Silver Screen: सुर और साज देते है सिनेमा को परवाज!
सिनेमा में संगीत की अहमियत क्या है! यदि ये एक सवाल है, तो इसके कई तरह के जवाब दिए जा सकते है। पहला तो यह कि जब से फिल्मों ने बोलना सीखा, तभी से गाना भी सीख लिया। यदि अभिनय सिनेमा का अंग हैं, तो संगीत आत्मा है! संगीत के बिना फिल्मों के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। तर्क में यह भी कहा जा सकता है कि आज भी कई फ़िल्में बिना गीत-संगीत के बनती और सफल होती हैं, उनको क्या माना जाए! इसका एक ही जवाब है, कि ऐसा सिर्फ अपवाद होता है। जो फ़िल्में गीत-संगीत के बनी, उनकी कहानी इतनी दमदार थी, कि दर्शकों को सोचने का मौका नहीं दिया। उनमें गीत-संगीत न होने का कारण भी यह था कि वे फिल्म की कहानी की कड़ियों में अवरोध बनते, इसलिए वे फ़िल्में बिना गीत-संगीत के बनी। दरअसल, संगीत हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी दर्शाता है। हिंदी फिल्मों के गीतों की बात है, तो वे समयकाल के साथ बदलते रहे। कभी गजलों का दौर चला, कभी परदे पर कव्वाली गूंजी, तो कभी शास्त्रीय से लेकर पॉप संगीत तक फिल्म संगीत का सहगामी बना। आशय यह कि फिल्मों में किसी भी तरह के संगीत से परहेज नहीं किया गया। सिनेमा की कहानी शहरी हो, गांव की हो, युद्ध की पृष्ठभूमि से जुडी हो, रोमांटिक फिल्म हो या सस्पेंस! हर मूड के गीत फिल्म का हिस्सा रहे हैं और आज भी हैं।
इतिहास बताता है कि फिल्मों ने ‘आलमआरा’ के साथ बोलना सीखा। उसी के साथ गीत और संगीत फिल्मों का हिस्सा बने। 1931 में आई अर्देशर ईरानी की इस फिल्म में सात गाने थे। फिर जमशेदजी ने ‘शीरी फरहाद’ बनाई, जिसमें आपेरा स्टाइल के 42 गाने थे। ‘इंद्रसभा’ में तो 69 गीतों का भंडार ही था। लेकिन, इसके बाद फिल्मों में गानों की संख्या घटने लगी। लेकिन, छह से दस गाने तो फिल्मों में सुनाई देते ही रहे। शुरूआती दिनों में फिल्मी गीतों में भजनों का दौर ज्यादा रहा। इसके बाद उर्दू जुबान में लिखे गीतों का जादू छाया! अब तो इसमें सारी भाषाएं और शैलियां घुल मिल गई। फिर भी ब्रज, भोजपुरी, पंजाबी और राजस्थानी लोक गीतों का प्रभाव ज्यादा रहा।
1934 से गानों को ग्रामोफोंस पर रिकार्ड किया जाना शुरू हुआ, फिर ये रेडियो पर भी सुनाई देने लगे। लोग गुनगुनाने लगे। सिनेमा के शुरूआती सालों में कई तरह की फिल्में बनी। लेकिन, हर शैली की फिल्मों में गीतों कहानी के साथ पिरोया जाता रहा। हमारी जीवन शैली बहुभाषी है, जो हिंदी फिल्मों के गानों में भी दिखाई देती है। फ़िल्मी गीतों ने भाषा के सारे बंधन भी तोड़े। क्योंकि, हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता इतनी है कि देश के चारों कोनों में इन्हें सुना जाता रहा। जो लोग हिंदी नहीं जानते, वे भी फ़िल्मी गीत गुनगुनाते दिखाई दे जाते। यही फिल्म संगीत की सबसे बड़ी सफलता का मापदंड भी है। श्रीलंका की एक सिंहली गायिका हिंदी गीत गाकर बहुत लोकप्रिय हुई, जबकि वे खुद हिंदी नहीं जानती। संगीतकार एआर रहमान की सफलता का कोई सानी नहीं, उनके संगीतबद्ध किए गानों को ऑस्कर तक अवॉर्ड मिला, पर हिंदी उन्हें आती। जबकि, उन्होंने हिंदी गाने भी गाए!
