Silver Screen :सस्पेंस फिल्म वही जिसका अंत दर्शकों को चौंका दे!   

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Silver Screen :सस्पेंस फिल्म वही जिसका अंत दर्शकों को चौंका दे!   

यदि फिल्म के शौकीन कुछ दर्शकों से सवाल किया जाए कि उन्हें कैसी फ़िल्में पसंद हैं, तो निश्चित रूप से ज्यादातर का जवाब होगा सस्पेंस वाली फ़िल्में। ऐसी फ़िल्में जिनका अंत चौंकाने वाला हो। इसका कारण है, कि इस तरह के कथानक पर बनी फ़िल्में दर्शकों को भी अपने साथ जोड़ लेती है। फिल्म के दृश्यों को देखने वाला सोचता रहता है कि अब क्या होगा! यही वजह है कि इन फिल्मों सफलता ज्यादा होती है। क्योंकि, इनके क्लाइमेक्स दर्शकों को हतप्रभ कर देते हैं! ऐसी फ़िल्में सिर्फ हिंदी में ही सफल नहीं रही, बल्कि हॉलीवुड में भी सस्पेंस, थ्रिलर वाली फिल्‍मों को ही ज्यादा पसंद किया जाता रहा। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर अल्फ्रेड हिचकॉक को तो ‘मास्‍टर ऑफ सस्पेंस’ ही कहा जाता रहा। सस्‍पेंस और थ्रिलर वाले कथानक शुरू से दर्शकों के प्रिय विषय रहे हैं। जिस फिल्म के अंत के बारे में उनका खुद का अनुमान गलत निकले, वो उन्हें ज्यादा पसंद! क्‍लाइमेक्‍स में ऐसा शख्स सामने आए, जिसका दर्शकों ने अनुमान नहीं लगाया हो! ऐसी फिल्में ही दर्शकों को बांधने वाली होती है। सस्पेंस थ्रिलर वाले कथानक की फिल्मों में दर्शकों को शुरू लगता है कि उसे पता था कि आगे यही होने वाला है। इन फिल्मों में ऐसा अजूबा ही होता है। जो सबसे ज्यादा शरीफ दिखता है, शातिर निकलता है। लेकिन यह अनुमान कई बार गलत भी हो जाता है और एक अलग ही थ्रिलर फिल्म का अंत दर्शक के सामने आता है। सस्पेंस का आशय डरावनी फिल्मों से नहीं है। बल्कि, इस तरह की फ़िल्में अपने कसे हुए कथानक से दर्शक को बांधती है। देखने वाला हमेशा इसी उधेड़बुन में लगा रहता है कि अब क्या होगा?

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परदे पर अभी तक ऐसी फ़िल्में सीमित थीं। पर ओटीटी प्लेटफॉर्म आने के बाद लगने लगा कि दर्शक सस्पेंस, थ्रिलर और मर्डर मिस्‍ट्री ही देखना चाहता है। जबकि, ये तीनों ही अलग-अलग शैलियां हैं। थ्रिलर फिल्मों में एक्शन होता है, लेकिन सस्‍पेंस नहीं! उनमें जो सस्‍पेंस होता है, उसका राज धीरे-धीरे खुलता रहता है। लेकिन, सस्पेंस फिल्म में न तो रहस्‍य जरूरी है और न एक्शन! इनमे चौंकाने वाले सीन ज्यादा होते हैं, जो दर्शक को सोचने का मौका भी नहीं देते। मिस्‍ट्री और सस्‍पेंस थ्रिलर फ़िल्में एक जैसी नहीं होती। दोनों का ट्रीटमेंट अला-अलग होता है। पर, मिस्‍ट्री फिल्मों में सिर्फ एक राज होता है, जिस पर से फिल्म के अंत में परदा उठता है। इस तरह की फिल्मों की पटकथा का ताना-बाना किसी हत्या के इर्द-गिर्द बुना जाता है। पूरी कहानी अनजान हत्यारे की खोज पर आधारित होती है। संदेह के लिए कई पात्रों को निशाने पर रखा जाता है। हत्यारे को पकड़ने के लिए पुलिस जो भी चाल चलती है, वही फिल्म का आकर्षण होता है। कभी फिल्म के नायक, नायिका या सबसे शरीफ पात्र के भी कातिल होने की स्थितियां निर्मित की जाती है। यानी दर्शकों को बांधने और उनका ध्यान बांटने के लिए कई हथकंडे रचे जाते हैं। देखा जाए तो दर्शकों को वही सस्पेंस फ़िल्में ज्यादा पसंद आती है, जो उन्हें हर सीन में चौंका दें। तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, क़त्ल और ‘गुप्त’ के बाद ‘दृश्यम’ सीरीज की दोनों फिल्मों ने दर्शकों को जिस तरह बांधकर रखा वही इन फिल्मों का सफलता रही।

