हिज़ाब की राजनीति से औरतों के अधिकारों का हनन!

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आज देश में महिलाओं को पुरुषों के समान शिक्षा नहीं दी जाती। खासकर मुस्लिम महिलाओं की बात करें, तो उनकी स्थिति और भी बुरी है। ऐसे में इन दिनों मर्यादा वाले एक कपड़े के नाम पर शिक्षण संस्थानों में जो राजनीति हो रही है, वो अनुचित है। क्या पहनावा शिक्षा से बढ़कर हो गया! देखा जाए तो धर्म कोई भी हो, लेकिन उसके रीति-रिवाजों का पालन करने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को ही मर्यादा की शिक्षा दी जाती है। लक्ष्मण रेखा भी उन्हीं के लिए खींची जाती है। ऐसे में अगर महिलाएं उस सीमा को लांघने का प्रयास करें, तो उसके चरित्र पर उंगलियां उठाने में भी देर नहीं होती। यही वजह है कि महिलाएं अक़्सर अपने ख़िलाफ़ हो रहे अन्याय का विरोध तक नहीं कर पाती है। इन दिनों राजनीति में नया ही प्रयोग शुरू हो गया है। जहां महिलाओं को मोहरा बनाकर देश में अशांति फैलाई जाने लगी है।

बात महिलाओं के हक या अधिकार की नहीं, बल्कि महिलाओं को आगे करके किस तरह वैश्विक पटल पर देश को बदनाम करने का खेल रचा जा रहा उसकी है। इससे हर कोई वाकिफ़ है। यह बात समझ से परे है कि आख़िर शिक्षण संस्थानों को राजनीति का अखाड़ा क्यों बनाया जा रहा! यह पहला मामला नहीं है, जब शिक्षण संस्थानों में राजनीति का रंग परवान चढ़ा है। देश के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में ही राजनीति का नँगा नाच किया गया और विडंबना देखिए कि देश के बड़े राजनीतिक दल ने उसका समर्थन तक किया। आज एक बार फिर शिक्षण संस्थानों में हिज़ाब को लेकर राजनीति हो रही है। देश को धर्म के आधार पर बांटने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में कहीं यह तो नहीं कि महिलाओं को शिक्षा से दूर रखने की साज़िश की जा रही हो। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

महिला और पुरुष दोनों ही ईश्वर की एक अनुपम संरचना है। जिसमें महिलाओं को पुरुषों से श्रेष्ठ दैवीय वरदान ईश्वर ने ही दिए है। स्त्री का काम कोमल मन माँ बनकर नए जीवन का सृजन करना है, ऐसे वरदान दिए गए जो हर परिस्थिति में एक महिला को पुरुष से अलग दर्शाते हैं। लेकिन, यहाँ मुद्दा यह नहीं कि महिला और पुरुष में श्रेष्ठ कौन है। यहां चर्चा समता और समानता की भी नहीं हो रही। बल्कि, आज के दौर में महिलाओं के नाम पर एक अलग ही राजनीति चर्चा का केंद्र बनी हुई है। यूं तो महिलाओं को मुद्दा बनाकर राजनीति करना नई बात नहीं! लेकिन, अफ़सोस है कि महिलाएं खुद इस जंग में मोहरा बनने को बेताब हुए जा रही है। एक तरफ़ इंसान चांद और मंगल पर जीवन की संभावनाएं तलाश रहा है! दूसरी तरफ महिलाओं के कपड़ों के नाम पर राजनीति होने लगी, जो विकृत मानसिकता है। क्या कपड़े किसी के व्यक्तित्व की पहचान हो सकते है, बेशक़ नहीं। फिर भी देश में इन दिनों एक धर्म विशेष की महिलाओं के कपड़ों के नाम पर राजनीति का बाज़ार गर्म है। जिसकी आग कर्नाटक के शिक्षण संस्थानों से से सुलगकर पूरे देश में फैल रही है।

