स्मृति शेष-अभय छजलानी जी: “मुख्यमंत्री जी आप अपनी सरकार चलाइये, मुझे अपना अख़बार चलाने दीजिये….”

संपादक जो अपने अदने से संवाददाता के सम्मान के लिए मजबूती से डटे रहे

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स्मृति शेष-अभय छजलानी जी: “मुख्यमंत्री जी आप अपनी सरकार चलाइये, मुझे अपना अख़बार चलाने दीजिये….”

जय नागड़ा की अभय जी को विनम्र श्रद्धांजलि  

खण्डवा के तत्कालीन जिला एवं सत्र न्यायाधीश श्री पुरषोत्तम विष्णु नामजोशी जो बाद में हाईकोर्ट जज भी रहे, मुझे अक्सर मज़ाक में पूछते थे “कैसा चल रहा है तुम्हारा बनियों का अखबार (नईदुनिया)? मैं बस मुस्कुरा के रह जाता। शुरू में मुझे भी यही भ्रम था कि नईदुनिया बहुत सरकारी किस्म का अख़बार है जिसमें बहुत तीखी खबरों के लिए जग़ह नहीं होती। यहाँ बड़े अधिकारियों, मंत्रियो या सत्ता के खिलाफ खबरों की गुंजाइश नहीं दिखती जैसी उस समय जनसत्ता या इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों के तेवर हुआ करते थे। सच कहूं तो जब मैं कॉलेज के दिनों में नईदुनिया का पाठक था तब यह अख़बार मुझे भी गुजराती भोजन की तरह मीठा-मीठा लगता था जिसमे तड़के की उम्मीद करना ही बेकार था।

इस अखबार से जुड़ने पर संवाददातों की आचार संहिता भी बहुत कड़क थी, जिसमें आपकी किसी भी ख़बर या व्यवहार  को लेकर कोई शिकायत कर दे तो तुरंत आपसे ज़वाब मांग लिया जाता। यहाँ तक कि लम्बी जद्दोज़हद के बाद अख़बार का जो प्रेस आईडी कार्ड मिलता उसके पीछे भी सबसे पहली लाइन यही लिखी होती “यह परिचय पत्र आपके अविनयी होने का अधिकारपत्र नहीं है” निर्देशों का पालन न करने पर यह प्रेस कार्ड समय से पूर्व भी वापस लिया जा सकता है…” तब यह प्रेस कार्ड कहीं दिखाने पर यह चिन्ता होती कि कोई इसे पलटकर नहीं देखे।

ये तमाम धारणायें कितनी आधारहीन थी यह तब पता चला जब अख़बार के संपादक अभय छजलानी जी के साथ बहुत करीब से कार्य करने का मौका मिला। वे सिर्फ नाम से ही अभय नहीं थे अपने साथ कार्य करने वालों को भी निर्भय बना देते लेकिन उसके लिए बहुत तपना पड़ता, तथ्यों की कसौटी पर खरा उतरना होता। जब उनका विश्वास आप पर जम जाता तो वे खुद अपने अदने से संवाददाता के लिए सत्ता के शिखर से लड़ लेते, लाभ हानि की परवाह किये बगैर। यह अभय जी की शान में उनके निधन के बाद कशीदे पढ़ने के लिए नहीं बल्कि अपने निजी अनुभवों के आधार पर दृढ़ता से कह रहा हूँ।

आज पत्रकारिता के इस दौर में जो सबसे दुर्लभ है वह है पत्रकारों का स्वाभिमान बचे रहना। आज आप चाहे जितने बड़े मीडिया संस्थान में कार्य कर रहे हो, आप पत्रकारिता नहीं महज़ नौक़री कर रहे हैं। किसी छोटे से नेता या अधिकारी के दबाव में खबरें दब जाती हैं या संवाददाता ही हटा दिए जाते हैं तब क्या कोई यक़ीन करेगा कि एक संपादक ऐसा भी था जो मुख्यमंत्री को किसी संवाददाता के हटाए जाने के आग्रह पर अपने संवाददाता पर विश्वास बनाये रखते हुए दृढ़ता से यह जवाब दे दे कि “मुख्यमंत्री जी आप अपनी सरकार चलाइये, मुझे अपना अख़बार चलाने दीजिये…. मैं अपने संवाददाता को बख़ूबी जानता हूँ, आप किसी खबर को लेकर अपना पक्ष रखना चाहते है तो उसे हम जरूर प्रकाशित करेंगे।”

