्स टू नो’ और ‘द शेमलेस’ की अनुसूईया सेनगुप्ता को अलग-अलग श्रेणी में सम्मानित किया गया। पायल कपाड़िया की फीचर फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट’ पिछले तीन दशक में मुख्य स्पर्धा में दिखाई गई भारत की पहली और किसी भारतीय महिला निर्देशक की भी पहली फिल्म है। इससे पहले 1994 में मलयालम निर्देशक शाजी एन करुण की ग्रामीण परिवेश पर बनी फिल्म ‘स्वाहम’ भारत की ओर से ‘द पाल्मे ड’ओर’ के लिए नामांकित होने वाली आखिरी फिल्म थी। 1946 में भारतीय फिल्म ने ‘द पाल्मे ड’ओर’ जीता था। ‘द पाल्मे ड’ओर’ को पहले ‘ग्रांप्री द इंटरनेशनल फेस्टिवल द फिल्म’ के रूप में जाना जाता था, जीतने वाली एकमात्र भारतीय फिल्म चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ है। यह 1946 में जीता था। इसके अलावा मृणाल सेन के घरेलू कामगारों पर बने नाटक ‘खारिज’ को 1983 में ज्यूरी पुरस्कार मिला था। तभी इस पुरस्कार को लेते समय पायल कपाड़िया ने इतिहास को ध्यान में रखकर कहा कि कृपया और एक भारतीय फिल्म के लिए और 30 साल न इंतजार करें।

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बुल्गारियन निर्देशक कॉन्स्टेंटिन बोजानोव की ‘द शेमलेस’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली अनुसुईया सेनगुप्ता ‘अनसर्टेन रिगार्ड’ श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय बनीं। ‘द शेमलेस’ शोषण और उत्पीड़न की एक अंधेरी दुनिया बयां करती है, जिसमें दो यौनकर्मी एक बंधन में बंधती हैं और आजादी के लिए निकल पड़ती है। सेनगुप्ता ने यह पुरस्कार समलैंगिकों और अन्य कमजोर समुदायों को समर्पित किया। उन्होंने यह भी कहा कि जरूरी नहीं कि समानता के संघर्ष के लिए आपको समलैंगिक होने की जरूरत है। आपको गुलामी के बारे में जानने के लिए गुलाम बनकर देखना भी जरूरी नहीं है। हमें बस सभ्य इंसान बनने की जरूरत है।

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‘कांस फेस्टिवल’ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब पाने के बाद अनुसुईया सेनगुप्ता दुनियाभर में मशहूर हो गई। वे ‘द शेमलेस’ में अभिनय के लिए मिले इस अवॉर्ड की उपलब्धि से अभिभूत है। अपनी इस जीत को वे देश की जीत मानती है। 37 साल की अनुसुईया का कहना है कि समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतना कोई व्यक्तिगत ट्रॉफी नहीं, पूरे देश को उनकी उपलब्धि पर गर्व है। उन्होंने कहा कि मुझे कुछ कहने का अधिकार नहीं है। लेकिन, फिर भी मैं इसे लेकर यही कहना चाहूंगी कि यह जीत पूरे देश की जीत है। इसके लिए तो पूरा देश गौरवान्वित महसूस कर रहा है।

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अनुसूईया ने एक इंटरव्यू में कहा कि मेरे पास अब भी अपनी इस कामयाबी को बयां करने के लिए सही शब्द नहीं है। मेरी खुशी के इस पल में हर कोई गर्व की भावना महसूस कर रहा है। यह एहसास मेरी सफलता को और भी बेहतर बनाता है। यह वास्तव में मेरे लिए कोई व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारा 15-20 लोगों का एक समूह था, शायद इससे भी कम। लेकिन, ऐसा लगा कि हम एक बड़ी भावना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। क्योंकि, वह बड़ी भावना हमारे देश में है। मेरी खुशी में हर किसी को खुशी महसूस होती है। सेनगुप्ता है अपनी जीत से ज्यादा पायल कपाड़िया की जीत पर खुश हैं। उनका कहना है कि मैं जानती हूं, वे और उनकी पूरी टीम मेरे और मेरी टीम के बारे में भी ऐसा ही महसूस करती होंगी। बाकी दुनिया हमें जहां एक साथ, एक-दूसरे का समर्थन करते हुए, अच्छा काम करते हुए, पहचानती है तो मुझे और भी खुशी महसूस होती है।

