Silver Screen: शहनाई, सारंगी, ढपली और सितार सिने संगीत में लाए बहार!

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भारतीय शास्त्रीय संगीत को फिल्म संगीत की जान माना जाता है। राग और ताल मिलकर फिल्म संगीत को पूर्णता देते हैं। लेकिन, फ़िल्मी गीतों को समृद्धता देने में सबसे अहम भूमिका रही देसी वाद्य यंत्रों की। सिनेमा के क्लासिकल गीतों में देसी वाद्य यंत्रों तबला, सारंगी, ढोल, ढोलकी और ढपली का जमकर उपयोग किया गया। बड़े गुलाम अली खां साहब की ठुमरी हो या मन्ना डे के गीत सभी में तबला और देसी वाद्य यंत्रों का बखूबी इस्तेमाल हुआ। म्यूजिक डायरेक्टर नौशाद के संगीत करियर का बड़ा हिस्सा शास्त्रीय संगीत से सजे फिल्मी गीतों का ही रहा। इन गीतों में देसी वाद्यों का प्रयोग हुआ। नौशाद ने अपने संगीत में न सिर्फ देसी वाद्य ढोलक, तबला, बांसुरी, शहनाई, जलतरंग, सितार का बखूबी इस्तेमाल किया, बल्कि पश्चिम वाद्य यंत्रों पियानो, एकार्डियन, स्पेनिश गिटार, कांगो और लोंगा आदि को भी अपनाया। उनकी फिल्म ‘जादू’ और ‘आन’ में इन वाद्यों के जादू का एहसास किया जा सकता है।

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संगीतकार मदन मोहन ने भी अपने कालजई गीतों में सितार बजाया। ख़ास बात यह कि इनमें जो सितार बजी, उसका संबंध इंदौर से रहा। उनके अधिकांश गीतों में उस्ताद रईस खान ने सितार बजाया, जो इंदौर से ताल्लुक रखते थे। 1967 में आई फिल्म ‘दुल्हन एक रात की’ के गीत ‘मैंने रंग ली आज चुनरिया सजना तोरे रंग में’ सितार का बेहद खूबसूरत किया गया था। राज कपूर की ‘आवारा’ के गीत ‘घर आया मेरा परदेसी’ में बजी लाला गुणावने की ढोलकी आज भी सुनने वाले को अंदर तक हिला देती है। कई फ़िल्मी गीतों को सजाने का काम इसी ढोलकी ने किया। जिन पुराने फ़िल्मी गीतों में ढोलकी बजाई गई, उन कुछ गीतों में मेरे मन का बावरा पंछी, घर आया मेरा परदेसी, अपलम चपलम घिर आई रे और राधा ना बोले ना बोले रे यादगार गीत हैं।

देव आनंद की फिल्म ‘ज्वेल थीफ’ के गीत ‘होंठों पे ऐसी बात में दबा के चली आई’ में ढोल का बेहतरीन इस्तेमाल था। फिल्म में भी देव आनंद खुद ढोल बजाते नजर आए थे। सबसे पहले ढोलक का प्रयोग 1941 में बनी फिल्म ‘पड़ोसन’ में मास्टर कृष्णराव ने किया था। इस वाद्य का उपयोग ‘ये रात ये चांदनी फिर कहाँ सुन जा दिल की दास्तां’ गाने में किया गया। जबकि, तबले का पहला प्रयोग ‘आलम आरा’ में हुआ। घुंघरुओं की छम-छम देवानंद की फिल्म ‘सीआईडी’ में सुनाई दी। गीत में उसे हाथ से बजाया गया था। ‘ले के पहला पहला प्यार’ गाने में घुंघरुओं की आवाज ने गाने में खास अंदाज दिखाया था। इसके बाद ‘पाकीजा’ और ‘कोहिनूर’ फिल्म के गानों में भी घुंघरू का इस्तेमाल हुआ।

