Silver Screen : परदे के नायक कभी पागल, कभी जख्मी, कभी घायल! 

965

Silver Screen : परदे के नायक कभी पागल, कभी जख्मी, कभी घायल! 

 

प्रेम में असफल प्रेमियों को लेकर अकसर कई किस्से सामने आते रहते हैं। ऐसे हालात में प्रेमिकाएं तो समझौता कर लेती हैं, पर कुछ प्रेमी अपनी असफलता को सहन नहीं कर पाते और बदले की भावना पर उतर आते हैं। उन्हें बेवफाई इतनी ज्यादा खलती है, कि उनकी भावना हिंसात्मक हो जाती है।

IMG 20230428 WA0133
समाज में ऐसे किस्सों की कमी नहीं, जब प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को ही मार दिया या फिर ये बदला उसके परिवार या उस व्यक्ति से लिया जो उसके प्रेम में आड़े आया! ये सब अनंतकाल से चलता आ रहा है। राजा-महाराजाओं के समयकाल से या संभव है उससे भी पहले से। इसलिए कि प्रेम वो उद्दात भावना है, जो अपने बीच किसी तीसरे की मौजूदगी सहन नहीं करती। समाज में घटने वाली इन घटनाओं में इतना फ़िल्मी मसाला होता है, कि इसे फिल्मकारों ने हाथों-हाथ लिया। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से ऐसी फ़िल्में बनती रही है। फर्क सिर्फ इतना आया कि तब नायक में त्याग की भावना इतनी ज्यादा जागृत हो जाती थी, कि वो अपने प्रेम को तीसरे के लिए छोड़ देता था। पर, अब ऐसा नहीं होता। आज की फिल्मों का नायक तो प्रेम की असफलता पर मनोविकार से ग्रस्त लगता है। वो बदला भी लेता है और पागलपन की सीमा तक लांघने से नहीं चूकता!

IMG 20230428 WA0128
आज की फिल्मों में नायक को प्रेम के प्रति इतना गंभीर बताया जाता है, कि वो नायिका को अपनी जागीर समझता है! यदि वो उसे नहीं मिलती, तो उसे ख़त्म करने से भी नहीं हिचकिचाता! समाज में घट रही ऐसी घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार और व्यक्ति की असंवेदनहीनता पर मुहर लगाती हैं। आज के युवाओं को प्रेम की असफलता उसके अहंकार पर चोट जैसी लगती है। वह घर, परिवार, समाज की बनाई सारी सीमाएं तोड़ने में पीछे नहीं हटता! लेकिन, सवाल उठता है कि फ़िल्मी नायक को आखिर ये प्रेरणा आई कहाँ से, उसे समाज से तो नहीं मिली, तो क्या फिर फिल्मों ने ही फिल्मों को ऐसे कथानक रचने के लिए प्रेरित किया है! बदलते सामाजिक जीवन मूल्यों की बानगी पेश करके दर्शकों का नए आयामों से साक्षात्कार फ़िल्में ही तो कराती हैं।

IMG 20230428 WA0130
सामान्यतः फिल्मों के नायक को मर्यादित आचरण वाला, सर्वगुण संपन्न और नकारात्मकता से बहुत दूर आदर्श पुरुष माना जाता है! अभी तक यही सब दिखाया भी जाता रहा है। लेकिन, कुछ फिल्मों में जब नायक अपने इस चरित्र से हटता है, तब भी वह नायक ही रहता है! फिर क्या कारण था कि प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आसक्त नायक कुछ फिल्मों में हिंसक एवं क्रूर प्रेमी बना? यह सवाल वस्तुतः एक समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय भी बन सकता है। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में प्रेम के विकृत रूप का परिचय कराती है, जो प्रेम के संस्कारों में नहीं होता।

