Silver Screen:फिल्मों में गीतों का अलग ही असर, बिना गीतों की फ़िल्में भी दर्शकों की पसंद!

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Silver Screen:फिल्मों में गीतों का अलग ही असर, बिना गीतों की फ़िल्में भी दर्शकों की पसंद!

– हेमंत पाल

फिल्मों में सिर्फ कथानक और अभिनय ही नहीं होता। इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा होता है, जो कहानी में इस तरह घुल मिल जाता है कि न तो नजर आता है और न समझ आता है। इसलिए कि फिल्मों की दुनिया वास्तव में बड़ी अजीब है। जैसे नमक के बिना खाने के स्वाद की कल्पना करना मुश्किल है, उसी तरह गानों के बगैर फिल्मों के बारे में सोचना भी उतना ही मुश्किल है। कोई फिल्म अपने गानों की वजह से लोकप्रिय हो जाती है, तो कुछ फ़िल्में हिट तो हो जाती है, पर उनके गाने दर्शकों जुबान पर नहीं चढ़ पाते। जहां तक राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार और राजेश खन्ना जैसे सितारों की बात की जाए, तो इन्होने परदे पर गाने गाते हुए झूमकर ही अपनी पहचान बनाई। कुछ फिल्में ऐसी भी हैं, जो केवल एक गाने के कारण बाॅक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ इकट्ठा करने में कामयाब रही। कभी ये कव्वाली रही, कभी ग़ज़ल तो कभी शादियों में गाए जाने वाले गीत! लेकिन, कुछ ऐसी भी फ़िल्में बनी, जिनमें कोई गाना नहीं था, पर उन्होंने भी सफलता के झंडे गाड़े।

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एक गीत की बदौलत बाॅक्स ऑफिस पर सिक्कों की बरसात कराने में संगीतकार रवि बेजोड़ रहे। उनकी एक नहीं, कई ऐसी फिल्में हैं, जो केवल एक गाने के कारण दर्शकों ने बार-बार देखी! ऐसी ही फिल्मों में एक है शम्मी कपूर की ‘चाइना टाउन’ जिसका गीत ‘बार बार देखो, हजार बार देखो’ तब जितना मशहूर हुआ था, आज भी उतना ही मशहूर है। शादी ब्याह से लेकर पार्टियों में जहां कई नौजवानों को संगीत के साथ थिरकना होता है, इसी गीत की डिमांड होती है। रवि की दूसरी फिल्म है ‘आदमी सड़क का’ जिसका गीत ‘आज मेरे यार की शादी है’ बारात का नेशनल एंथम बनकर रह गया है। इसके बिना दूल्हे के दोस्त आगे ही नहीं बढ़ते! इसी तरह दुल्हन की विदाई पर ‘नीलकमल’ का रचा गीत ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ ने दर्शकों की आंखें नम तो की, फिल्म की सफलता में भी बहुत योगदान दिया। देखा जाए तो हिंदी फिल्मों का मिजाज बड़ा अजीब है, कभी फिल्में दर्जनों गानों के बावजूद हिट नहीं होती तो कभी बिना गाने और महज एक गाने के दम पर बाॅक्स ऑफिस पर सारे कीर्तिमान तोड़ देती है।

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रवि ने आरएटी रेट (दिल्ली का ठग), तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा (दस लाख ), मेरी छम छम बाजे पायलिया (घूंघट), हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं (घराना), हम तो मोहब्बत करेगा (बाम्बे का चोर), ए मेरे दिले नादां तू गम से न घबराना (टावर हाउस ), सौ बार जनम लेंगे सौ बार फना होंगे (उस्तादों के उस्ताद), आज की मुलाकात बस इतनी (भरोसा), छू लेने दो नाजुक होंठों को (काजल ), मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी कभी (आंखें), तुझे सूरज कहूँ या चंदा (एक फूल दो माली), दिल के अरमां आंसुओं में बह गए (निकाह) जैसे एक गीत की बदौलत पूरी फिल्म को दर्शनीय बना दिया!