हाँ, यह मेरे साथ ही हुआ था जब खण्डवा में जंगलों की अवैध कटाई, नागचून तालाब के बेशक़ीमती हजारो एकड़ जमीन की गुपचुप नीलामी सहित अनेक खबरों को लेकर न केवल स्थानीय प्रशासन बल्कि मंत्री, मुख्यमंत्री तक परेशान हो गए थे, मुझे नईदुनिया से हटाने के लिए बहुत दबाव भी प्रबंधन पर था तब अभय जी ने यह जवाब दिया था। यह बात उन्होंने मुझे स्वयं बताई थी और यह ताक़ीद भी किया था कि अपनी खबरों में तथ्यों को क्रॉस चेक जरूर करना, आवश्यक दस्तावेज़ भी जरुरी है। वे किसी ख़बर की प्रमाणिकता को लेकर कितने सतर्क थे इसका अन्दाज़ा मुझे तब लगा जब इंदौर के तत्कालीन संभागायुक्त ए के सिंह ने मुझे बताया कि तुम्हारी खण्डवा के निजी जंगलो की कटाई वाली खबर जिसमे खण्डवा कलेक्टर दोषी थे, वह अभय जी ने प्रकाशित होने से पहले मुझे वेरिफाई करने भेजी थी। मैंने कहा कि ख़बर के सारे तथ्य प्रामाणिक है तभी वह फ्रंट पेज पर प्रमुखता से लगी। इसके बाद तत्कालीन कलेक्टर और अन्य जिम्मेदार अधिकारियो के विरुद्ध लोकायुक्त ने प्रकरण तक पंजीबध्द उसी खबर के आधार पर किया।

एक मामला टीसीएस जैसी प्रतिष्ठित कम्पनी द्वारा वाणिज्य कर विभाग में कम्यूटर सप्लाय करने की निविदा में अनियमितता से सम्बंधित मैंने खबर बनाकर भेजी तो अभय जी का तत्काल फोन आया कि टीसीएस जैसी प्रतिष्ठित कंपनी तत्काल ऐसी खबरों पर हमारे खिलाफ कोर्ट में जा सकती है, वे इतने बड़े दावे करते है कि हमारी प्रेस तक दांव पर लग सकती है, ध्यान रखना। मैंने तमाम प्रमाण जुटाए तब दूसरे ही दिन अख़बार के प्रथम पृष्ठ पर वह खबर सरकार की नींद उड़ाने वाली थी, तत्काल प्रभाव से टेंडर की प्रकिया जो प्रदेश स्तर की थी निरस्त की गई।

खण्डवा – इंदौर मार्ग की दुर्दशा को लेकर जब मैंने रिपोर्ट भेजी तब उसे आठ कॉलम फ्रंट पेज़, आठ कॉलम लास्ट पेज पर तो प्रकाशित किया ही इस पर सम्पादकीय भी अभयजी ने लिखा। नतीजा यह रहा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी ने अभय जी को स्वयं फोन कर आश्वस्त किया कि इस रोड को सबसे पहले बीओटी में लेकर शुरू कर रहे हैं और तुरंत इसका कार्य आरम्भ हुआ। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनको लिखता चलूँ तो शायद एक किताब बन जाये।