हिंदी फिल्म संगीत ने हर उस व्यक्ति को प्रभावित किया, जो फिल्मों का मुरीद रहा है। कई बार इन फिल्मों की सफलता का आधार सीएफ उसका गीत-संगीत भी रहा है। सत्यजीत रे के अनुसार ‘सार्वभौम हाव-भाव, सार्वभौम संवेदनाएं’ किसी खास समाज के साथ पहचान का अभाव, कृत्रिम और वायवीय समाज का रूपायान। यही वजह है कि हिंदी सिनेमा का संगीत इतना लोकप्रिय है। कहा यहां तक जाता है, कि जो गीत गुनगुनाए नहीं जाते, वे कभी अमर नहीं होते।’ वास्तव में सिनेमा ही कहानी कहने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है। दूसरी कलाओं की तरह सिनेमा भी देश, काल, सामाजिक संरचना और व्यक्ति की समस्याओं से सीधा जुड़ता है। सिनेमा वो कला है, जो साहित्य, अभिनय संगीत, नृत्य और कहानी लेखन आदि का सम्मिलित स्वरूप है। इसलिए ये भी कहा जा सकता है कि सिनेमा कलाओं की समग्रता का दूसरा नाम है और संगीत इनमें से एक है।
माना जाता है कि सिनेमा दर्शकों का सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करता, नए विचारों को भी जन्म देता है। इन्हीं विचारों से कई कल्पना जन्म लेती है, जो पहले कथानक और बाद में फिल्म के रूप में सामने आता है। यही स्थिति फिल्म संगीत की भी है। गीतों की मधुर कड़ियां नए जगत को देखने की नई दृष्टि देता है। दरअसल, सिनेमा मन को उपचार भी देता है और तन को स्फूर्त भी करता है। मस्तिष्क को विचारों की नवीन ऊर्जा प्रदान करता है। यह कभी विदूषक बनकर हँसाता है, तो कभी खलनायक बनकर दर्द देता है। कभी वैध बनकर शारीरिक और मानसिक रोगों का उपचार करता है। इसलिए कि सिनेमा सिर्फ जनमाध्यम नहीं, बल्कि अपने रचना कौशल और भाव-प्रवण प्रस्तुतिकरण से जन-मन तक पहुंच बना चुका है। दूसरी और फिल्म का गीत-संगीत अपनी अनूठी और मार्मिक, संवेदनापरक तथा भावप्रवण शैली में सीधे परिस्थितियों के साथ मन:स्थितियों को बयां कर सिनेमा की जन सरोकारिता साबित करता है। फ़िल्मी गीत-संगीत को जीवन के खालीपन, अकेलेपन, अजनबीपन और बेजार जिंदगी का साथी माना जा सकता है। जब व्यक्ति अपनी व्यथा अथवा मन:स्थिति किसी के साथ बाँट नहीं पाता, तब यहीं सिने गीत उसके खालीपन को संवेदना के साथ छांव देता है।
संगीत को लोकप्रिय बनाने में हिंदी फिल्मों के योगदान की अलग कहानी है। फिल्म संगीत ने अपनी एक अलग पहचान विकसित की, जो शास्त्रीय संगीत का ही अंग है। लेकिन, शास्त्रीयता की बंदिशों को तोड़कर उसे सुगम बनाने का काम फिल्म संगीत ने ही किया। यही उसकी अपार लोकप्रियता का कारण भी है। शुरू में शास्त्रीयता पर आश्रित रहने वाले फिल्मी संगीत ने एक अलग राह पकड़ी, जो बेहद हल्की मानी गई। लेकिन, इस संगीत ने अपनी ज्यादा पैठ बनाई, क्योंकि उसने आम लोगों में अपनी पहुंच बनाई। फिल्मों से पहले शास्त्रीय संगीत राज दरबारों तक सिमटा रहा। किंतु, जैसे-जैसे फिल्म संगीत विकसित होता गया, शास्त्रीय संगीत सिकुड़ता गया। फिर भी उसकी अहमियत कम नहीं हुई, लेकिन लोकप्रियता जरूर घटी। फिल्म संगीत ने पारंपरिक बंदिशों से निकलकर सहज प्रवाह दिया।
