Social media viral messages Fact Check: छत्तीसगढ़ में आदिवासी हिंसा के दावे पर तथ्य आधारित विशेष रिपोर्ट

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Social media viral messages Fact Check: छत्तीसगढ़ में आदिवासी हिंसा के दावे पर तथ्य आधारित विशेष रिपोर्ट

Raipur: छत्तीसगढ़ से जुड़ा एक भावनात्मक संदेश इन दिनों सोशल मीडिया पर तेजी से और व्यापक रूप से प्रसारित हो रहा है, जिसमें आदिवासी समाज को लेकर गंभीर और चौंकाने वाले दावे किए गए हैं। संदेश में कहा जा रहा है कि पिछले छह महीनों में 400 से अधिक आदिवासियों को नक्सली या माओवादी बताकर मार दिया गया और इसे लोकतंत्र के मूल्यों के क्षरण से जोड़कर देखा जा रहा है। साथ ही यह सवाल भी उठाया गया है कि जब आतंकवादियों और पाकिस्तान से संवाद संभव है, तो अपने ही देश के नागरिकों से बातचीत क्यों नहीं। यह बहस ऐसे समय सामने आई है, जब आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व संवैधानिक स्तर पर भी एक नई पहचान के रूप में मौजूद है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भावनाओं, आरोपों और सोशल मीडिया दावों से इतर पूरे मुद्दे की तथ्यात्मक जांच की जाए और जमीनी सच्चाई को सामने रखा जाए।

 

▪️क्या 6 महीनों में 400 से अधिक आदिवासियों की हत्या का दावा सही है

▫️उपलब्ध सरकारी आंकड़ों, पुलिस रिकॉर्ड और राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित विश्वसनीय रिपोर्टों के अध्ययन से यह तथ्य सामने आता है कि छत्तीसगढ़ में पिछले छह महीनों में 400 से अधिक आम आदिवासियों की हत्या का कोई आधिकारिक या स्वतंत्र रूप से सत्यापित प्रमाण नहीं मिलता है। सुरक्षा बलों की ओर से जिन मुठभेड़ों की जानकारी सामने आई है, उनमें मारे गए लोगों को माओवादी सशस्त्र कैडर के रूप में दर्ज किया गया है, न कि सामान्य नागरिक के रूप में।

▪️मुठभेड़ और नागरिक मौतों के आंकड़े

▫️छत्तीसगढ़ के बस्तर, बीजापुर, सुकमा और दंतेवाड़ा जैसे नक्सल प्रभावित जिलों में इस वर्ष कई बड़े एंटी नक्सल ऑपरेशन हुए हैं। इन अभियानों में बड़ी संख्या में माओवादी मारे गए हैं, लेकिन नागरिक मौतों की संख्या सीमित और अलग श्रेणी में दर्ज है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों में नक्सली हिंसा के दौरान नागरिकों की मौतें हुई हैं, परंतु यह संख्या दर्जनों में है, सैकड़ों में नहीं। इसलिए सोशल मीडिया पर प्रसारित 400 आदिवासियों की हत्या का दावा तथ्यात्मक रूप से पुष्ट नहीं होता।

▪️आदिवासी और नक्सल हिंसा का जटिल संबंध

▫️यह सच है कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र मुख्य रूप से आदिवासी बहुल हैं। इसी कारण सुरक्षा बलों और माओवादी संघर्ष का सीधा असर स्थानीय आदिवासी समुदायों पर पड़ता है। कई बार निर्दोष ग्रामीण दबाव, डर और हिंसा के बीच फंस जाते हैं। मानवाधिकार संगठनों ने भी समय समय पर यह चिंता जताई है कि ऑपरेशन के दौरान नागरिक सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन इसे राज्य प्रायोजित आदिवासी सफाया कहना तथ्यों से परे एक अतिशयोक्ति है।

▪️लोकतंत्र और संवाद का सवाल

▫️सोशल मीडिया संदेश में लोकतंत्र पर सवाल उठाया गया है। वास्तविकता यह है कि छत्तीसगढ़ में सुरक्षा अभियान संवैधानिक ढांचे के तहत संचालित होते हैं और न्यायिक निगरानी, मीडिया रिपोर्टिंग तथा मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाएं मौजूद हैं। यह भी सही है कि सरकार की नीति केवल सैन्य कार्रवाई तक सीमित नहीं है, बल्कि पुनर्वास, विकास और आत्मसमर्पण योजनाओं के माध्यम से माओवादी प्रभावित युवाओं को मुख्यधारा में लाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं।

▪️राष्ट्रपति का आदिवासी समुदाय से होना और जमीनी सच्चाई

▫️यह तथ्य सही है कि देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आदिवासी समुदाय से आने वाली महिला राष्ट्रपति विराजमान हैं। यह लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व का प्रतीक है, लेकिन इससे जमीनी स्तर पर दशकों पुराने नक्सल संघर्ष की जटिलता अपने आप समाप्त नहीं हो जाती। समस्या का समाधान सुरक्षा, विकास और संवाद तीनों के संतुलन से ही संभव है।

▪️चलते-चलते••••••

▫️सोशल मीडिया पर प्रसारित संदेश भावनात्मक अपील करता है, लेकिन 400 आदिवासियों की हत्या जैसे दावे तथ्यात्मक जांच में सही नहीं पाए जाते। छत्तीसगढ़ में हिंसा का मूल कारण नक्सल आंदोलन और उसके खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई है, न कि किसी समुदाय विशेष के विरुद्ध योजनाबद्ध सफाया। लोकतंत्र में सवाल उठाना जरूरी है, लेकिन निष्कर्ष तथ्यों के आधार पर ही निकाले जाने चाहिए।