राज कपूर की फिल्म ‘श्री 420’ के गाने ‘मेरा जूता है जापानी’ में खंजरी बजती सुनाई दी थी। चीनी वाद्य खोपड़ी का प्रयोग ‘आइए मेहरबां, बैठिए जानेजां’ में किया गया था। आगे चलकर ओपी नैयर, शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन और आरडी बर्मन ने खोपड़ी का प्रयोग अपने गानों में भी किया। 1965 में कैमरामैन और डायरेक्टर बाबूभाई मिस्त्री ने फिल्म ‘संग्राम’ में संगीतकार तिकड़ी ‘लाला-असर-सत्तार’ को पेश किया। यह एक कम बजट की स्टंट फ़िल्म थी, जिसमें दारा सिंह और गीतांजलि ने काम किया था। इस फिल्म के गीतों की ख़ूबी यह थी कि इनमें शब्दों में भी संगीत छुपा था। डमरू, ढोल, थाप, थैयां-थैयां, छम-छम सब कुछ था। इसकी ख़ास वजह थी, कि यह संगीतकार तिकड़ी रिदम की उस्ताद थी। सत्तार भाई भी ढोलक और तबले के उस्ताद थे। इसलिए उनके गीतों में इन साज़ों की संगत ने जादू जगा दिया। पुरानी फिल्म के गीत लंबी परख और कड़े परिश्रम के बाद तैयार होते थे। भारतीय वाद्यों के इंद्रधनुष में पिरोए गए गाने सुनने में जितना आनंद देते हैं, उतना ही मन को भी सुकून देते हैं। जबकि, आज का फिल्म संगीत सिंथेसाइजर में सिमटकर रह गया।

90 के दशक की शुरुआत तक गानों के मामले में सिनेमा का संगीत अंतर्द्वंद में फंसा रहा! प्रयोग तो किए गए, लेकिन प्रयोगों के चक्कर में साज मर गया। एक समय तो कानफोडू डिस्को संगीत ने मधुर गीतों को पीछे छोड़ दिया। लेकिन, समय अपने आपको बदलता जरूर है। लंबे इंतजार के बाद सिनेमा को मणिरत्नम की फिल्म ‘रोजा’ के साथ एक हुनरमंद संगीतकार जो मिला एआर रहमान! रहमान ने जैज जैसी यूरोपीय संगीत शैलियों को भारतीय फिल्म संगीत में सहजता से पिरो दिया। गीतों के बीच में वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल करने वाले रहमान ने जो समां बांधा वो आज भी पसंद किया जा रहा है।

आजादी के बाद के काल में पंजाबी संगीतकारों का जोर बढ़ा। गुलाम हैदर, जीएम चिश्ती और पंडित अमरनाथ के साथ गीतों में ढोलक का इस्तेमाल सुनाई देने लगा। 40 से 50 का दशक हिन्दी सिनेमा के संगीत का स्वर्णिम काल माना जाता है। इस समय रिकॉर्डिंग और तकनीक के मामले में संगीत ने जोर पकड़ा। ढोलक की थाप और गिटार की संगत हुई। कई तरह के प्रयोग किए गए। इस समय जिन संगीतकारों ने संगीत को आधुनिक शक्ल दी, वो थे नौशाद, एसडी बर्मन और शंकर जयकिशन। खासकर देव आनंद की फिल्मों के उनके मशहूर गाने हों या फिर गुरुदत्त की ‘प्यासा’ के गीत जिनमें गिटार और बेस की ध्वनि पर शब्द पिरोए गए। चालीस से पचास का दशक फिल्म संगीत के हिसाब से मधुर काल था। इस दौर में गीतों की रिकॉर्डिंग और तकनीक के मामले में संगीत संवरा! ढोलक की थाप को गिटार के साथ मिलाकर भी संगीत रचा गया। ऐसे और भी नए प्रयोग किए गए। इस समय जिन संगीतकारों ने संगीत को आधुनिक रूप दिया, उनमें नौशाद, एसडी बर्मन और शंकर जयकिशन। इसी तरह ‘मुगले आजम’ में नौशाद ने जिस तरह आर्केस्ट्रा की भव्यता का अहसास कराया उसमें कई देसी वाद्य थे।

फिल्म संगीत में सारंगी का भी बहुत उपयोग हुआ। विरह और विदाई गीतों में सारंगी अजब सा समां बांधती है। संगीत के जानकार 1963 में आई ‘ताजमहल’ के गीतों में सारंगी के प्रयोग को सबसे बेहतरीन मानते हैं। फिल्म के संगीतकार रोशन के संगीतबद्ध किए गीत ‘पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी’ के अलावा इसी फिल्म के दूसरे गीत ‘जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं’ को सुना जाए तो लगता है कि सारंगी कितना विशिष्ट साज है। प्रेम से पगी इस फ़िल्म में सारंगी का अच्छा इस्तेमाल हुआ है। इसी फ़िल्म का एक और गीत है ‘जुर्मे उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं’ इसमें सारंगी मोहब्बत के एक ऐलान में लता मंगेशकर की आवाज के साथ इस तरह संगत करती है। रोशन साहब के संगीत में सारंगी के ख़ूबसूरत इस्तेमाल की कुछ और मिसालें। ‘सलामे हसरत क़बूल कर लो, मेरी मोहब्बत क़बूल कर लो’ (बाबर, 1960), ‘मैंने शायद तुम्हें पहले भी कहीं देखा है (बरसात की रात, 1960), ‘रहते थे कभी जिनके दिल में’ (ममता, 1966) और 1967 की फिल्म ‘नूरमहल’ में बहुत ही सधा हुआ इस्तेमाल किया गया है।

