Silver Screen:अब पहले जैसी नहीं रही फिल्मों की नायिका

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Silver Screen:अब पहले जैसी नहीं रही फिल्मों की नायिका

 

फिल्मों के बारे में एक आम धारणा रही है कि इसमें एक नायक होता है और एक नायिका। फिल्म की कहानी पूरी तरह नायक पर केंद्रित होती है और नायिका उससे प्रेम करती है, प्रेम गीत गाती है और फिल्म के अंत में दोनों की शादी हो जाती है। आशय यह कि फिल्म की कहानी में नायिका का बहुत ज्यादा योगदान नहीं होता। यह आज की बात नहीं है, बरसों से यही होता आया है। लेकिन, बदलते समय ने नायिका की छवि को काफी हद तक खंडित कर दिया। अब नायिका सिर्फ प्रेमिका तक सीमित नहीं रही, उससे बहुत आगे निकल गई। याद कीजिए पुरानी फिल्म ‘खानदान’ में एक गीत था ‘तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम ही देवता हो!’ ये गीत सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माया गया था। वास्तव में ये गीत पत्नी का पति के प्रति अगाध प्रेम का प्रतीक माना जा सकता है। लेकिन, आज किसी फिल्म में इस तरह का कोई गीत हो, तो क्या दर्शक उसे पसंद करेंगे?

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पत्नी का पति से प्रेम अपनी जगह है, पर क्या नायिका के समर्पण का ये पूजनीय अंदाज सही है! जब ये फिल्म बनी, तब सामाजिक दृष्टिकोण से इसे स्वीकार किया गया हो, पर आज के संदर्भ में सिर्फ पति को पूजनीय मान लेने से बात नहीं बनती! समाज में भी और फिल्मों में भी आज ऐसी पत्नी या नायिका को पसंद किया जाता है, जो प्रैक्टिकल हो! वास्तव में हिंदी फिल्मों में नायक के किरदार उतने नहीं बदले, जितने नायिकाओं के! आजादी के बाद जब समाज मनोरंजन के लिए थोड़ा अभ्यस्त हुआ, तो फिल्मों में नायिका को नायक की सहयोगी की तरह दिखाया जाने लगा। तब सामाजिक दृष्टिकोण से भी यह जरुरी था। लेकिन, वक़्त के बदलाव ने फिल्मों की नायिका के किरदार को भी बदल दिया। अब नायिका को एक जरुरी फैक्टर की तरह नहीं रखा जाता।

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सौ साल से ज्यादा पुरानी हिंदी फिल्मों की अधिकांश कहानियां नायक केंद्रित होती थी। इक्का-दुक्का फ़िल्में ही ऐसी नजर आती है, जिसका केंद्रीय पात्र नायिका हो! लेकिन, अब ऐसा नहीं है। याद कीजिए ‘सुई-धागा’ को, जिसकी नायिका परेशान पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसकी मदद करती है। उसका आत्मविश्वास जगाकर उसे सहारा देती है। लेकिन, ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस कितने निर्माता कर पाते हैं? फिल्मकारों को लगता है कि नायक के सिक्स-पैक और मारधाड़ ही दर्शकों की डिमांड है! वे कहानी में नायिका की जगह तो रखते हैं, पर उसके कंधों पर इतना भरोसा नहीं करते कि वो फिल्म को बॉक्स ऑफिस की संकरी गली से निकाल सकेगी! जब ‘दामिनी’ आई थी, तो किसने सोचा था कि ये फिल्म के नायक सनी देओल के अदालत में चीख-चीखकर बोले गए संवाद से कहीं ज्यादा मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार के कारण पसंद की जाएगी?

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दरअसल, बॉक्स ऑफिस को लेकर फिल्मकारों का अज्ञात भय ही नायिका को परम्पराओं की देहरी पार नहीं करने देता तय! हर बार नायिका में सहनशील और परम्परावादी नारी की छवि दिखने की कोशिश की जाती। इस वजह से नायिकाओं ने लंबे अरसे तक अपनी महिमा मंडित छवि को बनाए रखने के लिए त्याग, ममता और आंसुओं से भीगी इमेज को बनाए रखा। लेकिन, अब जरुरत है सुई धागा, छपाक, कहानी, क्वीन और ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ जैसी फिल्मों की जिसकी नायिका फिल्म कथानक में बराबरी की हिस्सेदारी रखती है। ‘अभिमान’ वाली जया भादुड़ी जैसे किरदार अब बीती बात हो गई! जया का वो किरदार उस वक़्त की मांग थी, जो पति को आगे बढ़ने का मौका देने के लिए अपना कॅरियर त्याग देती है। आज दर्शकों को न तो ऐसी फिल्मों की जरूरत है और ऐसे किरदारों की!