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इस तरह के कथानक पर बनने वाली फिल्मों के पन्ने पलटे जाएं, तो हिंदी में मर्डर मिस्ट्री और सस्पेंस फिल्मों की शुरुआत का श्रेय विजय आनंद को जाता है। उन्होंने ‘तीसरी मंजिल’ और ‘ज्वेल थीफ’ उस दौर में बनाने की हिम्मत की, जब दर्शकों को ऐसी कहानियों का अंदाजा भी नहीं था। इन फिल्मों में पैसा लगाना भी एक तरह ही जुआं ही था। पर, विजय आनंद ने दर्शकों पर अपना जादू चलाया और उनकी कई फ़िल्में पसंद की गईं। उन्होंने ऐसे कई प्रयोग किए, जो सस्पेंस से लबरेज थे। इसी तरह रामगोपाल वर्मा की ‘कौन’ को हिंदी की बेस्ट साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म कहा जा सकता हैं। यह पूरी फिल्म घर में बंद एक लड़की (उर्मिला मातोंडकर) की कहानी है, जो अजनबी (मनोज बाजपेयी) से बचने की कोशिश में रहती है। लेकिन, फिल्म का क्लाईमैक्स दर्शकों के होश उड़ा देता है। इसी तरह की फिल्म ‘फोबिया’ भी थी, जिसमें राधिका आप्टे ने काम किया। यह फिल्म ऐसी लड़की की कहानी है, जो बाहर निकलने से डरती है और खुद को घर में बंद कर लेती है। उसका डर ही फिल्म का क्लाइमैक्स है।

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बॉबी देओल, काजोल और मनीषा कोइराला की ‘गुप्त’ बेहतरीन सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। इसमें अंत तक किसी का ध्यान नहीं जाता और खलनायिका काजोल निकलती है। विद्या बालन की ‘कहानी’ और ‘कहानी-2’ दोनों ही फ़िल्में दर्शकों को अंत तक कुर्सी से बांधकर रखती है। किसी दर्शक को अंदाजा नहीं होता कि आखिरी में क्या होगा! फिल्म ‘नैना’ एक अंधी लड़की की कहानी थी, जिसकी आंखें ट्रांसप्लांट की जाती है। लेकिन, इसके बाद उसे अजीब सी चीजें दिखाई देने लगती है। ‘बदला’ को हाल के दौर की बड़ी मर्डर मिस्ट्री फिल्म माना जाता है! इसे अंत तक देखने के बाद ही समझ आता है कि आखिर फिल्म क्या चाहती है! ये पूरी फिल्म सस्पेंस से भरी है! कलाकारों का अभिनय भी हैरान करता है! जबकि, आज के दौर की सस्पेंस फिल्मों में ‘दृश्‍यम’ और इसका सीक्वल सबसे अच्छा उदाहरण है। इसमें अपराधी सामने होता है, लेकिन न तो पुलिस उसे पकड़ पाती है और न दर्शकों को समझ आता है कि उसने ये सब किया कैसे होगा! इस फिल्‍म में कोई मारधाड़ नहीं थी और न रहस्‍य! हत्यारा सबके सामने होते हुए अपनी चतुराई से बचता रहता है। कोई ठोस सबूत न होने से पुलिस भी अंत तक उस पर हाथ नहीं डाल पाती! इसमें सस्पेंस और इमोशन का ऐसा घालमेल किया जाता है, कि फिल्म देखने वाले भी हत्यारे के पक्ष में नजर आ जाते हैं। वे भी नहीं चाहते कि अपराधी पकड़ा जाए! कानून, गुमनाम, मेरा साया, इत्तेफाक, धुंध, अपराधी कौन, कब क्‍यों और कहां, खिलाड़ी, गुप्‍त, वह कौन थी, डिटेक्टर व्‍योमकेश बक्‍शी, मनोरमा सिक्‍स फीट अंडर, भूल भुलैया, एक चालीस की लास्‍ट लोकल, बदला, जानी गद्दार, अगली, तलवार, अंधाधुन, क़त्ल, दृश्‍यम और ‘कहानी’ ऐसी ही फ़िल्में हैं, जिनका जादू दर्शकों पर जमकर चला।     कुछ साल पहले तक फिल्म के अंत को गोपनीय बनाए रखने हिदायत भी इसी लिए जाती थी कि फिल्म देखने आने वाले दर्शकों में सस्पेंस बना रहे। इसलिए कि ऐसी फिल्मों के अंत में कुछ ऐसा होता था, जो देखने वालों को चौंका देता था। फिल्म का कथानक कुछ इस तरह गढ़ा जाता था, कि दर्शक उसके आकर्षण में फंस जाते। वे कहानी के ट्विस्ट की असलियत देख नहीं पाते थे और जब राज खुलता तो ऐसा पात्र संदेहों से घिरा मिलता, जिस पर किसी की नजर नहीं जाती! सस्पेंस फिल्मों में चौंकाने वाले अंत का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ! बस, दर्शकों को ये हिदायत देना बंद कर दिया गया कि फिल्म का अंत किसी को न बताएं! ऐसी फ़िल्में सिर्फ कलाकारों के अभिनय से ही दर्शकों को नहीं बांधती, इनकी पटकथा लेखन और डायरेक्शन भी कुछ नयापन होता है। अब तक कई थ्रिलर फिल्में आई, लेकिन सभी दर्शकों को बांध नहीं पाई। याद वहीं रहती, जिन्होंने अपनी पटकथा और डायरेक्शन का जादू दिखाया। पुरानी फिल्मों में तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, इत्तेफ़ाक़, गुमनाम और आज के दौर की ए वेडनस डे, बदला, हमराज़, 100 डेज के बाद आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘अंधाधुंन’ और अजय देवगन की ‘दृश्यम’ ऐसी ही ऐसी फ़िल्में हैं, जिनके क्लाइमैक्स ने दर्शकों को कुर्सी पर ठीक से बैठने नहीं दिया। ‘अंधाधुन’ ने तो एक नया ट्रेंड बना दिया। इसमें एक अंधे आदमी का किरदार काफी रहस्यमय था। फिल्म की कहानी इसी के आस-पास घूमती है। इस पूरी फिल्म में अच्छा-खासा सस्पेंस बनाकर रखा गया। ओटीटी के आने के बाद से सस्पेंस और थ्रिलर फिल्मों का क्रेज कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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