शुरू के दौर में शास्त्रीय संगीत की फिल्मवालों ने कद्र नहीं की। उधर, शास्त्रीय संगीत के सिद्धहस्थ जानकारों ने भी अपने आपको फिल्म संगीत के अनुरूप ढालने से इंकार किया। क्योंकि, वे अपने संगीत की विशुद्धता को अपनाए रखने को राजी नहीं थे। फिल्मी संगीत को लेकर भी उनके मन में सम्मान का भाव नहीं था। फिल्म संगीत को मनोरंजन का फूहड़ जरिया मानने की धारणा भी बरसों तक जमी रही। इसके बावजूद शास्त्रीय संगीत के कुछ दिग्गजों ने फिल्मों के संगीत में योगदान दिया। जब फिल्मों ने बोलना सीखा तो इसमें तेजी आई। लेकिन, जब फिल्म संगीत में शास्त्रीय संगीत जुड़ा तो ऐसा जुड़ाव हुआ कि दोनों एकाकार हो गए। बांसुरी वादक पन्नालाल घोष तो अपने करियर की शुरुआत 1936 में ही फिल्मों से जुड़ गए थे। वे कलकत्ता के ‘न्यू थियेटर्स’ के संगीतकार रायचंद्र बोराल से मिले उनके सहायक बन गए। फिर वे बंबई आकर हिमांशु राय की कंपनी ‘बांबे टाकीज’ से जुड़े और ‘अनजान’ और ‘बसंत’ जैसी कुछ फिल्मों में संगीत दिया। लेकिन, यह जुड़ाव लंबे समय तक नहीं चल सका। क्योंकि, शास्त्रीय संगीत के जानकारों को फिल्मों के लिए राजी करना आसान नहीं था। फिर भी जो राजी हुए, उन्होंने कालजयी संगीत दिया और फिल्म संगीत को समृद्ध किया।
फिल्म संगीत में शास्त्रीय की तरह लोक संगीत की भी अपनी अलग पहचान है। ये संगीत लोगों की जुबां पर चढ़ा और इसने अपनी अलग पहचान बनाई। इसलिए कि लोक संगीत हमारे लोक व्यवहार से और संस्कारों से जुड़ा है। पर, जितने भी लोक गीत रचे गए, वह किसी न किसी शास्त्रीय राग पर ही आधारित रहे। क्योंकि, जहां संगीत है, वहां राग तो होगा ही। फिल्मों में वे गीत बहुत लोकप्रिय हुए जो लोकगीतों से प्रेरित होकर गाए गए। ‘पाकीजा’ का गीत ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा’ लोक संगीत से ही लिया था। ‘धूल का फूल’ का गीत ‘तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं’ की तर्ज भी ‘विद्यापति’ के गीत की पृष्ठभूमि पर बनी थी। ऐसे दर्जनों फिल्मी गीत हैं, जिसमें लोकगीतों की ध्वनि उभरकर सामने आती हैं। जुगनी (कॉकटेल), घूमर (पद्मावत), तार बिजली से पतले (गैंग्स ऑफ वासेपुर), ससुराल गेंदा फूल (दिल्ली 6), बुमरो (मिशन कश्मीर), नवराई (इंग्लिश विंग्लिश), केसरिया बालम (डोर), निंबूड़ा (हम दिल दे चुके सनम), अंबरसरिया (फुकरे), दिलबरो (राजी) ऐसे ही गीत हैं, जो सुपर हिट हुए। इसलिए कहा जा सकता है कि संगीत ही फिल्म की जान है, बिना संगीत के तो फ़िल्में ऐसी है जैसे गूंगी गुड़िया!