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बेआवाज फिल्मों से ‘अछूत कन्या’ और ‘मदर इंडिया’ के बाद से सुजाता, बंदिनी, दिल एक मंदिर और ‘मैं चुप रहूंगी’ तक नायिकाएं परदे पर सबकी प्रिय बनी रहीं। इन नायिकाओं ने मध्यवर्गीय पुरातन परिवार के दमघोंटू माहौल में अपनी किस्मत को कोसते हुए ‘मैं चुप रहूंगी’ जैसी फिल्मों का दौर भी देखा है। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगें’ से लेकर ‘हम दिल दे चुके सनम’ तक में करवा चौथ का माहौल भी देखा है। हिंदी फिल्मों में बनने वाली ज्यादातर फिल्मों में हीरो ही कहानी का केंद्रीय बिंदु होता रहा है। फिल्मों का हिट या फ्लॉप होना उसी पर निर्भर करता है। ऐसे में यह माना जाता है कि यदि किसी फिल्म में दमदार हीरो है, तो बॉक्स ऑफिस पर वह हिट साबित होगी। लेकिन, हिंदी की माइल स्टोन फिल्म ‘मदर इंडिया’ (1957) महिला प्रधान फिल्म है। नरगिस दत्त की भूमिका वाली इस फिल्म की लोकप्रियता का अंदाज़ इससे लगा सकता है कि विदेश तक में चर्चित हुई। यह फिल्म महज एक वोट से ऑस्कर जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड से चूक गई थी। फिल्म में नरगिस ने ऐसी गरीब महिला ‘राधा’ का किरदार निभाया जो न्याय के लिए अपने बेटे तक को गोली मार देती है। 1987 में आई फिल्म ‘मिर्च मसाला’ में महिला सशक्तिकरण की गहरी छाप थी। मसाले कूटने वाली स्मिता पाटिल ने ‘सोन बाई’ का ऐसा किरदार निभाया, जो दबंग सूबेदार नसीरुद्दीन शाह तक की नहीं सुनती। कुख्यात डकैत फूलन देवी की कहानी पर आधारित फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) में सीमा विश्वास ने फूलन देवी के मासूम महिला से डकैत बनने तक के सफर और उनके बदले की कहानी को दिखाया था।

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विद्या बालन ने सस्पेंस और थ्रिल से भरपूर फिल्म ‘कहानी’ और उसके सीक्वल में गजब की भूमिका की। फिल्म ऐसी महिला की कहानी है, जो अपने पति की मौत का बदला लेने के लिए अंडर कवर एजेंट के तौर पर काम करती है और आतंकवाद का सफाया करती है। कंगना रनोट की फिल्म ‘क्वीन’ (2014) भी ऐसी लड़की की कहानी है, जिसका पति शादी से ठीक पहले उसे छोड़ देता है। ऐसे में कंगना पहले से बुक हनीमून टूर पर अकेले ही निकल जाती है। उसकी यह यात्रा पूरी लाइफ बदल देती है। ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ भी इसी स्तर की फिल्म है जिसमें एक औरत का संघर्ष बताया गया। अब ऐसी फिल्मों का चलन बढ़ रहा है। विद्या बालन ने डर्टी पिक्चर्स, तुम्हारी सुलु, शेरनी और ‘कहानी’ जैसी फिल्मों में काम करके हीरोइन की परिभाषा बदल दी। इन फिल्मों में नायिका की खूबसूरती को नहीं उसकी ताकत को दिखाया गया था।
आलिया भट्ट ने अपनी फिल्मों में कई ऐसे ही किरदार किए जो महिलाओं की कमसिन छवि को तोड़ता है। गंगूबाई काठियावाड़ी, हाईवे और ‘राजी’ ऐसी ही कुछ फिल्में हैं जो पूरी तरह नायिका केंद्रित रही। कृति सेनन वैसे तो नई अभिनेत्री है, पर फिल्म में उन्होंने सरोगेट मदर की भूमिका निभाई, जो अपने आप में अनोखा किरदार है। प्रियंका चोपड़ा ने भी कुछ इसी तरह की फिल्मों के काम किया। तापसी पन्नू ने पिंक, थप्पड़, हसीन दिलरूबा, रश्मि और ‘रॉकेट’ में महिलाओं के व्यक्तित्व के हर रंग को दिखाया है। लेकिन, सिनेमा का इतिहास बताता है कि हर दौर में ऐसी नायिकाएं भी सामने आईं हैं, जिन्होंने इस मिथक को तोड़ा है। समाज के लिए वे मुक्ति का आख्यान हैं, लेकिन अब इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही हो पाईं! पर, अब यंग इंडिया की सोच बदल रही है। इसलिए महिलाओं के प्रति भी सोच बदलने की जरूरत है। लड़की है, तो खाना बनाएगी और लड़का है तो काम करेगा। ये विचारधारा अब नहीं चलती! समाज और लोगों की सोच में बदलाव आया है, लेकिन अभी फिल्मों में बहुत कुछ बदलना बाकी है।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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