IMG 20230428 WA0132
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ ऐसी फ़िल्में भी बनी, जिसमें नायक मनोविकार से ग्रस्त दर्शाया गया। एक समय ऐसा भी था, जब शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम कहानियों वाली फिल्मों के महानायक बन गए थे। मनोविकार से ग्रस्त प्रेमी को नए ज़माने के नायकों में पहली बार परदे पर शाहरुख खान ने ही चरितार्थ किया। ‘बाजीगर’ से प्रेम में हिंसा का जो दौर शुरू हुआ था, उसे बाद में ‘डर’ और ‘अंजाम’ से विस्तार मिला! इसी मनोविकारी नायक वाली छवि ‘अग्निसाक्षी’ में नाना पाटेकर की दिखी! इसमें नाना पाटेकर ‘स्लीपिंग विद द एनमी’ के नायक जैसे पति साबित होते हैं। ‘नाना इस फिल्म में प्रेम के दुश्मन के रूप में नजर आए थे। ऐसा पति जिसे पत्नी की तरफ किसी देखना भी गवारा नहीं था! ‘अग्निसाक्षी’ के साथ ही फिल्म ‘दरार’ बनी थी, जिसमें अरबाज खान ने खतरनाक प्रेमी की भूमिका निभाई थी। जिद का असफल प्रेमी सनी देओल भी पागलपन की हद लांघकर मरने मारने पर उतारू हो जाता है। ‘सदमा’ का असफल प्रेमी कमल हासन भी फिल्म के आखिरी सीन में रेलवे स्टेशन पर बंदरों जैसी हरकत करने लगता है।

IMG 20230428 WA0131
‘खिलौना’ के असफल पागल प्रेमी संजीव कुमार ने भले ही परदे पर हिंसा नहीं की हो, लेकिन दुष्कर्म करने की खता तो वो कर ही बैठता है। फिल्मों में कुछ पागल प्रेमी मरने मारने पर तो उतारू नहीं होते, लेकिन पागलखाने जाकर ऊल-जलूल हरकतें जरूर करने लगता है। हेलेन के प्रेम में पागल शम्मी कपूर ‘भैंस को डंडा’ मारने पर उतारू हो जाता है। 90 के दशक की शाहरुख़ खान की इन फिल्मों ने प्रेम में नफरत के तड़के का रूप प्रदर्शित किया था। ये ऐसे नायक का चरित्र था, जो चुनौतियों से भागता है। शाहरूख ने जो किरदार निभाए वो कुंठित नायक का प्रतिबिंब था, जो प्रेम को अधिकार की तरह समझता है। वह प्यार तो करता है, पर उसकी सच्चाई को स्वीकारने का साहस नहीं कर पाता। वो न तो मेहनत करना चाहता है न उसमें सही नायकत्व है। सबसे बड़ी बात ये कि वो इंतजार करना भी नहीं जानता! ये नायक जिस तरह की हरकतें करता है, उसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी है। उसके लिए खून बहाना बड़ी बात नहीं होती! ‘डर’ के नायक को याद कीजिए जो नायिका के एक तरफ़ा प्रेम में इतना पागल हो जाता है कि उसके पति को मारने की साजिश करने से भी बाज नहीं आता!

असफल प्रेम और मानसिक रोग के विषय पर केंद्रित फिल्मों के बारे में पन्ने पलटे जाएं तो सबसे पहले असित सेन की ‘खामोशी’ (1967) को ही गिना जाएगा। इस फिल्म में वहीदा रहमान प्रेम में ठुकराए प्रेमियों को मानसिक पीड़ा से निकालने के लिए प्रेम का नाटक करने वाली नर्स के रुप में थी। पर, हर बार खुद प्रेम करने लगती है और रोगी के जाने के बाद पागल हो जाती है। इसमें असफल प्रेमी के रूप में थे राजेश खन्ना और धर्मेंद्र। ऐसी ही कहानी प्रियदर्शन की निर्देशित फ़िल्म ‘क्योंकि’ (2005) भी थी। ‘खामोशी’ की अतिनाटकीयता, उसके मानसिक रोग के चिकित्सकों के केरिकेचर, उसके विदूषक जैसे मानसिक रोगी, सभी कमियां ‘क्योंकि’ में और भी कई गुणा बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत की गई थीं। लेकिन, इस फिल्म को कई दर्शक इसलिए पूरी नहीं देख सके। इसलिए कि फिल्म में चीख चिल्लाहट बहुत ज्यादा थी। 2003 में आई सलमान खान और भूमिका चावला की फिल्म ‘तेरे नाम’ (निर्देशक सतीश कौशिक) भी थी, जिसका विषय भी मानसिक रोग था।

हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग के विषय को कई तरीकों से लिया गया। शहरीकरण, खंडित होते संयुक्त परिवार, तरक्की की अनथक भूख, पाने और कमाने की होड़ से अकेलापन, उदासी और तनाव जैसे मानसिक रोग तेज़ी से बढ़े हैं। यहीं मानसिक रोग फिल्मों को नाटकीय तनाव देने में खासी भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि फिल्मों के कथानक में मानसिक रोग को अकसर असफल प्रेम के नतीजे के रुप में प्रस्तुत किया। कथा के दुखांत से जोड़कर कई ट्रेजेडी फ़िल्में बनाई गई। इनमें मानसिक रोग फिल्म का मुख्य विषय कभी नहीं बना। बल्कि, प्रेम कथा को नया मोड़ देने का जरिया जरूर बनकर रह गया। मानसिक बीमारी में सीजोफ्रेनिया को कई बार प्रस्तुत किया गया। एक ही व्यक्ति को दो व्यक्तित्व में बांटकर दर्शाया गया। स्टीवनसन के प्रसिद्ध उपन्यास ‘डॉ जैकिल और मिस्टर हाइड’ से प्रभावित हुआ कथानक भी कुछ भारतीय फिल्मों ने चुना। इनमें उल्लेखनीय रही सत्येन बोस की 1967 में आई फिल्म ‘रात और दिन’ जो नरगिस की सशक्त अभिनय की वजह से प्रभावशाली बन गई थी। इसी से मिलते-जुलते कथानक वाली एक फिल्म 2004 में ‘मदहोश’ आई थी। इसमें बिपाशा बसु ने सीजोफ्रेनिया के रोग को सतही और प्रभावशाली तरीके से दिखाया। इस तरह की फ़िल्में इस रोग की सही तस्वीर नहीं दिखातीं, बल्कि उसे केवल कहानी में अप्रत्याशित मोड़ लाने का बहाना बनाकर रह जाती हैं।

इस भोगवादी संस्कृति की अंधड़ में हमारा दार्शनिक आधार दरकने लगा है। यही कारण है कि फिल्मों में भी ऐसे नकारात्मक चरित्र गढ़े जाने लगे, जो नायक होते हुए, प्रेम के दुश्मन बन जाते हैं। वास्तव में ये सिर्फ फ़िल्मी किरदार नहीं! बल्कि, नवधनाढ्यों के उभार के बीच ऐसी कहानियां हैं जो समाज के सच की गवाही हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और टेलीविजन इसी नकारात्मक प्रवृत्ति को आधार देते हैं। ऐसी फ़िल्में देखकर ही गैर-शहरी नौजवान गलत प्रेरणा लेकर भटक जाते हैं। वे परदे पर दिखाई जाने वाली घटनाओं को जीवन में उतारने की कोशिश जो करने लगते हैं। हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभाव और बाजारवाद से ग्रस्त रहा है। पश्चिमी जीवन की स्वीकार्यता बढ़ने के साथ ही समाज में नई तरह का संकट बढ़ेगा। इसके साथ ही प्रेम के क्रूर चेहरे को भारतीय दर्शकों पर थोपने की कोशिश भी जारी हैं। इसे दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि ये सबकुछ प्रेम के नाम पर ही हो रहा है। वास्तव में ये हमारी फिल्मों के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें प्यार और सामाजिक रिश्तों को तिलांजलि दी जाने लगी है। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में वह उसे समाप्त कर देने पर आमादा हो जाता है, जो उसके मनोविकार का संकेत है। ऐसा नायकत्व समाज और मनोरंजन दोनों के लिए खतरनाक है! लेकिन, फिल्मकारों की कमाई का यही सबसे बड़ा जरिया भी है।