तो मुद्दा यह है कि क्या राममोहन राय ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट थे…!
भारत के इतिहास को एक विशेष नजरिए से लिखकर कथित तौर पर विलेन को हीरो और हीरो को विलेन बनाने की कोशिश की गई है। या यूं कहें कि राष्ट्रद्रोहियों को राष्ट्रहितैषी बताकर भारतीयों को बरगलाने के सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा बनकर अंग्रेजों और वामपंथियों ने भारत के इतिहास के जरिए देशभक्तों को धोखा दिया है। ‘अकबर महान’ को लेकर बहस हो या राजा राममोहन राय के महिमामंडन पर सवालिया निशान, अब भारतीय इतिहास के एंग्लो और कम्युनिस्ट नजरिए को नकारने की मुहिम चल पड़ी है। विवाद यही है कि राजा राममोहन राय देशभक्त थे या राष्ट्रद्रोही, समाज सुधारक थे या अंग्रेजों के एजेंट! भारत में सती प्रथा का खौफ था या इतिहासकारों ने राजा राममोहन राय के महिमामंडन के लिए सती प्रथा का खौफ पैदा कर इतिहास के पाठकों को धोखा दिया है। राजा राममोहन राय ने आखिर कांवेंट शिक्षा और संस्कृति को बढावा देने के लिए भारतीय संस्कृत भाषा की खिलाफत क्यों की? हमारे मित्र विपिन शर्मा ने जब हमारा लेख पढकर निराशा जताई और दूसरे पक्ष की तरफ ध्यान आकृष्ट किया, तब हमने गौर कर यह दूसरा पक्ष भी सामने रखने की कोशिश की। और फिर बात वही जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चार साल पहले अपने भाषण में भारतीय इतिहास लेखन में कथित गलतियों को दूर करने के लिए कोलकाता में टैगोर के एक निबंध का हवाला दिया था।
बीसवीं सदी की शुरुआत में रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने निबंध “भारतबर्शेर इतिहास” में भारतीय इतिहास को बार-बार आने वाले बुरे सपने की एक कड़ी के तौर पर देखा। टैगोर इस निबंध की शुरुआत इस नजीर से करते हैं कि, “भारत का इतिहास, जिसे हम इम्तिहान पास करने के लिए पढ़ते और याद करते हैं वह कौन कहां से आया, लोग एक दूसरे से लगातार लड़े, किसके बेटे और भाइयों ने सिंहासन के लिए गुत्थम-गुत्था की, एक समूह गायब हुआ और दूसरे ने उसकी जगह ले ली, जैसी घटनाओं की कहानियां हैं।”
टैगोर आगे कहते हैं :
इसमें भारतीय कहां हैं? इसका जवाब ये इतिहासकार नहीं देते। मानो, जो महज युद्धों और हत्याओं में लिप्त हैं, उनका ही वजूद है, भारतीयों का नहीं. …नौजवानी में, वह इतिहास है जो किसी को अपने देश से रूबरू कराता है, लेकिन हमारे मामले में बिल्कुल उलटी बात है। हमारे इस इतिहास ने हमारे देश को गुमनामी के जंजीरों से जकड़ रखा है।
हम भारत की कहानी को ठीक से कहना कैसे आरंभ करें? यह सवाल टैगोर ने पूछा और जवाब देने की कोशिश की। अब एक सदी से भी ज्यादा वक्त बाद, इसी सवाल को नए सिरे से पेश किया जा रहा है। यानि कि इतिहास की खामियों को सजग भारतीय बीसवीं सदी में ही महसूस कर रहे थे और अब इक्कीसवीं सदी में इसी इतिहास के पुनर्लेखन की बात हो रही है। और 4 जून के बाद एनडीए सरकार में नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने तो इतिहास फिर से लिखा जाएगा और तब हो सकता है अकबर राष्ट्रद्रोहियों का नेतृत्वकर्ता और राजा राममोहन राय अंग्रेजों के एजेंट के रूप में परिभाषित होंगे।
फिलहाल इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इतिहास में राजा राममोहन राय का जितना महिमामंडन है, उनकी आलोचना को प्रमाण सहित सही साबित करने का दावा करने वालों की भी कमी नहीं है। वह ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी करते थे, इसका प्रमाण है। उनके पत्रों में उनकी अंग्रेजों के प्रति स्वामीभक्ति का हवाला दिया जाता है, यह प्रमाणिक दावा किया जाता है। जैसा कि आर.सी. मजूमदार ने कहा था, ‘ राममोहन राय को ब्रिटिश सरकार की न्यायप्रियता और अच्छाई पर अटूट विश्वास था’ और उन्होंने ब्रिटिश शासन को ईश्वरीय कृपा के रूप में स्वीकार किया… और भारतीयों को सभ्य बनाने में उनके द्वारा निभाई गई भूमिका की प्रशंसा की। राममोहन राय ने फ्रांसीसी वनस्पतिशास्त्री और भूविज्ञानी विक्टर जैक्वामोंट को लिखा:
जब जीतने वाले लोग विजित लोगों से ज़्यादा सभ्य होते हैं, तो विजय प्राप्त करना बहुत कम ही बुराई होती है, क्योंकि विजयी लोग विजित लोगों को सभ्यता के लाभ पहुँचाते हैं। भारत को अंग्रेजी सभ्यता के कई और वर्षों की आवश्यकता है, ताकि उसे अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करने के दौरान बहुत कुछ खोना न पड़े।’
आर.सी. मजूमदार ने नये युग के राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिए उनकी भूमिका का खंडन इस तरह किया..
इस बात पर चर्चा करना भी आवश्यक नहीं है कि राममोहन का उपरोक्त राजनीतिक सिद्धांत किस हद तक हिंदुओं के प्रति उनकी गहरी अवमानना के कारण था, जिन्होंने उनके विचार में, ” मूर्तिपूजा द्वारा स्वयं को अपमान और उपहास का पात्र बनाया है, वह भी अक्सर सबसे शर्मनाक रूपों में, सबसे गंदी भाषा और सबसे अभद्र भजनों और भाव-भंगिमाओं के साथ।
इतिहास लेखन में व्यक्ति का खुद का नजरिया महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वर्तमान इतिहास इसी नजरिए के चलते संदेह के घेरे में आ चुका है। इतिहास का पुनर्लेखन होता है तो वर्तमान महिमामंडित चेहरों की विकृति और असल राष्ट्रभक्तों की कीर्ति गाथा के वर्णन का नए सिरे से सफल प्रयास करने की कोशिश होगी। हालांकि मुद्दा राजा राममोहन राय के राष्ट्र भक्त या ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट होने का नहीं है, बल्कि सुनियोजित साजिश के तहत इतिहास लेखन कर भारतीयों को धोखा देने का है। यदि यह आरोप सही साबित होते हैं, तो इतिहास के इस शर्मनाक दौर के गुनहगारों को भारत कभी माफ नहीं करेगा…।