आज भी देश में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाएं अपने अधिकारों से वंचित है। हमारे ही देश में पुरुषों का एक वर्ग ऐसा भी है जो महिलाओं को चार दिवारी में कैद रखने की वक़ालत करता है। वह किसी कीमत पर नहीं चाहता कि महिलाओं को समान अधिकार मिले। अगर ऐसा होता तो उनकी सत्ता छीन जाने का भय बना रहेगा। वे चाहते हैं कि महिलाएं कमज़ोर बनी रहे। जिस पर वह अपनी हुकूमत चला सके। उल्लेखनीय बात यह कि महिलाओं को इन सबको समझना होगा। तभी उनका सर्वांगीण विकास संभव हो पाएगा।

हमारे यहाँ महिलाओं को सदैव बड़ों का सम्मान करने की सीख दी जाती रही है। पर, इसके लिए हिज़ाब का विरोध जरूरी है। सब जानने और समझने के बाद भी मुस्लिम महिलाओं के हिज़ाब को लेकर शिक्षण संस्थानों में विरोध प्रदर्शन करना महज़ राजनीति से प्रेरित लगता है। बचपन से यही सिखाया जाता है और सुना भी है कि स्कूलों और शिक्षण संस्थानों में यूनिफॉर्म इसलिए होती है, ताकि ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और जाति-धर्म का भेद भूलकर बच्चें सिर्फ पढ़ाई कर सकें। फ़िर इस तरीके की बेजा कट्टरता किस काम की! मान लीजिए कोई लड़की हिज़ाब पहनकर स्कूल-कॉलेज तक आ भी गई तो क्लास के भीतर तो उसे निकालकर बैठना स्वाभाविक है। ऐसे में शिक्षण संस्थानों में शिक्षा की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए, न अनर्गल प्रलाप की। धर्म हमें बंटाने का काम कर सकता है, लेकिन इंसानियत हमें जोड़ती है।

ऐसे में इसके लिए प्रयास दोनों तरफ से होना चाहिए और बड़े बुजुर्ग भी कहकर गए हैं कि हमें देश-काल और परिस्थितियों के अनुरूप आचरण करना चाहिए। ऐसे में यह लड़कियों को स्वयं सोचना चाहिए कि वे शिक्षण संस्थानों में व्यक्तित्व विकास और शिक्षा के लिए गई हैं या फिर राजनीति का मोहरा बनने। कर्नाटक सरकार ने कर्नाटक शिक्षा अधिनियम-1983 की धारा- 133 (2) के तहत छात्र छात्राओं को शिक्षण संस्थानों में विश्वविद्यालय प्रशासनिक बोर्ड द्वारा निर्धारित पहनावा पहनने की वक़ालत की है। जिसके पीछे साफ मक़सद है, कि शिक्षण संस्थानों में समता व समानता का भाव बना रहे। वहीं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में धर्म को मानने उसके रीति रिवाजों का अनुसरण करने की बात कही गई है। लोक व्यवस्था तथा संविधान के भाग 3 के उपबन्धों के तहत ही यह अधिकार दिए गए है। वही संविधान का अनुच्छेद 19 (2) राज्यों को उचित प्रतिबंध लगाने का अधिकार भी देता है। ऐसे में कोर्ट का निर्णय क्या होगा यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा! लेकिन, शिक्षण संस्थानों को राजनीति का केंद्र किसी भी परिस्थिति में नहीं बनाना चाहिए। जिस देश में गुरुकुल की परम्परा रही हो। जहां राजा और रंक में कोई भेदभाव नहीं किया जाता हो, उस देश में शिक्षण संस्थानों को मज़हबी रंग दिया जाना निश्चित ही देश को पतन की राह पर ले जाएगा।

उर्दू के मशहूर शायर मजाज़ लखनबी ने क्या खूब कहा है ‘तेरे माथे पे यह आचंल बहुत खूब है, लेकिन तू इस आचंल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था!’ लेकिन, कहा जाता है कि लड़कियों के दुःख अजब होते हैं, सुख उससे अजब। हंसते हुए ख़ुशी से आंखें भीगती है, तो काजल बह जाता है!आज के दौर में महिलाओं की स्थिति कुछ ऐसी ही है। महिलाओं के लिए अक़्सर समता समानता की बात होती है, पर क्या वास्तव में ऐसा संभव है! शायद नहीं!

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सोनम लववंशी

पत्रकारिता में स्नातकोत्तर होने के साथ महिलाओं और सामाजिक मुद्दों की बेबाक लेखिका है। उन्होंने पत्रकारिता के कई संस्थानों में कार्य किया है।