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फिल्म ‘द शेमलेस’ की कहानी दो महिलाओं के जीवन पर आधारित है। यह दिल्ली के वेश्यालय में काम कर रही रेणुका की कहानी है, जो एक रात एक पुलिसवाले का मर्डर करके फरार हो जाती है। रेणुका भागकर उत्तर भारत में वेश्याओं के एक जमघट में शरण लेती हैं, जहां उनकी मुलाकात देविका से होती है। देविका एक कम उम्र की युवती हैं, जो वेश्या का जीवन जीने को मजबूर हैं। रेणुका और देविका साथ मिलकर कानून और समाज से बचने के लिए एक खतरनाक रास्ते पर निकल पड़ती हैं। उनका मकसद है हमेशा के लिए आजादी पाना। एस नाइक की ‘सनफ्लावर वेयर द फर्स्ट वंस टू नो’ को ला सिनेफ (फिल्म स्कूल फिक्शन या एनिमेटेड फिल्में) श्रेणी में प्रथम पुरस्कार मिला। कन्नड़ लोककथा पर आधारित यह फिल्म एक बूढ़ी औरत पर आधारित है, जो मुर्गा चुरा लेती है। इसके बाद गांव में सूरज उगना बंद हो जाता है। इससे पहले कांस महोत्सव के लिए चुनी गईं भारतीय फिल्मों में मृणाल सेन की ‘खारिज’ (1983), एमएस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ (1974), सत्यजीत राय की ‘पारस पत्थर’ (1958), राज कपूर की ‘आवारा’ (1953) वी शांताराम की अमर भूपाली (1952) और चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ (1946) शामिल हैं।

मुंबई में जन्मी पायल कपाड़िया ने प्रारंभिक शिक्षा आंध्र प्रदेश से ली। इसके बाद उन्होने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएशन किया। बाद में सोफिया कॉलेज से मास्टर्स की पढ़ाई की। इसके बाद वह फिल्म डायरेक्शन की पढ़ाई करने के लिए फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) से जुड़ गईं। पायल की मां नलिनी मालिनी भारत की फर्स्ट जनरेशन वीडियो आर्टिस्ट हैं। पायल इससे पहले भी कान फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड जीत चुकी हैं। उन्होंने 2021 में ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ नाम की एक डॉक्यूमेंट्री डायरेक्ट की थी। इसे कान फिल्म फेस्ट में 2021 में द गोल्डन आई अवार्ड मिला था। यह अवार्ड फेस्टिवल की बेस्ट डॉक्यूमेंट्री को दिया जाता है। ‘द पाल्मे ड’ओर’ जीतने वाली पायल कपाड़िया ने 2014 में पहली फिल्म ‘वाटरमेलन’ और ‘फिश एंड हाफ घोस्ट’ बनाई थी। इसके बाद 2015 में ‘आफ्टर क्लाउड’ साल 2017 में ‘द लास्ट मैंगो बिफोर द मानसून’ बनाई। पायल ने 2018 में एक डॉक्यूमेंट्री ‘एंड व्हाट द समर सेइंग’ भी बनाई थी। पायल की फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ का प्रीमियर 23 मई को जब फेस्टिवल दिखाई गई तो उसे काफी सराहा गया। यहां तक कि इसे 8 मिनट का स्टैंडिंग ओवेशन भी मिला था।

पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एस लाइट’ केरल की दो नर्सों की कहानी पर आधारित है। फिल्म के अनुसार दोनों नर्सें मुंबई में रहती हैं। इस फिल्म में कानी कस्तूरी, दिव्या प्रभा और छाया कदम ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं हैं। यह हिंदी फीचर फिल्म है, जो दो नर्सों (प्रभा और अनु) की कहानी है, जो साथ रहती है। प्रभा अरेंज्ड मैरिज की है। उसका पति विदेश में रहता है। अनु प्रभा से छोटी हैं और उसकी शादी नहीं हुई। वह एक लड़के से प्यार करती हैं। प्रभा और अनु अपने दो दोस्तों के साथ एक ट्रिप पर जाती हैं। वहां उन्हें आज़ादी के मायने समझ आते हैं। यह फिल्म समाज में महिला होने का मतलब समझाती है। एक महिला का जीवन और उसकी आज़ादी जैसे मसलों पर बात करती है।

कांस फिल्म फेस्टिवल में ‘द पाल्मे ड’ओर’ का सर्वोच्च सम्मान, शॉन बेकर की सेक्स वर्कर स्क्रूबॉल कॉमेडी ‘एनोरा’ को मिला। पुरस्कार की घोषणा के बाद मंच पर पहुंचे बेकर ने ज्यूरी का धन्यवाद किया। बेकर ने कहा कि कांस का सर्वोत्तम पुरस्कार जीतना एक फिल्म निर्माता के रूप में पिछले 30 साल से मेरा सपना रहा है। ‘कांस’ में सर्वोच्च पुरस्कार ‘द पाल्मे ड’ओर’ अब तक किसी भी भारतीय फिल्म को नहीं मिला। दूसरे नंबर का सर्वोच्च पुरस्कार जरूर मिला। इसके अलावा मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ ने 1988 कांस फिल्म फेस्टिवल में ‘कैमरा ड’ और’ पुरस्कार जीता था। सितंबर 11 आतंकी हमलों से कुछ दिन पहले, नायर की 2001 की क्लासिक फिल्म ‘मानसून वेडिंग’ वेनिस फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन लायन जीती थी। निर्देशक ऋतेश बत्रा की 2013 की प्रशंसित फिल्म ‘द लंचबॉक्स’ ने कांस में ‘ग्रैंड गोल्डन रेल’ पुरस्कार जीता।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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