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फिल्मों को बाॅक्स आफिस पर कामयाबी दिलवाने वाले अकेले गीतों में दिल के टुकडे टुकडे करके मुस्कुरा के चल दिए (दादा), आई एम ए डिस्को डांसर (डिस्को डांसर), बहारों फूल बरसाओ (सूरज), परदेसियों से न अखियां मिलाना (जब जब फूल खिले), चांद आहें भरेगा (फूल बने अंगारे), चांदी की दीवार न तोड़ी (विश्वास), शीशा हो या दिल हो (आशा), यादगार हैं। सत्तर के दशक में एक फिल्म आई थी ‘धरती कहे पुकार के’ जिसका एक गीत ‘हम तुम चोरी से बंधे इक डोरी से’ इतना हिट हुआ था कि इसी गाने की बदौलत यह औसत फिल्म सिल्वर जुबली मना गई। इंदौर के अलका थिएटर में तो उस दिनों प्रबंधकों को फिल्म चलाना इसलिए मुश्किल हो गया था कि कॉलेज के छात्र रोज आकर सिनेमाघर में जबरदस्ती घुस आते और इस गाने को देखकर ही जाते थे। कई बार तो ऐसे मौके भी आए जब रील को रिवाइंड करके छात्रों की फरमाइश पूरी करना पड़ी।

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हिंदी सिनेमा में एक दौर ऐसा भी आया जब किसी सी-ग्रेड फिल्म की एक कव्वाली ने दर्शकों में गजब का क्रेज बनाया था। इस तरह की फिल्मों में स्टंट फिल्म बनाने वाले फिल्मकार और आज के सफल समीक्षक तरूण आदर्श के पिता बीके आदर्श निर्मित फिल्म ‘पुतलीबाई’ भी शामिल है। फिल्म की नायिका आदर्श की पत्नी जयमाला थी। इस फिल्म की एक कव्वाली ‘ऐसे ऐसे बेशर्म आशिक हैं ये’ ने इतनी धूम मचाई थी, कि सी-ग्रेड फिल्म ‘पुतलीबाई’ ने उस दौरान प्रदर्शित सभी फिल्मों को पछाड़ते हुए सिल्वर जुबली मनाई थी। इसके बाद तो हर दूसरी फिल्म में कव्वाली रखी जाने लगी। ‘पुतलीबाई’ के बाद एक और फिल्म आई थी नवीन निश्चल, रेखा और प्राण अभिनीत ‘धर्मा’ जिसमें प्राण और बिंदू पर फिल्माई कव्वाली ‘इशारों को अगर समझो राज को राज रहने दो’ ने सिनेमा हाॅल में जितनी तालियां बटोरी बॉक्स ऑफिस पर उससे ज्यादा सिक्के लूटने में सफलता पाई। इसके बाद कव्वाली का दौर थमा,तो फिल्मकारों ने इससे पीछा छुड़ाकर फिर गजलों पर ध्यान केंद्रित किया। एक गजल से सफल होने वाली फिल्मों में राज बब्बर, डिम्पल और सुरेश ओबेराय की फिल्म ‘एतबार’ (किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है) और ‘नाम’ (चिट्ठी आयी है) प्रमुख हैं।

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बॉलीवुड के इतिहास में बिना गीतों वाली पहली फिल्म ‘कानून’ को माना जाता है, जो 1960 आई थी। इसे बीआर चोपड़ा ने निर्देशित किया था। ये फिल्म कानूनी पैचीदगियों के बीच से एक वकील के दांव-पेंच की कहानी थी, जो हत्यारे को बचा लेता है। इसमें सवाल उठाया गया था कि क्या एक ही अपराध में किसी व्यक्ति को दो बार सजा दी जा सकती है? ये फिल्म इसी सवाल का जवाब ढूंढती है। इस फिल्म में अशोक कुमार ने एक वकील का किरदार निभाया था। बगैर गीतों वाली दूसरी फिल्म थी ‘इत्तेफ़ाक़’ जिसे 1969 में यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था। राजेश खन्ना और नंदा ने इसमें मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। यह फिल्म एक रात की कहानी है, जिसमें दर्शक बंधा रहता है। गीतों के बिना भी ये फिल्म पसंद की गई थी। यह फिल्म हत्या से जुड़े एक रहस्य पर आधारित थी, यही कारण था कि दर्शको को फिल्म में गीत न होना खला नहीं।