अब बात करें बनियापन की, दो प्रसंग आपको बताऊँ तो आप खुद समझ जायेंगे कि यहाँ खबरो की कीमत पर विज्ञापन नहीं लगते थे। तब कभी ऐसा नहीं हुआ कि अख़बार का पूरा फ्रंट पेज ही फुल पेज़ विज्ञापन से भर दिया हो जिसमें खबरें  पढ़ने के लिए दो-तीन पेज़ पलटने पड़े। बहुत स्पष्ट निर्देश विज्ञापन विभाग को थे कि फ्रंट पेज़ पर सिर्फ तीन कॉलम बीस सेंटीमीटर के सिर्फ एक ही विज्ञापन प्रकाशित होगा, क़्वार्टर या हॉफ पेज तो छोड़ ही दीजिये। एक मौका ऐसा भी आया जब खण्डवा जिले में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे कलाम साहब आये उस दिन नईदुनिया में फ्रंट पेज का एक विज्ञापन पिच्यासी हजार रुपयों का मधु भाई पटेल (बी एस पटेल बीड़ी) का बुक किया था तब अचानक शाम को अभय जी का फोन आया कि “जय, मैं चाहता हूँ कि राष्ट्रपति कलाम साहब जब कल खण्डवा में आ रहे हैं तब फ्रंट पेज पर सिर्फ पठनीय सामग्री ही हो कोई विज्ञापन नहीं, ज़रा मधुभाई से बात करके देखो कि हम उनका विज्ञापन लास्ट पेज पर लें क्या? मैंने तुरंत ही उन्हें हां कर दिया कि जैसा आप चाहे, मैं मधुभाई को मना लूंगा। ऐसा ही हुआ, अख़बार को आर्थिक नुकसान हुआ चूँकि फ्रंट पेज के रेट लास्ट पेज से करीब डबल थे। दूसरे दिन जब तमाम अख़बार आये तो वे विज्ञापनों से पटे हुए थे जबकि नईदुनिया में सबसे ज्यादा पठन सामग्री थी।

ऐसा ही एक प्रसंग तब आया जब मैं राजस्थान में दस दिन रहकर तरुण भारत संघ यानि राजेंद्र सिंह जी के तालाबों के कार्य पर एक फोटो फीचर बनाकर प्रेस में पहुंचा तब सारे फोटोस और रिपोर्ट देखकर अभय जी ने भानु चौबे जी को बुलाया जो रविवारीय देखते थे, उन्हें कहा “भानु, इस रिपोर्ट को उस दिन प्लान करना जिस दिन इस पेज पर एक भी विज्ञापन न हो… और वही हुआ। उस खबर ने राजेन्द्र सिंह जी के कार्य को पुरे देश में एक नई पहचान दी जिसके बाद उन्हें द वीक मेगज़ीन ने मेन ऑफ़ द ईयर का सम्मान दिया और उसके बाद मेग्सेसे अवार्ड से वे नवाज़े गए।

आज सोचता हूँ कि श्री नामजोशी साहब होते तो इस आर्टिकल को पढ़ने के बाद इसे कतई बनियों का अख़बार नहीं कहते। अब प्रेस आईडी कार्ड के पीछे लिखे निर्देश भी समझ में आते है जिनके पालन करने से यह लाभ हुआ कि जिनके खिलाफ खबरें लिखी उनसे व्यक्तिगत सम्बन्ध कभी ख़राब नहीं हुए। वही दिग्विजय सिंह जी जिन्होंने नर्मदा परिक्रमा यात्रा के दौरान अपनी पत्नी से मेरा कुछ यूँ परिचय कराया था “यह मेरा एक नंबर का दुश्मन… और फिर बहुत स्नेह से गले लगा लिया…” क्या आज किसी संपादक को अपने किसी संवाददाता के सम्मान, स्वाभिमान की कहीं कोई चिंता दिखती है?

आज अभय जी का न रहना पत्रकारिता के एक सुनहरे अध्याय की समाप्ति जैसा है। हम ख़ुशक़िस्मत है कि करीब दो दशक तक पत्रकारिता के स्वर्णिम काल में हमें कार्य करने का आपने अवसर दिया। अब शायद वो समय कभी लौटकर नहीं आएगा जैसा आप कभी न लौटने के लिए चले गए हैं। अब शायद मेरे फोन की घंटी भी नहीं घनघनायेगी “जय, कहाँ हो, हम आ रहे हैं तुम्हारे यहाँ चाय-नाश्ता करने…. ऐसा सहज़, सरल और स्वाभिमानी व्यक्तित्व मिलेगा कहीं?

भावपूर्ण नमन।

अभयजी- जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता को दी नयी ऊँचाइयाँ 

स्मृति शेष: नहीं रहे पत्रकारिता के पुरोधा अभय जी