नौशाद साहब ने सारंगी का अपनी कई फिल्मों में सुंदर प्रयोग किया। ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी दिलीप कुमार की ‘गंगा जमुना’ का लता मंगेशकर का दर्द भरा गीत ‘दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे, ग़जब भयो रामा, जुलम भयो रे’ में सुनने वाले को दर्द की आहट साफ़ सुनाई देती है। इसी फ़िल्म में दिलीप कुमार मस्ती में ‘नैन लड़ जइहैं, तो मनवा मा कसक होईबे करी’ गाते हैं तो बीच में सारंगी का मस्ती भरा अंदाज सुनाई देता है। सारंगी में दूसरा बड़ा नाम था उस्ताद सुल्तान ख़ान का। उन्होंने ख़य्याम के साथ फ़िल्म ‘उमराव जान’ (1981) का गीत सुना जा सकता सकता है। दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए, इन आंखों की मस्ती के अफ़साने हजारों हैं, जिंदगी जब भी तेरी बाँहों में लाती है हमें और अगर उनकी ख़ूबसूरत और बुलंद आवाज गायकी सुननी हो तो फ़िल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ का ‘अलबेला सजन आयो रे’ सुन देखिए।

संगीतकार ओ पी नैयर ने जिन साज़ों को अपने संगीत में सबसे ज्यादा प्रमुखता दी सारंगी उनमें से एक है। फ़िल्म ‘दिल और मुहब्बत (1968) का एक बहुत ही हसीन गीत है ‘हाथ आया है जब से तेरा हाथ में, आ गया है नया रंग जज्बात में।’ ओपी नैयर के गीतों में सारंगी इस्तेमाल फिल्म ‘काश्मीर की कली’ के गीत ‘इशारों-इशारों में दिल लेने वाले’ और ‘दीवाना हुआ बादल के अलावा ‘एक मुसाफ़िर एक हसीना’ में ‘हमको तुम्हारे इश्क़ ने क्या-क्या बना दिया, ‘सावन की घटा (1966) में ‘जुल्फ़ों को हटा ले चेहरे से, थोड़ा-सा उजाला होने दे’ में सुनाई देता है।

मदन मोहन को ग़जल का बादशाह कहा जा सकता है! पर, उन्होंने भी सारंगी का कई बार अच्छा इस्तेमाल किया। 1958 में आई फ़िल्म ‘अदालत’ में ‘यूं हसरतों के दाग़, मोहब्बत में धो लिए’ और ‘उनको ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते’ में उस्ताद रईस ख़ान के सितार के अलावा सारंगी भी खूब बजी। सी रामचंद्र ने भी सारंगी का अपने गीतों में शामिल किया। ‘शिन सिनाकी बूबला बू’ के गीत ‘तुम क्या जानो, तुम्हारी याद में हम कितना रोए’ को जिसने भी सुना सारंगी को भूला नहीं होगा। दत्ताराम ने भी ‘परवरिश’ के लिए भी ऐसा ही नग़मा सारंगी के साथ रचा था। मुकेश की आवाज़ में इस फ़िल्म में ”सू भरी हैं ये जीवन की राहें कोई उनसे कह दे, हमें भूल जाएं’ कोई कैसे भूल सकता है। 30 दशक पुरानी फिल्म ‘हीरो’ (1983) में बांसुरी की धुन बहुत पसंद की गई थी। लेकिन, उसके बाद कई फ़िल्मी गीत रचे गए, पर देसी वाद्य संगीत की उतनी प्रभावशाली धुन सुनाई नहीं दी। जैकी श्रॉफ ने फिल्म में जो धुन बजाई थी, वो बांसुरी वादकों का प्रतीक बन गई। वैसे तो ‘लावारिस’ (1981) के गीत ‘अपनी तो जैसे तैसे’ गीत में डफली सुनाई दी थी। फिल्म ‘सरगम’ (1979) के कई गीतों में डफली और घुंघरू सुनाई दिए, पर बाद में ऐसे गीतों नहीं बने! इसे फिल्मों के कथानक की कमजोरी कहा जाए या संगीतकारों की प्रयोगधर्मिता जो भी हो, लेकिन फ़िल्मी गीतों से देसी वाद्य यंत्र एक तरह से विदा हो गए!

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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