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बरसों बाद श्याम बेनेगल ने 1981 में ‘कलयुग’ बनाकर इस परम्परा की याद दिलाई थी। इसमें शशि कपूर, राज बब्बर और रेखा मुख्य भूमिकाओं में थे। महाभारत से प्रेरित इस फिल्म में दो व्यावसायिक घरानों की दुश्मनी को नए संदर्भों में फिल्माया गया था। बदले की कहानी पर बनी इस फिल्म में कोई गाना न होने के बावजूद इसे पसंद किया गया था। इसे ‘फिल्म फेयर’ का सर्वश्रेष्ठ फिल्म (1982) का पुरस्कार भी मिला। इसके अगले साल 1983 में आई कुंदन शाह की कॉमेडी फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ आई जिसमें नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, ओमपुरी और सतीश थे। ये एक मर्डर मिस्ट्री थी, जिसने व्यवस्था पर भी करारा व्यंग्य किया था।

 

 

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बिना गीतों की फिल्म की सबसे बड़ी खासियत होती है पटकथा का कसा होना। यदि फिल्म की कहानी इतनी रोचक है कि वो दर्शकों को बांधकर रख सकती है, तो फिर गीतों का न होना कोई मायने नहीं रखता! इस तरह की अगली फिल्म 1999 में रामगोपाल वर्मा की आई। ये रोमांचक कहानी वाली फिल्म थी ‘कौन है!’ इसमें मनोज बाजपेयी, सुशांत सिंह और उर्मिला मातोंडकर ने काम किया था। इस फिल्म की पटकथा इतनी रोचक थी, कि दर्शकों को हिलने तक का मौका नहीं मिला था। 2005 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘ब्लैक’ जिसने भी देखी, उसे पता भी नहीं चला होगा कि फिल्म में कोई गीत नहीं था। अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी की ये फिल्म एक अंधी और बहरी लड़की और उसके टीचर की कहानी थी। इस फिल्म को कई अवॉर्ड्स भी मिले थे।

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इसके अलावा बिना गीतों वाली कुछ और उल्लेखनीय फिल्मों में 2003 में रिलीज हुई ‘भूत’ थी, जिसका निर्देशन राम गोपाल वर्मा ने किया था। इस फिल्म में अजय देवगन, फरदीन खान, उर्मिला मातोंडकर और रेखा थे। ये डरावनी फ़िल्म थी और इसमें एक भी गीत नहीं था। फिल्म ‘डरना मना है’ में सैफ अली खान, शिल्पा शेट्टी, नाना पाटेकर और सोहेल खान थे। इस फिल्म में भी कोई गीत नहीं था, फिर भी यह हिट हुई। 2008 में आई ‘ए वेडनेसडे’ अपनी कहानी के नयेपन की वजह से सुर्खियों रही थी। फिल्म में एक आम आदमी की कहानी थी, जो व्यवस्था से परेशान होकर खुद उससे टक्कर लेता है। 2013 की फिल्म ‘द लंचबॉक्स’ दो अंजान अधेड़ प्रेमियों की कहानी थी, जो लंच बॉक्स जरिए प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान करते हैं। इस फ़िल्म में इरफान खान ने बहुत अच्छी एक्टिंग की थी। ऐसी ही कॉमेडी फिल्म ‘भेजा फ्राई’ 2007 में आई थी। लेकिन, कमजोर कहानी वाली इस फिल्म को पसंद नहीं किया गया। इसमें विनय पाठक, रजत कपूर और मिलिंद सोमन थे।